श्रीराम जन्म

– अभिषेक त्रिपाठी, कानपुर

आ गया चैत्र का माह और वह पुण्य प्रहर,
नवमी तिथि में जब सूर्य मेष पर गए ठहर,
नक्षत्र पुनर्वसु, कर्क लग्न, मध्याह्न काल,
था शुक्ल पक्ष, गुंजायमान था नभ विशाल।

पशु-पक्षी हर्षित, सजा हुआ था जग सारा,
नदियों से जैसे बहती थी अमृत धारा,
अज, हर, सुर, मुनि, गंधर्व, नाग एवं किन्नर,
बरसाते नभ से पुष्प, जोड़कर अपने कर।

अभिजित मुहूर्त में चली सुगंधित मधुर पवन,
झूमा कौशल्या माता का ममतामय मन,
फिर प्रकट हुआ वह परम अलौकिक सत प्रकाश,
जिससे मन के हर मोह–तिमिर का हुआ नाश।

प्रगटे प्रभु सत्य–सनातन, जग के सूत्रधार,
वे श्यामवर्ण ज्यों नीलकमल, शोभा अपार,
वह दिव्य प्रभा पीताम्बर की थी सदा अमल,
थीं चार भुजाएं, लोचन जैसे अरुण कमल।

कानों में कांतिमान कुण्डल शोभायमान,
घुंघराली अलकें, शीश–मुकुट दैदीप्यमान,
सजते हाथों में गदा–चक्र औ शंख–पद्म,
छिपता वैजन्ती माला से श्रीवत्स छद्म।

नूपुर, कौस्तुभ, केयूर, हार की भव्य कान्ति,
करुणा रस पूर्ण नयन, जिनमें थी परम शान्ति,
अगणित सूर्यों से बढ़कर था वह दिव्य तेज,
सम्पूर्ण सृष्टि को जिसने रखा था सहेज।

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हो तुम्हीं भविष्यत, तुम्हीं आज, हो तुम अतीत,
हो परे, मगर सब कुछ करते होते प्रतीत,
सबके मन में तुम रहते, हो जड़ या प्रबुद्ध,
दर्शन मिलते हैं उनको, जो हैं परम शुद्ध।

हर एक रोम में हैं असंख्य ब्रह्माण्ड निहित,
तुम सर्जक–पालक–नाशक हो, है यही विहित,
करने हित जग का, धरने को मानव शरीर,
तुम रहे गर्भ में मेरे, यह करता अधीर।

माँ का यश देने मुझको, करने को प्रसिद्ध,
ले रहे जन्म, यह भक्त–प्रेम को करे सिद्ध,
मैं मायावश संसार–सिंधु में थी निमग्न,
पर आज मोह के बन्धन सारे हुए भग्न।

है मेरा यह सौभाग्य, दिखे जो युगल चरण,
आई हूँ मैं हे नाथ तुम्हारी विमल शरण,
इस मंजुल छवि के दर्शन मन को रहें प्राप्त,
वह विश्व मोहिनी माया ना हो मुझे व्याप्त।”

था परम भक्ति से भरा हुआ माता का मन,
मुस्काए प्रभु, सुनकर उनके वे ज्ञान वचन,
बोले भगवन, “ऐसा ही होगा, सुनो मात,
कुछ हैं प्रसंग जो तुम्हें नहीं हैं अभी ज्ञात।

जब देखा माता कौशल्या ने वह स्वरूप,
भर गई हृदय में भक्तिपूर्ण ममता अनूप,
बह उठे अश्रु आँखों से, व्याकुल हुईं मात,
आनन्द–प्रेम में नहीं रहा कुछ और ज्ञात।

वह दिव्य रूप लगता था जैसे सहस्रार,
कर जोड़ किया माता ने उसको नमस्कार,
फिर बोलीं माता कौशल्या, “जय देव देव!
सर्वोच्च ज्ञान के सागर हो तुम एकमेव।

तुम पुरुषोत्तम हो, तुम अच्युत, तुम ही अनन्त,
गाते महिमा सब सुर–नर–मुनि, सब साधु–सन्त,
होती भजने में श्रुतियों की वाणी समाप्त,
हे मायाधर! तीनों लोकों में तुम्हीं व्याप्त।

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असुरों के फैले हैं जग में अपराध कर्म,
हैं त्रस्त सभी सुर–नर–मुनि गण, है लुप्त धर्म,
उनके ही अत्याचारों से आहत त्रिलोक,
खोया थोड़े भी पुण्य–कर्म, तप का विलोक।

करना है पुनः प्रतिष्ठित जग में सत्य–धर्म,
मेरे इस मानव जन्म कृत्य का यही मर्म,
यदि याद तुम्हें हो पूर्व जन्म का तप महान,
दशरथ जी के ही साथ किया था कठिन ध्यान।

है फल यह उसी तपस्या का जो मिला आज,
मैं पुत्र रूप में आया, करने सभी काज!”
यह सुनकर माता कौशल्या का बदला मन,
फिर उठी लालसा करने को शिशु का दर्शन।

बोलीं माँ प्रभु से, “त्यागो हे हरि यह स्वरूप,
सुख दो तुम सबको, धरकर अपना बालरूप,
वह अनुपम शिशुलीला कर देगी मुझे तृप्त,
मातृत्व भाव कर देगा मुझको परम दृप्त।”

सुनकर माँ का आदेश, छिपाई छवि अनन्त,
रोए प्रभु नन्हे बालक बनकर फिर तुरन्त,
यह समाचार फैला कोसल के द्वार–द्वार,
तीनों लोकों में बही भक्ति की नव बयार।

थर्राए डर से दुष्ट, अधम, खल, अपराधी,
मानो उनकी हर शक्ति बची हो अब आधी,
हर्षे सारे सत्कर्मी, ईश्वर जन्म जान,
अब होगा हर संताप दूर, यह हुआ भान।

हर भक्त हेतु जन्में प्रभु, रख मानव शरीर,
करने उन सबका चरित परम उज्जवल–सुधीर,
जिनका बस केवल नाम दिलाए परमधाम,
वे हैं मर्यादापुरुषोत्तम – मेरे श्रीराम।

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