कैद हैं... ( ग़ज़ल )

डॉ.  कनक लता  तिवारी,मुंबई

ख़ूबसूरत यादें अब तो पत्थरों में क़ैद हैं
आज भी ये औरतें तो बेड़ियों में क़ैद हैं

कब सुनी दिल ने हमारी गुफ़्तगू जो तुम से
थी आज जाना हम तुम्हारी शोख़ियों में क़ैद हैं

 साथ रहने की तमन्ना गाँव घर ले आयी थी
पर नहीं मालूम था सब नफ़रतों में क़ैद हैं 

धर्म मजहब की रिवायत जोड़ती इंसान को
 लोग समझे ही नहीं बस ग़फलतों में क़ैद हैं 

तीरगी को दूर करने आएगी उजली सहर
 भावनाएँ बिस्तरों की सिलवटों में क़ैद हैं

 छा गई सावन की कालीये घटा जीवन पे भी
 अब तो यादें ज़िंदगी की सिसकियों में क़ैद हैं

 ख़्वाहिशों को पालने में भी ‘कनक’ आता मज़ा
 मेरे सारे ख़ाब अब तो गुल्लकों में क़ैद हैं