श्वान व्याख्यान

दिनेश गंगराड़े

गन्ना, ईख, शुगरकेन देहातों की महत्वपूर्ण व्यापारिक फसल हुआ करती थी किंतु जब से ये “शुगर” की बीमारी चली है, इधर मालवा क्षेत्र में तो गन्ना खाने का, बोने का रिवाज ही लगभग विलुप्त प्रायः हो गया है। अब गन्ने यदाकदा दीपावली, छोटी दिवाली, बड़ी ग्यारस पर बिकते नजर आते हैं। अभी परसों दिवाली पर खरीद कर लाये चालीस रुपियों वाला गन्ना, मैं छील रहा था। यकायक मेरा दस वर्षीय पोता आया और पूछा दादाजी ये बांस क्यों छील रहे हो ? वाकई गन्ने की विलुप्ति, कमी के कारण नई पीढ़ी इसे बांस समझती है ?

यूपी, महाराष्ट्र में यही गन्ना राजनीति का मुख्य केंद्र बिंदु होकर मीठा ही नहीं अपितु कई मौकों पर कड़वा भी लगता है? प्रायमरी कक्षा में पढ़ा था कि गन्ने से शक्कर, गुड़, बनता है।पहली बार पता चला कि इसी गन्ने से महाराष्ट्र, उप्र में शक्कर लॉबी कई विधायक, सांसद भी बनाती है। गन्ना किसानों में ही नहीं वरन राजनीति में भी चर्चित एवं अहम भूमिका निभाता है। गन्ना, सांठा कभी मालवा में खूब पैदा होता था किंतु अब मालवी बोली में ही उत्पादित होता है। गन्ने की मिठास अब मालवी भाषा में समाहित हो गई है।

प्रायः देव उठनी ग्यारस से गन्ना पूजकर लोग खाते थे परंतु अब गन्ना, कम उपज की वजह से सालभर में ज्यादातर गर्मी में मधुशालाओं पर नजर आता है। बचपन में हम
हॉट-बाजार जाते तो गन्ना जरूर लाते थे फिर दो-चार दिन इसका मंजन चलता रहता था। आयुर्वेद कहता है, इसके सेवन से पाचन ठीक, दांत मजबूत तथा शरीर हेतु गन्ना
रामबाण रहता था। आजकल की नई उ र गन्ने को जानती नहीं है। नए बच्चे इसे बांस, डंडा समझते हैं। कौन इसे छीले, अपने दांत तुड़वाए, जुबान छिलवाए ?

देहात में चार दशक सरकारी नौकरी,भाटगिरी करने, गांव में जन्मने की वजह से अपुन ठेठ देहाती रहे और गाहे-बगाहे गन्ना जरूर चूसते रहे। दांत मजबूत होय, पाचन टनाटन रहे तथा मीठा रस भी मिलता रहे। इस कारण सांठा चूसते रहे, आनन्द लेते रहे । कुछ लोग गन्ने को छील कर ‘गंडेरी बनाकर बेचते भी हैं। गन्ने के रस में चावल के लड्डू, कई बार खाएं, गर्म गुड़ तो आज तक अविस्मरणीय है। गन्ना मीठाचट्ट होने से लोग काटकर चूसते हैं। इसका रस मधुशाला में जाकर पीते हैं। खेत पर बैठ कर नहीं ? मीठा होने से गन्ना काटा जाता और कड़वे पेड़ दूर से हिकारत से देखे जाते हैं। गन्ना सूखने परबांस की तरह हो जाता है। कुछ मनचले कल्पना करते हैं
कि काश, बांस में भी इतना मीठा रस होता तो सब उसे चूसते रहते किंतु बाँसुरिया कैसे बनती ? गन्ने के छोटे, छिलके सूखने पर श्रेष्ट इंधन है। किसान इसे सुखाकर ही गुड़ बनाते हैं। गन्ना जिसे चूसने को कौन करेंना,ना। देहातों में इसे कहते है सांठा,जिसके पीछे कई छोरे खाते हैं चांटा ? बुजुर्ग लोग इस गन्ने का उदाहरण देते हैं, देख तो नाना, गन्नो मीठो रेय तो उसे गोड़ से, जड़ से खोदकर नी खाय, पेरियाँ तोड़कर खाय, चूसे।

व्यापार में गन्ने की पेरी नहीं गिनते हैं, उसका रस चखते, चूसते, देखते हैं। मैंने तो बचपन से गन्ने की पेरियाँ देखी हैं किंतु अब तो यूपी, महाराष्ट्र में गन्ने की लाबियाँ कार्यशील हैं, जो चुनावों में मीठा कम, कड़वाहट ज्यादा उगलती हैं ? वैसे तो गन्ना चूसने पर मीठा रस उगलता है लेकिन बताते हैं कि गन्ना ज्यादा उत्पादन होने पर एवं भाव कम मिलने पर कई किसानों ने गन्ना सूखाकर जलाया था, तब उन्हें ये सांठा मीठा कम, कड़वा लगा था ? गन्ना, गुड़, शक्कर उत्पादक व्यापारिक फसल है। जिसे इस हाथ बेचो और उस हाथ कीमत लो। गन्ना शक्कर उद्योग में ही नहीं हिंदी के मुहावरों में भी चलते हैं। तारीफ करने, स्थिति वर्णन करने,व्यवहार दर्शाने में ये गन्नेली
कहावत काम आती है। मसलन गन्ना रस में शक्कर मिलाना, गन्ने का मीठा होना।शोषण पर,गन्ने की तरह चूसना, आनन्द हेतु गन्ना रस पीना, प्याज के छिलके की तरह गन्ने के भी छिलके उतारे जाते हैं। वैज्ञानिक बताते है इसमें एंटी ऑक्सीडेंट है, विटामिन सी, फाइबर भरपूर होता है। यह गैस, एसिडिटी कम करता है और त्वचा को चमकदार बनाता है। 

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