सोच डस्टबिन की

समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैं क्या करूँ, कहां से शुरु करूँ और कहूँ तो किससे कहूँ। कोई भी व्यक्ति मुझे देखना तक नहीं चाहता। सब मुँह मोड़कर निकल जाते हैं। जो देखता भी है तो मुँह बिचका देता है। क्या अजीब स्थिति है। इसमें मैं क्या कर सकता हूँ। ईश्वर ने मुझे जैसा बनाया वैसा हूँ। इसमे मेरी क्या भूमिका है। यह जीवन भी कोई जीवन है?

लेकिन कहते हैं कि प्रत्येक जीव अपना प्रारब्ध लेकर इस जगत में पदार्पण करता है और उसके जाल में जीवन भर उलझा रहता है। समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी को नहीं मिलता और शायद यही मेरा भाग्य है और मुझे इस जीवन में इसी भूमिका को निर्वहन करने का दायित्व सौंपा गया है।

मैं घर के एक कोने में पड़ा हुआ हूँ, सभी से दूर। मुझे घर के अन्य सदस्यों से दूर रखा गया है। किसी भी वस्तु या जीव के लिये इससे बड़ा दन्ड और अपमान नहीं हो सकता कि उसे अपने लोगों से दूर कर दिया जाय। तुलसी दास जी ने कहा है - “सब तें कठिन जाति अवमाना” उसी तर्ज पर मैं अन्य सदस्यों से दूर एक कोने में एकाकी जीवन बिताता हुआ अपना धर्म निभा रहा हूँ। घर के सारे सदस्य सजे-सँवरे, साफ-सुथरे नजर आते हैं एवं सारी वस्तुयें चमकती हुई यथा स्थान रखी हुई हैं, सिवाय मेरे जो गन्दगी को लपेटे हुये हीनता की भावना से ग्रसित, दूसरों की दया पर निर्भर, सारी गन्दगी को समेटे हुए मूक बैठा है।

घर के सारे सदस्यों के क्रिया-कलापों और गति-विधियों पर मेरी नजर रहती है। इस घर के सारे सदस्यों में एक अत्यन्त ही महत्व पूर्ण व्यक्ति मुझे नजर आता है। प्राय: घर का कोई न कोई सदस्य कोई न कोई उलाहना लेकर, कोई न कोई शिकायत ले कर, कोई न कोई गिला शिकवा ले कर सारा का सारा दोष उस पर थोप कर अपने अन्दर की आग को ठन्ढा कर लेता है और वह असहाय व्यक्ति उस आग को आत्मसात कर अपने कर्तव्य पालन में पुन: लग जाता है। उसके चेहरे पर तनिक भी शिकन नहीं होती। उसका एक ही ध्येय होता है घर के सारे सदस्यों की एकजुटता एवं खुशी। बावर्ची के राजेश खन्ना की तरह।

कहीं कोई हीन भावना नहीं, कहीं कोई अपमानित होने का क्लेश नहीं। बल्कि व्यक्तित्व और बड़ा होता हुआ और सोच और बड़ी होती हुई दिखाई देती है मुझे। इसी प्रकार की भूमिका का निर्वहन करते हुए किसी भी संस्था के मुखिया को भी देखा जा सकता है।

मुझे लगा इस व्यक्ति और मुझमें समानता है। मैंने घर की गन्दगी को आत्मसात किया हुआ है और इसने घर के सदस्यों के विकारों को। मनुष्य के विकार भी गन्दगी की परिभाषा के अन्तर्गत आते हैं। और दोनों का ही वृहद उद्देश्य है स्वच्छता।

उस व्यक्ति के आचरण ने मुझे प्रेरित किया। मेरा स्वाभिमान और आत्म सम्मान, जो अभी तक सो रहा था, ने अँगड़ाई ली। मै अब समझ चुका था कि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। सब सोच पर निर्भर करता है। जैसी मेरी सोच वैसा मेरा जीवन। इस दुनिया के रचयिता ने जितनी भी वस्तुओं की रचना की है सारी की सारी उपयोगी हैं, जिनका कोई सकारात्मक पहलू न हो। अन्तर है तो सिर्फ और सिर्फ नजरिये का, अलग-अलग नजरिये से अलग- अलग नजारा नजर आता है। पानी से आधे भरे ग्लास को अगर हम यह कहते हैं कि ग्लास आधा खाली है तो लोग कहते हैं कि यह व्यक्ति नकारात्मक सोंच का है। यह नजरिया उनका है। मेरा तो यह नजरिया है कि यदि व्यक्ति यह कहता है कि गिलास आधा खाली है तो यह सकारात्मक सोच है, प्रगतिवादी सोच है। वह प्रगतिशील व्यक्ति है जिसने आधे खाली ग्लास में भविष्य की सम्भावनाओं को तलाश लिया है। पानी से भरे आधे ग्लास को पानी से पूरा भरने की कोशिश में जीवन को आगे ले जाने की कोशिश करेगा, दुनिया को आगे बढ़ाने की कोशिश करेगा जबकि पहले व्यक्ति का सिद्धांत - सन्तोषं परमं सुखं। अपना नजरिया।

मेरा स्व जाग्रत हो चुका था। मुझे भगवान शंकर की भूमिका याद आने लगी। यदि उन्होंने समुद्र - मन्थन में विष पान न किया होता तो यह दुनिया शायद न होती और होती भी तो किसी और रूप में। मैं भी तो वही कर रहा हूँ। मैं भी तो सारी गन्दगी को समेटे हुये इस दुनिया को स्वच्छ रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहा हूँ। मैं न होता तो शायद त्राहि - त्राहि मच जाती। मैं सुन्दर कृति हूँ सृष्टा की, इस बात का एहसास हुआ मुझे।

मुझ से लोगों का जीवन यापन ही चल रहा है। कूड़े के ढेरों को देखिये - विभिन्न पशु-पक्षी इससे अपने-अपने मतलब की वस्तुओं को ग्रहण कर रहे हैं। मुझसे ही खाद एवं वैकल्पिक ऊर्जा उत्पन्न करने का प्रयास चल रहा है। कितना उपयोगी हूँ मैं, गर्व है मुझको अपने आप पर। दुनिया कुछ भी कहे, क्या फर्क पड़ता है, कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। कुछ लोग कुछ कह कर ही अपने अन्दर के कूड़े को बाहर निकालते हैं। लेकिन यह उन्हीं के लिये घातक है क्योंकि जिस प्रकार की ध्वनि तरंगे हम निकालते हैं वे ही हमारे इर्द-गिर्द उसी प्रकार का वातावरण तैयार करती हैं। हम दुनिया को कोसते, दुनिया हमें। जो दुनिया को सदा कोसते वो अपने से हार चुके हैं।

सकारात्मक सोच ने मेरे अन्दर ऊर्जा का संचार कर दिया और मुझे शक्ति प्रदान की विकारों को आत्मसात करने की। आत्म- सन्तुष्टि की भावना ने असीम सुख प्रदान किया है। मुझे महसूस हुआ कि मैं एक मह्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहा हूँ स्वच्छता अभियान में।

सच है कि सोच का काफी प्रभाव रहता है, जीवन वैसा जैसी सोच।

राकेश शंकर त्रिपाठी, कानपुर