सम्पादक की ओर से

प्रदीप शुक्ल

प्रिय पाठकों,

देश ‘संकट’ के दौर से गुजर रहा है। सरहदें ‘दुश्मनों से घिरी हुई हैं। फिलहाल सीमाओं पर किसी बड़े ‘तूफान’ के आने के पहले जैसी खामोशी दिख रही है। यह खामोशी कब टूट जाए, अशांति और संघर्ष के माहौल में कब बदल जाए, कहना मुश्किल है। देश के जांबाज जवान डंटे हुए हैं। मुंहतोड़ जवाब दे चुके हैं। पहले से भी ज्यादा मजबूती, हौसले और जज्बे के साथ सीमाओं पर पहरा दे रहे हैं। सैनिक अपनी जिम्मेदारी जान हथेली पर लेकर निभा रहे हैं। हमें भी अपनी जिम्मेदारी निभानी है। चुप रह कर हाथ में हाथ रखकर नहीं बैठे रह सकते। देश के नागरिक हैं तो हमारी भी जिम्मेदारी बनती है। हमें समझना होगा अपना फर्ज और निभानी होगी भूमिका। एक बार फिर जगानी होगी राष्ट्रवाद की अलख। भर देना होगा राष्ट्र प्रेम, राष्ट्र सुरक्षा का जोश। हमें अंग्रेजों से यूं ही आजादी नहीं मिल गई। यूं महात्मा गांधी ने हमें स्वतंत्रता नहीं दिला दी। स्वतंत्र होने के लिए गांधी जी ने राष्ट्रवाद का नारा दिया था। जन-जन को राष्ट्र प्रेम के प्रति उद्वेलित किया था। एकता के सूत्र में समूचे राष्ट्र को पिरो दिया था। आज एक बार फिर हमें अगर अपनी शरहदों को ‘दुश्मन की बुरी नजर’ से आजाद कराना है तो राष्ट्रवाद का सहारा लेना होगा। राष्ट्रवाद की वैक्सिन से हम अपनी नागरिकों में भर सकते हैं नहीं ऊर्जा, जगा सकते हैं नई चेतना और जोड़ सकते हैं पूरे देश को।

दरअसल हमें आज सबसे बड़ी जरूरत है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद हमें अपने राष्ट्र की सांस्कृतिक विशेषताओं से न सिर्फ अवगत कराता है बल्कि राष्ट्र प्रेम, राष्ट्र के प्रति उत्तरदायित्व और राष्ट्र ही सर्वोपरि है की भावना को भी बलवती करता है। यह एक साझा सांस्कृतिक विरासत, परंपराओं, मूल्यों और भाषा पर भी जोर देता है। इतना ही नहीं, यह अनमोल विरासत हमें राष्ट्र की पहचान भी कराता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी ऐसा सशक्त आधार है जो हमें राष्ट्र की पहचान, इतिहास, गौरवशाली परंपराओं तथा नियति की व्याख्या सांस्कृतिक मानकों के आधार पर करने के प्रति प्रेरित करता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के हिमायतियों का हमेशा से मानना रहा है कि साझा संस्कृति राष्ट्रीय समुदाय के गठन को बढ़ावा देती है। साथ ही सांस्कृतिक विशिष्टता को संरक्षित करने और उस पर अमल करने की आवश्यकता पर भी बल देती है। यही सांस्कृतिक विशिष्टता गौरव तथा पहचान को बढ़ावा देकर हम सामुदायिक सामंजस्य को मजबूत कर सकते हैं क्योंकि साझा संस्कृति में धर्म, मजहब, समुदाय का महत्व गौर हो जाता है और राष्ट्रीयता ही सर्वोपरि हो जाती है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद हमें अपने राष्ट्र की सांस्कृतिक विशेषताओं से न सिर्फ अवगत कराता है बल्कि राष्ट्र प्रेम, राष्ट्र के प्रति उत्तरदायित्व और राष्ट्र ही सर्वोपरि है की भावना को भी प्रधानता देता है। वक्त बहुत नाजुक है। नाजुक वक्त की नब्ज को परखना होगा, गहराई से समझना होगा और समझदारी से देश को एकजुट कर दुश्मनों से मुकाबला करना होगा। हर किसी नागरिक को अपने-अपने स्तर पर अपनी-अपनी भूमिका निभानी होगी। सिर्फ देश के नेतृत्व के फैसलों पर टीका-टिप्पणी करना ही अगर हम अपना उत्तरदायित्व मान बैठेंगे तो फिर बात बिगड़ती जाएगी, देश के अन्दर वैचारिक विभाजन की खाई चौड़ी होती जाएगी। हमें सबसे पहले वैचारिक दृष्टि से दुश्मनों के खिलाफ एक समवेत आवेग के आधार का निर्माण करना होगा। अगर हम ऐसा करने में सक्षम हो गये तो फिर राष्ट की एकजुटता की शक्ति किसी भी लड़ाकू विमान या विध्वंसक बम से भी ज्यादा बढ़ जाएगी। तो आइए एक बार हम सब फिर से देश भर में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ऐसी सरिता बहाएं, जिसकी ऊंची उठती लहरों को देख कर ही दुश्मन की रूह कांप उठे।

धन्यवाद
प्रदीप शुक्ल

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