मैं पृथ्वी हूँ
– डॉ. रामानुज पाठक, सतना
मैं पृथ्वी हूँ — साक्षी सहस्राब्दियों की,
मौन में भी गूँजती रही सभ्यताओं की ऋचाएँ।
मैंने गर्भ में पाला है समय को,
और मेरी छाया में पनपे हैं चिरंतन प्राण।
मैंने उगाए हैं चाँद के स्वप्न,
और सूर्य के दीपक तुम्हारी राहों में जलाए।
किन्तु अब मेरे आकाश में धुएँ की स्याही है,
और मेरे आँचल में आँसुओं की छायी कहानी है।
वो काल भी था — जब मेरा आँगन पुष्पवती था,
वायु मलयानिल थी, और नदियाँ गाती थीं लोरियाँ।
आज उन्हीं नदियों में बहते हैं प्लास्टिक के शव,
और हवाओं में जहर की गंध है — अदृश्य, अपराजेय।
तुमने मुझे देवी कहा, मंदिरों में दीप जलाए,
पर मेरी देह पर बाँध दिए यंत्रणा के प्लास्टिक सूत्र।
कृत्रिमता के इस आवरण ने,
मुझे मेरी मिट्टी से काट दिया है।
समुद्र मेरा हृदय है — पर अब वह टूटा हुआ है,
कछुए पीते हैं विष, मछलियाँ गलियों में दम तोड़ती हैं।
घोंसले नहीं, अब प्लास्टिक की जालियाँ हैं शाखों पर,
जहाँ पक्षी नहीं, मृत्यु पलती है।
क्या विकास वह है जो विनाश की चुप्पी में उगता है?
क्या तुम्हारी प्रगति वह है —
जिसमें जीवन के स्वर गूंगे हो जाते हैं,
और धरा पर प्रश्न बनकर खड़े होते हैं वृक्ष?
“ग्रह बनाम प्लास्टिक” — यह संघर्ष है मौन का उद्घोष।
यह युद्ध है — तुम्हारी लापरवाही के विरुद्ध मेरी करूणा का।
क्या अब भी सुन सकोगे मेरी पुकार?
या फिर स्वार्थ की नींद में खो जाओगे?
अब समय है — सुविधा नहीं, संवेदना चुनने का।
थैली नहीं — थाल, काँच, कपड़े और करुणा अपनाने का।
मुझे केवल संसाधन नहीं —
सहचर मानो, सजीव अनुभूति समझो।
हर निर्णय तुम्हारा — एक मंत्र हो,
हर परिवर्तन — मेरा नवरस हो।
यदि तुम चाहो, मैं पुनः हरी हो सकती हूँ,
मेरी धड़कनें फिर से जीवन गा सकती हैं।
“मैं पृथ्वी हूँ…
मैं सृजन हूँ, संरक्षण भी — और अंतिम चेतावनी भी।
अब भी अवसर है — मेरी बाँह थाम लो,
अन्यथा जो शेष रहेगा, वह केवल निर्वात होगा।”