कबाडी

राकेश शंकर त्रिपाठी
कानपुर

प्रत्येक सुबह का सूरज सदैव एक आस, एक विश्वास, नयी ऊर्जा, नयी चेतना, नये जोश एवं उमंग के साथ उदित होता है। दिन की शरुआत यदि अच्छी होती है तो जीवन हिलोरें मारता है और यदि नहीं तो दिन आशाओं और निराशाओं के बीच संघर्ष करता हुआ अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर लेता है।

इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति एवं वस्तु की अपनी भूमिका परिभाषित होती है और यह भूमिका गुण, क्षमता और योग्यता पर आधारित होती है। और प्रत्येक वस्तु एवं व्यक्ति, जीवन के किसी भी पायदान पर हो, उसका अपना महत्व होता है तथा महत्ता होती है। समस्त जीवों की भूमिका एक दूसरे के पूरक के रूप से होती है। हमारे देखने का नजरिया कैसा है यह उन व्यक्तियों और वस्तुओं के मूल्यांकन को निश्चित करता है, स्थापित करता है। अत: प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु का मूल्य सापेक्षता के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता, उसकी सोच और उसके परिवेश पर पूर्णतया निर्भर करता है। माल्थस का सिद्धांत भी महत्ता एवं उपयोगिता पर पूर्णतया लागू होता है।

हमने अपना सामाजिक जीवन देखा होगा कि लोग अक्सर सामान्य बोलचाल में या कभी किसी पर कटाक्ष करने के लिए या किसी के अहम को चोट पहुँचाने के लिए या नीचा दिखाने के लिए अथवा हास परिहास में उपर्युक्त शीर्षक को प्रयुक्त करते हैं । यह जानते हुए भी कि उनकी स्वयं की तीन अंगुलियाँ उन पर उठ चुकी हैं।

जीवन तरंगों का खेल है। तरंगे कमाल भी दिखाती हैं, धमाल भी करती हैं और जहाँ तरंगदैर्ध्य नहीं मिलती वहाँ जीवन में बेसुरा राग उत्पन्न कर मन और चित्त में दर्द उत्पन्न करती हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं चाहे जैसे भी हों, किसी भी वेष-भूषा में हो, भौतिक और मानसिक स्तर कैसा भी हो किन्तु मन को भा जाते हैं किन्तु कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई मनुष्य अच्छा खासा दुरुस्त है, तंदुरस्त है, विचार सकारात्मक हैं, पढ़ा लिखा है, ज्ञानी है किंतु वह कुछ लोगों को अच्छा लगता है और कुछ लोग उसे देखकर ही मुँह बनाने लगते हैं। एक अजीब सी बेचैनी उत्पन्न हो जाती है, बिना बात के। बैठे ठाढ़े एक समस्या।

मेरे साथ ऐसा कम ही होता है कि मुझे किसी को देख कर अजीब सा महसूस हो। “समत्वं योग उच्यते” की अवधारणा पर जीवन चल निकलता है। बात व्यवहार अच्छा हो किन्तु यदि किसी व्यक्ति को किसी का चेहरा न अच्छा लगे तो वह बेचारा क्या करे ? चेहरा तो ईश्वर की देन है, इसमें उसकी कोई भी भूमिका नहीं है। जैसे खर्राटे लेने वाले को लोग बहुत कोसते हैं किन्तु खर्राटे लेने वाला क्या करे, उसका क्या दोष। जब वह सो गया तो उसको क्या पता कि क्या हो रहा है। खर्राटे ले रहा है या नहीं। वैसे ही जैसा चेहरा भगवान ने बनाया वैसा लेकर उत्पन्न हुये और उसी को लेकर घूम रहें हैं। अब चेहरे की समस्या से ग्रस्त हो जाने के बाद कोई भी समाधान नहीं है। शायद सिवाय प्लास्टिक सर्जरी करा कर अपने चेहरे के विकारों को दूर करें। किन्तु इसके बाद भी क्या गारंटी है कि फिर कोई मुँह नहीं बिचकायेगा। लोग मुँह बिचकाते रहें और हम सर्जरी कराते रहें, तब तो हो गया। हो गई अपनी छुट्टी। अब अपना चेहरा जैसा भी है वैसा ही रहेगा, कोई घृणा करे या स्नेह करे। घृणा करने वाला विकार उत्पन्न करेगा जो उसी के लिए घातक है। अपनी ऊर्जा और शक्ति का ह्रास करेगा। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आप स्वतंत्र विचार के हैं, हाँ – हजूरी नहीं करते, ज्यादा चकल्लस बाजी में नहीं पड़ते तो भी आपको उपर्युक्त उपाधि से विभूषित किया जा सकता है। लोग बिना मतलब और बिना किसी कारण से चिढ़ने लगते हैं।

