साधारण नहीं होते
राखी के धागे

हमारे भारत देश में अनेक त्योहार मनाये जाते हैं, जिनका उद्देश्य जीवन को सरस तथा सुंदर बनाये रखना है। इन्हीं त्योहारों में से अत्यंत महत्वपूर्ण त्योहार रक्षाबंधन भी है, जो भाई-बहन के अटूट स्नेह और प्रेम का प्रतीक है। यह पर्व पारिवारिक एकता, सामाजिक समरसता तथा सौहार्द्र को बनाये रखने की दिशा में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विवाहित बहनों के लिए रक्षाबंधन का पर्व अपने भाइयों के साथ माता-पिता एवं अन्य परिजनों से मिलने का सुअवसर प्रदान करता है। प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा को बहनें भाइयों की कलाइयों पर रक्षासूत्र बाँधती हैं, तिलक लगाती हैं, आरती उतारती हैं, मिठाइयाँ खिला कर अपने भाइयों की लंबी उम्र, स्वास्थ्य, संपन्नता, सफलता तथा सुखद जीवन की मंगलकामना करती हैं। सिर्फ बहनें ही नहीं, अपितु भाई और बहन दोनों ही एक दूसरे का आजीवन ध्यान रखने, साथ निभाने एवं रक्षा करने का मन ही मन प्रण लेते हैं। राखी के धागे साधारण नहीं होते। इन धागों में स्नेह, प्रेम, त्याग, विश्वास, सत्यनिष्ठा व अपनत्व बोध जैसी अनमोल भावनाएँ निहित होती हैं।

डॉ. कुमारी रश्मि प्रियदर्शनी, गया

सुदर्शन चक्र से जब श्रीकृष्ण की उंगली घायल हो गयी थी, रक्त बहने लगा था, तब वहीं खड़ी उनकी प्रिय सखी द्रौपदी ने उनकी पीड़ा से विचलित हो बिना देर किये अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर उनकी उंगलियों पर बाँध दिया था, जिससे रक्त का बहना रुक गया था। द्रौपदी के इसी निःस्वार्थ स्नेह और प्रेम का प्रताप था कि हस्तिनापुर में पांडवों और कौरवों से भरी सभा के समक्ष दुःशासन द्वारा द्रौपदी के चीरहरण का दुस्साहस किये जाने के दरम्यान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की प्रतिष्ठा की रक्षा उनकी साड़ी का वस्त्र बढ़ाकर की थी। भाई-बहन का प्रेम ऐसा ही उत्तरदायित्व बोध भरा होता है। श्रीकृष्ण और द्रुपदसुता से संबंधित यह अति प्रचलित कथा हमें यह भी संदेश देती है कि पारिवारिक डोर से बंधे संबंधों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण स्नेह प्रेम तथा विश्वास की डोरों से बंधे संबंध होते हैं। रक्षाबंधन से जुड़ी एक ऐतिहासिक कथा यह भी है कि जब मेवाड़ की रानी कर्णावती मेवाड़ पर आक्रमण करने की योजना बना रहे गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह से लड़ने में असमर्थ थीं, तो उन्होंने मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेज कर मेवाड़ की रक्षा करने का आग्रह किया था। हुमायूं ने मुसलमान होते हुए भी राखी की प्रतिष्ठा रखी और मेवाड़ पहुंच कर बहादुरशाह के हमले से प्रदेश की रक्षा की। रक्षाबंधन का पर्व भाई-बहन के मध्य ऐसी ही कर्तव्यनिष्ठा की शिखा प्रज्ज्वलित करता आया है।

भाई और बहन का रिश्ता मित्रवत होता है। दोनों को एक दूसरे पर अटूट विश्वास होता है और अपनी समस्याओं को वे एक दूसरे से बेझिझक साझा करते हैं। जो बातें माता-पिता तक को अपनी संतानों के बारे में पता नहीं होतीं, वे बातें एक भाई को अपनी बहन और एक बहन को अपने भाई के बारे में पता होती हैं। संकट की घड़ियों में वे एक दूसरे की ढाल बनकर खड़े रहते हैं। सत्य तो यही है कि हर रिश्ता सत्य, विश्वास, समर्पण और सहानुभूति जैसे अनुपम भावों पर ही टिका होता है। जहाँ सत्य न हो, प्रेम न हो, करुणा न हो, विश्वास न हो, पारस्परिक समर्पण भाव न हो, समझ न हो, संवेदना न हो, वहाँ किसी भी अटूट रिश्ते की कल्पना नहीं की जा सकती। विपत्ति के समय मित्र की तरह ही भाई-बहन के भी प्रेम और अपनत्व की वास्तविक परीक्षा होती है। दोनों ही एक दूसरे के दुःख-दर्द को कम करने हेतु यथासंभव प्रयास करने से पीछे नहीं हटते।

