ये कहाँ आ गए हम.. यूँ ही होड़ करते करते

मनीषा टिबडेवाल, कोलकाता

राजनीति, खेल, धर्म, और तत्कालीन समाचारों के बीच अखबार की सुर्खियों में हमेशा से छाए रहे कुछ घरेलू मामले…

दहेज के लिए बहू पर ढाए गए जुल्म..
पत्नी हुई घरेलु हिंसा का शिकार..
शराब पीकर पति ने पत्नी पर किया मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न ..

फिर ज़माना बदल गया
सुर्ख़ियों में आया बदलाव
पति के अवैध सम्बंध के कारण पत्नी पर हुआ जुल्म…
पति पकड़ा गया अपनी प्रेमिका के साथ..

पति के ऑफिस में सेक्रेटरी के साथ नाजायज संबंध..
फिर ज़माना और बदला
सुर्खियों में उछाली गई ऐसी ख़बरें
पति ने की पत्नी की निर्मम हत्या..
धन के लालच में बेमेल शादी..
घर से बेघर, बच्चों को छीन लिया, भ्रूण हत्या का सिलसिला बढ़ा….
तन्दूर कांड, जैसी निर्मम घटनाएं …

इन घटनाओं पर फ़िल्में बनी, परिचर्चा हुई, अखबार के पन्ने भरे गए, टीवी सीरियल बने..

पर ऐसी घटनाएं नहीं रुकीं, ना रोकने की कोई खास कोशिश की
गई..
बातें उठती और बासी ख़बरों के ढेर में दब जातीं.. हर नयी खबर के साथ पुरानी ख़बरों में उबाल आता पर.. बदलाव नहीं हुआ।

तब समाज के तथाकथित बुद्धिजीवियों को जरूरत महसूस हुई कि महिलाएँ शिक्षित नहीं है, स्वावलंबी नहीं है। शायद इसलिए अबला हैं और पुरूषों की हिम्मत बढ़ रही है।

कुछ हद तक बात सही भी लगी।
और सामाजिक स्थिति में बदलाव लाने का प्रयास शुरू हुआ।
महिलाओं की शिक्षा और कैरियर पर ध्यान दिया जाने लगा।
पर इससे महिलायें सशक्त हुईं और अपने हक की बात करना भी सीख गईं …
इससे एक खास तबके की स्थिति सुधरी। लेकिन बाकी जगह सारे घटनाक्रम ज्यों के त्यों। बल्कि ऊपर से सामाजिक दिखावे में सब कुछ सही रख कर घर के अंदर का तांडव वैसे ही चलता रहा।
अब धीरे धीरे स्थिति में काफी बदलाव आ गया है।
समाज में बराबरी की बात होने लगी। महिलाएं हर क्षेत्र में सफल होने लगीं। नौकरी पेशे में भी आ गईं।

अब परिष्कृत छवि को धूमिल ना करके बारीक से बारीक तरीके हो गए। ऑफिस में शोषण, पुरुष की दोहरी मानसिकता, महिलाओं पर दोहरी जिम्मेदारी की मार इत्यादि।

महिलाओं के अंदर की कोमल महिला खत्म होने लगी। महिलाओं की विशेषता है, कोमल स्वभाव, ममता, और सहनशीलता।

पर जब पुरुषों से संगत करते करते, भागते, दौड़ते कोमलता काफूर हो गई और निकल कर आने लगा उसके अंदर से एक पुरुष।

समाज में महिलाओं से छेड़ छाड़, बलात्कार आदि की बर्बरता भी बहुत ज्यादा सर उठाने लगी है।

आत्मरक्षा हेतु कराटे, मार्शल आर्ट आदि लड़कियों को स्कूल में ही सिखाया जाता है…

लेकिन अब पिछले कुछ महीनों से महिलाओं के अंदर की वीभत्स, बर्बर छवि उभर कर आ रही है कभी नीले ड्रम से, कभी सुटकेस से।
अभी कुछ दिनों पहले की कहें तो अति हो गई जब सोनम रघुवंशी का हत्या कांड सुर्खियों में आया।

