हिंदी कविता

कर्मयोगी

करवटों में नींद ढूंढे,
उलझनों में हौसले।
भीड़ में पहचान खोजे,
भटकनों में मंजिलें ।।

लक्ष्य के प्रति हो समर्पित,
कष्ट को वरदान जाने।
अनवरत हो कार्य कोशिश,
इष्ट का एहसान माने ।।

हो सफलता मन प्रफुल्लित,
तनिक ना अभिमान आये।
विफलता में हो न विचलित,
फिर नए अभियान ध्याये ।।

स्वर्ण कुंदन बन सका ,जब
अग्नि में वह था तपाया।
लाख कंटकपूर्ण पथ पर
रास्ता अपना बनाया ।।

हर समर्पित कर्मयोगी की,
यही प्रचलित कहानी।
नाव तैरा दे ,जहां पर
बूंद भर भी हो न पानी ।

डॉ. लक्ष्मी शंकर त्रिपाठी, कानपुर

देश के सपूत

उठो सपूत राष्ट्र के,  जगा रही तुम्हें  धरा।
पुनः महान देश हो, विचार ये करो जरा।

प्रबुद्ध देशवासियों, न ढील दो लगाम को।
बिना किसी विराम के, करो नवीन काम को।

एकाग्र हो यकीन से, निशान साध तीर के।
बिना मिले न लक्ष्य के, रुके न पैर वीर के।

जहां कहीं बवाल हो, व नाक का सवाल हो।
न भूल हो यदा कदा, नहीं कभी मलाल हो।

भरा नवीन जोश हो, नहीं समाप्त रोष हो।
सभी दिलों पे राज हो, नहीं कहीं प्रदोष हो।

महीन सी इबारतें, लिखी गईं जहां कहीं।
सम्हाल लें संवार लें,  रहें सदा मिटे नहीं।

सुधार देश में करें, जला मशाल ज्ञान की।
यहां सदा बने तभी,बात राष्ट्र शान की।

कर्नल प्रवीण त्रिपाठी, नोएडा/उन्नाव

परिभाषाएं बदल रहीं

अस्तित्व के अस्तित्व में, लड़ रहे हम सब यहाँ,
हीन कर अस्तित्व को, नीति औ धर्म का।

चल रहें हैं चाल हम, शतरंज़ की बिसात पर,
कर रहें हैं वार यहाँ, घात औ प्रतिघात का।

युद्घ व्यापक चल रहा, जिंदगी की भूमि पर,
प्रश्न है केवल यहाँ, नीति औ अनीति का।

नीति औ अनीति भी, बदल रही भाषा यहाँ,
बदल रहें हैं अर्थ अब, काल और वक्त का। 

युग युगों से चल रहा, है खेल केवल शक्ति का,
शक्ति ही व्यापक यहाँ, अस्त्र है यह शान्ति का।

जीतने रावण यहाँ, चाहिये इक राम अब ।
कर सके जो दहन फिर, शीश अब दसशीश का।

-राकेश शंकर त्रिपाठी

कुटुम्बकम्

प्रगति के पथ पर,
प्रतिपल, प्रतिक्षण
, भावना हमारी है कुटुम्बकम्।।

फूलों सा पुलकित ,
सुगंधित समन्वित ये,
नाम ही परिवार का है कुटुम्बकम्।।

नम्रता, पवित्रता,
जो आदर बड़ों को दे,
ऐसा घराना है हमारा कुटुम्बकम् ।।

श्री लाल साहेब बाबा के,
आशीष से सुशोभित कुल,
अभिवृद्धि प्राप्त करता हमारा कुटुम्बकम्।।

प्रीति से अलंकृत ये,
आह्लादित खुशियों से,
ऐसा परिवार है हमारा कुटुम्बकम् ।।

हमारी इस बगिया में,
वर्चस्व आप सबका हो,
ऐसा संसार है हमारा कुटुम्बकम्।

ममता त्रिपाठी, शिक्षिका कानपुर

कलम की ताकत

देश का जब भी यह हाल होगा,
यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ बवाल होगा
फिर धार तलवार की मिटानी होगी,
अलख प्यार की जगानी होगी।
कलम को ताकत अपनी दिखानी होगी।

जब कभी भेद-भाव का शोर होगा,
वतन अपना ही कमज़ोर होगा,
युवकों उठो, सम्भालो देश अपने कन्धों पर,
वरना धिक्कार ये जवानी होगी।
कलम को ताकत अपनी दिखानी होगी।

देखते देखते देश टुकड़ों में बांटा जायेगा,
अपना ही भाई अपने ही हाथों कटा जायेगा,
भारत कभी महान था इस दुनियां में,
पुस्तकों में पढ़ने की यह कहानी होगी।
कलम को ताकत अपनी दिखानी होगी।

देश का हाल यह न होने पाये,
खुश रहें सब, न कोई रोने पाये,
वतन को ऐसा चमन बनाना होगा,
प्रेम की गंगा बहानी होगी।
कलम को ताकत अपनी दिखानी होगी।

कलम वालों को मैदान में आना होगा,
अनेकों को एक बनाना होगा,
कलम के वेग को तूफानी बनाना होगा,
कवियों की भूमिका निभानी होगी।
कलम को ताकत अपनी दिखानी होगी।

- श्याम श्रीवास्तव 'रोहित',
लखनऊ (उ.प्र.)