कुछ दिनों पूर्व की बात है। सुबह सुबह एक बैठक में जाना पड़ा। वहाँ पर दो व्यक्तियों के मध्य वार्तालाप चल रहा था। उस वार्तालाप में वे किसी तीसरे व्यक्ति के बारे में वार्ता कर रहे थे। उस वार्तालाप में उपर्युक्त शीर्षक का प्रयोग उस तीसरे व्यक्ति के बारे में किया गया। कारण कि चेहरा पसंद नहीं था। इस शब्द के प्रयोग को सुनकर मन उद्विग्न हुआ किन्तु यह भी एहसास हुआ कि जिसे हम हिकारत के भाव से याद करते हैं, वास्तव में वह हमारे लिए और समाज के लिए कितना उपयोगी है।

सोचिए कि यदि कबाड़ी नामक व्यक्ति अगर नहीं होता तो हमारे जीवन का क्या होता। हमारे घरों की रद्दी, प्लास्टिक, टूटे-फूटे सामान, गंदगी हमारे घरों की शोभा बढ़ा रहे होते। आज कल अपार्टमेंट कल्चर में वैसे ही हम जगह की समस्या से जूझते हैं और यदि यह व्यक्ति न हो तो जीवन दुश्वार हो जाए। पुरानी वस्तुयें अगर हटेंगी नहीं तो नए वस्तुओं का आगमन कैसे होगा। नए वस्तुयें यदि आयेंगी नहीं तो माँग कम हो जायेगी। यदि माँग कम हो जायेगी तो अर्थव्यवस्था चरमरा जायेगी और अर्थव्यवस्था चरमराई तो जीने के लाले पड़ जायेंगे। जीवन स्तर एवं उसकी गुणवत्ता प्रभावित होगी। अत: कबाड़ी नामक जीव अर्थव्यवस्था की प्रगति में, उसकी वृद्धि में, जीडीपी में अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करता है।

घरों की समस्त गंदगी को समेट कर जिन्हें हम बेकार का कबाड़ समझ लेते हैं, वह पुन: उसी कबाड़ से नए उत्पादों को जन्म देने की प्रक्रिया में अपनी आहुति प्रदान करता है। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि जब कोई आवश्यक वस्तु हमें नहीं मिल रही होती है, यह समाज ही हमें सलाह देता है कि कबाड़ी के यहाँ प्रयास करो और वह वस्तु हमें प्राप्त हो जाती है। कबाड़ी ही ऐसा जीव है कि जिन वस्तुओं को हम मूल्यहीन समझते हैं, उन्हीं वस्तुओं का मूल्य प्रदान करता है। और जब हमारी नजर में मूल्यहीन वस्तु का मूल्य प्राप्त होता है तो सुखद एहसास होता है। उसकी नजर में मूल्यहीन वस्तु भी मूल्यवान होती है। नजर से नजरिया और नजरिए से नजराना। उसका जीवन स्तर हम जैसे लोगों से बेहतर और अच्छा भी होता है। कबाड़ के ढेर का राजा होता है। स्वर्ग में चाकरी से बेहतर नर्क का राजा होना सुखद होता है। उसका मानसिक स्तर भी हमसे बेहतर है क्योंकि वह इस शब्द को किसी के लिए भी प्रयोग नहीं करता होगा। यदि कभी भी कोई व्यक्ति हमें इस उपाधि से विभूषित करे तो हमें खुश होना चाहिए कि हम भी उसी भूमिका में हैं, मनुष्य के मानसिक कबाड़ और विकारों को आत्मसात करने की।