मैं पढ़कर अन्दर तक हिल गई। सच कहूँ तो मुझे अब भी विश्वास नहीं हो रहा है।
किसी को जीवन साथी ना बनाना हो तो सौ तरीके हैं मना करने के, विद्रोह करने के, फिर भी अगर बात ना बने तो शादी के बाद भी कई तरीके हैं… पर अपने आप के सुखद भविष्य की कामना करते हुए किसी हत्या कर देना, महिला का ये रूप तो हम महिलाओं को भी स्वीकार नहीं है।
हम शिक्षित हैं, सक्षम हैं। हमें अपनी शर्तों पर जीने का हक है और कानून भी बालिग लोगों को ये आजादी देता है कि वो अपनी मर्जी से जियें।

खुद में जिनके अंदर कमजोरी होती है वो ही ऐसा गलत कदम उठा रहे हैं। अपने साथ सारी महिला वर्ग को हाशिये पर रख रहे हैं। तलाक नहीं देने की हिम्मत थी तो भाग जाती।

आजकल की ओटीटी पर वेब सीरीज देखकर, क्राइम पेट्रोल के सीरिअल देखकर या फिर उकसाने पर भ्रमित हो जाना कहां की अक्लमंदी है ?

सोनम को ये परिणाम नहीं दिखा कि पकड़ी गई तो क्या होगा?
एक जीते जागते व्यक्ति को निर्ममता से मार देना और फिर सुख से जी पाने की कल्पना, ये सामान्य व्यक्ति की सोच हो ही नहीं सकती।

अब ना वो सुखी हुई ना उसका पति बचा.. एक व्यक्ति के साथ उसका पूरा परिवार जीते जी खत्म हो जाता है।

प्यार को ताकत बनाने की जरूरत है ना कि कमजोरी।

अब चारों तरफ समाज में महिलाओं का चरित्र चित्रण किया जाएगा। उनकी शिक्षा, आजादी और आत्मविश्वास को शक की निगाहों से देखा जाएगा। और हम सब पर बिना बात के अंगुली उठाई जाएँगी।

पुरुष हो या महिला ऐसा उच्छृंखल स्वभाव स्वीकार्य नहीं है। मानवता को तार तार करने वाली घटनाएं, चाहे वो अभया कांड हो या सोनम कांड, हमें इसका विरोध करना चाहिए। और ऐसा नहीं हो, उसका प्रयास किया जाना चाहिए। महिलाओं का मौलिक गुण है मातृत्व तथा पुरुष का संरक्षण !
दोनों को इसे कायम रखना चाहिए।

माता-पिता और युवाओं के वैचारिक मतभेद हो सकते हैं.. हम अपने लिए कुछ सपने ऐसे देख सकते हैं जो कि हमारे माता पिता के विचारों से अलग हों। ऐसे में हमें प्रयास करना चाहिए कि हम समझदारी से काम लें।

साथ ही साथ माता पिता की भी जिम्मेदारी बनती है कि बच्चों को दबाव में ना डालें। उनकी भावनाओं को समझें।

वो गलत हैं तो उनको समझायें ताकि ऐसी नौबत ही नहीं आये। जब हम अपने बच्चों को शिक्षा दिलाते हैं, उनकी अलग पहचान बनाने के लिए प्रयास करते हैं, उसके बाद अपने विचार उन पर थोपने के बजाय उनको सही निर्णय लेने में मदद करनी चाहिए।
भेड़चाल में शामिल होकर उनके भविष्य से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए।

अंत में कोर्ट कचहरी के चक्कर, तलाक या फिर सोनम हत्याकांड जैसे भयावह भी हो सकते हैं।

“खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है
हम पुरुष को कोमल नहीं बना पाए
खुद को उनके रंग में रंग डाला..
वो संवेदनशील ना हो सके
हमने खुद को भी निर्मम बना डाला
बराबरी की होड़ जारी है
हर पड़ाव पिछले पर भारी है”

Author