बदलाव

जाने कैसा मौसम आया, साथी सारे बदल गए।
संबंधों की भाषा बदली, भाई - चारे बदल गए॥

निर्वासित हो गयी उमंगें, सन्नाटों के गांव बसे।
जो गीतों की गंध लुटाते, वो बंजारे बदल गए॥

यौवन अब भी चांदी सोना, चितवन जादू टोना पर।
लज़्ज़ा के आभूषण बदले, चपल इशारे बदल गए॥

सोये लोगों की नस नस में, जो बिजली भर देते थे।
आज़ादी के सूत्रधार वे, सारे नारे बदल गए॥

रोने पर जो हंस देते हैं, मुझ पर व्यंग कसा करते।
जिनको गंगाजल समझे थे, अश्रु हमारे बदल गए॥

आँगन में जो नन्हे मुन्ने, चंदा सूरज से खेले।
आज वही जब बड़े हुए, आँखों के तारे बदल गए॥

आज अमावस के घेरे में, ज्योतिपुंज के वाहक हैं।
अंधियारों का रोना कैसा, जब उजियारे बदल गए॥

- कमल किशोर "भावुक"',
लखनऊ (उ.प्र.)

मुखौटे

मन के अंदर हैं घनी गुफ़ाओं के जंगल,
जो हैं अनंत, जो रहते हैं सुनसानों में,
हर भाव छुपा रहता है उनके ही भीतर,
ज्यों प्राण छुपे रहते हैं हम इंसानों में।

वे सभी भाव बाहर आने को तत्पर हैं,
पर उनपर हमने कड़ा बिठाया पहरा है,
विश्वासजनक जो हमें दिखाई देता है,
वह बस केवल चेहरे के ऊपर चेहरा है।

कुछ लोग हमें जो मुस्काते से दिखते हैं,
उनके पीछे आँसू की गहरी नदियाँ हैं,
आसान सफलता जो दिखती है ऊपर से,
उसके नीचे संघर्ष भरी कुछ सदियाँ हैं।

कुछ शांतिदूत बन कर इठलाया करते हैं,
पर युद्ध कराने को वे सदा समर्पित हैं,
कुछ प्रेम-अहिंसा पर प्रवचन देते रहते,
जिनका पल-पल बर्बरता को ही अर्पित है।

हर व्यक्ति यहाँ आडम्बर में डूबा दिखता,
क्या ये ही है मानवता का सच्चा संबल?
जो कठिन समस्या हमें घूरकर देख रही,
आखिर क्या कभी मिलेगा हमको उसका हल?

यह राह बड़ी टेढ़ी-मेढ़ी जो दिखती है,
है इकतरफा? या इस से कोई लौटा है?
माया की डोरी बँधी हुई इसपर कसकर,
कुछ और नहीं यह अपना मोह-मुखौटा है।

गर तोड़ उतारें ये नकली चेहरे हम सब,
तो असली सूरत एक सभी की आएगी,
जिस परम शक्ति ने एक रूप में हमें रचा,
उसकी परछाईं हम सब में दिख जाएगी।

यदि सत्य रूप से जीवन पथ पर बढ़े चलें,
तो परम शांति हम अपने मन में लाएँगे,
जब मोह-पाप की धुंध छँटेगी राहों से,
तब हर मन्ज़िल आसानी से पा जाएँगे।

- अभिषेक त्रिपाठी, कानपुर

मेरी माँ

मुझे आज भी याद है
वो बचपन सुहाना,
मेरी शरारतें, तेरा आँखें दिखाना;
मेरा रूठ जाना और तेरा मनाना,
शाम होते ही यूँ खेलते खेलते, मेरा सो जाना;
मुझे जगा कर फिर तेरा खाना खिलाना,
मेरे लिए हर बार बाज़ार जाने पर,
वो गुड़िया लाना;
मेरे रोने पे वो टीवी चलाना और
मेरा रोना भूलाकर उस टीवी में खो जाना,
तेरे बाहर जाने पर
माँ तेरी साड़ी पहन कर
मेरा गुड़ियों के साथ खेलना
मुझे आज भी याद है माँ,
तेरे साथ बिताया वो बचपन सुहाना॥

—पल्लवी अवस्थी, मसकट, ओमान