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“मम्मी जी, नेहा दीदी का फोन है...” स्वरा ने मोबाइल सास की ओर बढ़ाया। 'हेलो'
कहते ही नेहा की घबराई सी आवाज़ आई, “मम्मी, एक प्रॉब्लम हो गयी है। माँ
बाथरूम में गिर गयी है... उनके बाएँ हाथ में फ्रेक्चर आया है।”
“अरे! कैसे...? कहाँ...कब... अभी कैसी हैं ? कोई है उनके पास…?” नेहा की ‘माँ’ यानी सास के गिरने की खबर सुनकर नलिनी ने एक साथ कई सवाल पूछ डाले तो जवाब में नेहा रोनी आवाज में बोली, “वो इंदौर में ही हैं। आज रात उन्हें अहमदाबाद के लिए चलना था। उन्हें हाथ में फ्रेक्चर हुआ है। अब कैसे आएँगी !! मम्मी, अब मेरा क्या होगा... दो हफ्ते बाद सलिल को केनेडा जाना है और अगले हफ्ते मेरी डिलीवरी है...मम्मी, आप आ पाओगी क्या?”
नेहा ने चिंता में डालने वाली इतनी सारी ख़बरें देकर ऐसा प्रश्न पूछ लिया कि वह एकदम से जवाब नहीं दे पाई और कुछ पल को मौन ही हो गई।
"क्या हुआ मम्मी?" नेहा ने पूछा तो वह हकबकाकर बोली, "क्या कहूँ समझ में नहीं आ रहा है।"
"मम्मी, मेरी भी समझ मे नहीं आ रहा है कि क्या करूँ।"
नेहा के स्वर से लग रहा था वह रो ही पड़ेगी।
वह धर्मसंकट में फंसी हुई थी एक ओर बेटी की पहली संतान का जन्म दूसरी ओर नई नवेली बहू जिसके भरोसे घर छोड़ने की दुविधा। एक महीने पहले ही उसने बेटे का ब्याह किया है। नई-नवेली बहू को देखते हुए ही प्रोग्राम तय हुआ था कि डिलीवरी के समय नेहा की सास अहमदाबाद आ जाएँगी, एक-डेढ़ महीना रुककर वापस आएँगी तब वह जाएगी।

इस तरह कम से कम ढाई-तीन महीने तक नेहा और उसके बच्चे की सार-संभाल हो जाएगी। पर समधन के हाथ में हुये फ्रेक्चर ने उसकी जान सांसत में डाल दी।
"मम्मी, कुछ बोलो न… क्या होगा अब।"
नेहा का स्वर कानों में पड़ा तो वह सारी हिम्मत अपनी आवाज में घोलकर बोली, “तू घबरा मत, देखते हैं क्या हो सकता है।”
"जल्दी बताना मम्मी…"
"हाँ हाँ हम है चिंता करने के लिए। तू बस अपना ध्यान रख और मेडीटेशन कर।"
नेहा को तसल्ली देकर नलिनी ने फोन रखा और फुल टाइम प्रेग्नेंट बेटी की चिंता में किंकर्तव्यविमूढ़ की अवस्था में कुछ देर यूं ही बैठी रही। परिस्थिति वाकई विकट थी। समधन जी के हाथ में फ्रेक्चर होने से उनके साथ-साथ सबके लिए मुश्किलें बढ़ गयी...
क्या होगा, कैसे होगा इस चिंता से उनको नई-नवेली बहू स्वरा ने उबारते हुए कहा, “मम्मी जी, इतना क्या सोचना। अब आप दीदी के पास अहमदाबाद चली जाइए। मैं यहाँ सब संभाल लूंगी...”
उसकी सह्रदयता पर नलिनी ने यूँ फीकी मुस्कान दी मानो कह रही हो, तुमने कह दिया उतना ही बहुत है।
"तो आप कब निकलोगी।" स्वरा ने फिर पूछा तो वह कुछ हड़बड़ाई, "आसान है क्या घर छोड़ना।"
नलिनी के हिचकने पर उसके ससुर भी बोले, “ये सोच विचार का समय नहीं है। नील तो है यहाँ... अब तो स्वरा भी है। तुम और उपेन्द्र तुरंत निकलो।”
“पर पापा जी, आप कैसे रहेंगे..... आपकी देखभाल, परहेजी खाना...”
“सब हो जाएगा, मेरे बहू-बेटे नहीं होंगे तो क्या... तुम्हारे बेटा-बहू तो हैं...”
“अरे पापा जी, नील को तो ऑफिस से फुर्सत नहीं है, और इसे आए अभी महीना हुआ है... इनके भरोसे कैसे ?”
नलिनी हिचकिचाई तो अस्सी बरस के बूढ़े ससुर जी हँसते हुए बोले, “मैं कोई छोटा बच्चा हूँ जो अपनी देखभाल न कर पाऊँ...
और न स्वरा बच्ची है जो घर न सँभाल पाए। तुम्हारी शादी हुई थी तब तुमने बीस बरस की उम्र में सब सँभाल लिया था, और तुम्हारी सास तो सोलह बरस की थी जब ब्याह कर आई थी। अरे, स्वरा कैसे नहीं सँभालेगी घर... क्यों स्वरा सँभाल लोगी न...”
“हाँ जी दादाजी...” क्या कहती स्वरा और क्या कहती नलिनी अपने ससुर को जो पुरानी इरा में जी रहे थे। कैसे कहती कि तब के और आज के ज़माने में बहुत फर्क है।
फिर भी उसका सर अपने ससुर के सामने
श्रद्धा से झुक गया। जो विपरीत परिस्थितियों के चलते ‘मैं खुद को सँभाल हैं। जबकि वह जानती है कि पापा जी को बाथरूम तक जाना भारी पड़ता है। पापा जी और घर की जिम्मेदारी स्वरा के भरोसे छोड़ने के नाम से ही उसे डर ही लग रहा था।
आजकल की लड़कियां क्या जाने घर की सार-सँभाल......पर पापा जी और परिस्थितियों के आगे वह विवश थी।
यूँ तो स्वरा एक महीने से घर में है पर
अधिकतर समय तो माएके, हनीमून और घूमने-फिरने में ही निकल गया... वह स्वयं बेटे की शादी के बाद बड़े प्रयास से लूँगा' कहकर उसका मनोबल बढ़ा रहे घर की व्यवस्था पुरानी पटरी पर लौटा
पाई थी। अब यूँ अचानक घर छोड़छाड़ कर अहमदाबाद के लिए निकलना मन को साल रहा था।
आखिरकार मौके की नजाकत समझते हुए घर की व्यवस्था-पापा जी के परहेजों और दवाईयों के बारे में नील-स्वरा को समझाकर और कामवाली बाई को जरूरत पड़ने पर खाने का काम सँभाल लेने की मिन्नते करके वह पति उपेन्द्र के साथ तुरत-फुरत महंगी टिकट लेकर हवाई जहाज से ही अहमदाबाद के लिए निकल गए। नवें महीने के आख़री हफ्ते में कब डिलीवरी हो जाए कुछ पता नहीं था।