भाई-बहन दोनों ही वृक्ष की एक डाली पर लगे पुष्पों की तरह ही तो होते हैं। दोनों एक साथ पले-बढ़े, पल्लवित-पुष्पित होते हैं। दोनों में समान रूप से मातृत्व एवं पितृत्व की भावनाएंँ निहित होती हैं। जहाँ बहनें अपने भाइयों में अपने पिता जैसी ही दृढ़ एवं शक्तिशाली छवि देखती हैं, तो वहीं भाई अपनी बहनों में माँ जैसी ही ममतामयी छवि देखते हैं। बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण होती है वह स्थिति, जब भाई-बहन तुच्छ स्वार्थपरता के वशीभूत होकर अपने मन में पारस्परिक कटुता पाल लेते हैं, एक दूसरे को मित्र की जगह प्रतिद्वंदी मान बैठते हैं, धन-संपत्ति के लिए एक दूसरे का नुकसान करने तक के लिए तैयार हो जाते हैं। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों को रोकने के लिए माता-पिता तथा समाज को यह अनिवार्य रूप से ध्यान रखना चाहिए कि भाई-बहन में से किसी के साथ भी किसी भी तरह का अन्यायपूर्ण भेदभाव न हो।

रक्षाबंधन का पर्व महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को भी कम करने में बड़ी भूमिका निभाता है। यदि रक्षाबंधन जैसा कोई विधि-विधान नहीं होता, तो शायद आज महिलाएँ घर में तथा बाहर, दोनों ही स्थानों पर और भी अकेली होतीं, असुरक्षित होतीं। रक्षाबंधन का पर्व संवेदनशील पुरुषों के मन में केवल अपनी ही बहन नहीं, अपितु दूसरों की बहनों के प्रति भी सम्मान का भाव रखने के लिए प्रेरित करता है। साथ ही, दूसरी महिलाओं की भी रक्षा करने के लिए ऊर्जा तथा उत्प्रेरणा भरता है, क्योंकि उन्हें हर स्त्री में अपनी बहन जैसी ही छवि दिखने लगती है।

राखी के धागों की लाज निभाना पुरुषों के लिए गौरव और सौभाग्य का विषय होता है। देश के जाँबाज़ सैनिक भाई, जो अपने घर-परिवार तथा प्रियजनों से दूर रहकर मातृभूमि की रक्षा में दिन-रात लगे रहते हैं, देश की माँ-बहनों एवं भाइयों को सुरक्षित रखने के लिए अपने प्राण दाँव पर लगाये रहते हैं, भी रक्षाबंधन के दिन हर बहन को याद आते हैं। देश के सभी वीर जवानों को भी बहनें राखियाँ भेजकर, रक्षासूत्र बाँधकर उन्हें यह अहसास दिलाती हैं कि वे कहीं भी रहें, अकेले नहीं हैं। देश की सभी बहनों की शुभकामनाएँ और आशीर्वाद अनवरत उनके के साथ हैं। मातृभूमि की रक्षा में जुटे रहने वाले सैनिक भाइयों का भरपूर उत्साहवर्द्धन करती हैं ये रंग-बिरंगी राखियाँ। रक्षाबंधन के दिन बहनें अपने भाइयों की कलाइयों पर राखी बाँधते समय यही मंगलकामना करती हैं कि,

"रक्षा करना सब बहनों की, कहते हैं राखी के धागे।
भैया तुमको मिले सफलता, जीवन से हर बाधा भागे।।
राखी के ये धागे रक्षा करें तुम्हारी, बनकर ढाल।
मेरे प्यारे भैया, जीवन सदा रहे तेरा खुशहाल।।
सेवा करना सदा देश की, बहनों की अभिलाषा है।
परहित हेतु कर्म करना ही जीवन की परिभाषा है।।"

वर्तमान समय में पेड़-पौधों को भी राखियाँ बाँधी जाने लगी हैं। ये राखियाँ प्रकृति की गोद में रह रहे सभी जीव-जंतुओं की रक्षा करने का संकल्प होती हैं। आज पेड़-पौधों के साथ संपूर्ण क़ुदरत की रक्षा करना बहुत ज़रूरी हो गया है। पेड़-पौधे भी तो हमारे भाई-बहन के समान ही हैं। धरती हम सबकी माता है, पालन-पोषण करने वाली है, जीवन दाता है। इस दृष्टि से सभी जीव-जंतु हमारे अपने भाई-बहन जैसे ही हैं। जिस तरह से पेड़-पौधे हम मनुष्यों एवं अन्य जीव-जंंतुओं के जीवन तथा अस्तित्व की रक्षा करते हैं, उसी तरह से हम मनुष्यों का भी यह परम दायित्व है कि हम भी इन पेड़-पौधों की रक्षा करें, प्रकृति के आंगन में जीवनयापन कर रहे जलचरों, थलचरों व नभचरों की रक्षा करें। इनपर अनीतिपूर्ण अत्याचार होने से रोकें। प्रकृति का संरक्षण करें, जैव-विविधता के प्रति अपनत्व का भाव रखें। रक्षाबंधन का पावन पर्व आने वाले समय में भी मनाया जाता रहे, इसके लिए प्रकृति और नारी दोनों का सुखी, सुरक्षित तथा संरक्षित रहना अत्यावश्यक है। हमारी दिव्य भारतीय संस्कृति भी तो सदा से ही "उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम" श्लोक से अनुप्राणित हो मानवतावादी सिद्धांतों पर चलती आयी है।