मुकम्मल जहाँ…

“एक और लीजिये न...” कविता ने गर्मागर्म घी चुपड़ी रोटी पति के बॉस शुभम सक्सेना की थाली में रखी तो वह हँसकर बोले, "दो से ऊपर नहीं लेता हूँ पर आज चार रोटी खा ली। पेट भर गया पर मन नहीं… इतना स्वादिष्ट खाना बनाना कहाँ से सीखा आपने?”
शुभम की तारीफ पर कविता संकोच से सिमट गई पर सुधीर बोल पड़ा, “अरे सर, कविता बहुत घरेलू है। घरेलू औरतों को ये सब सीखना नहीं पड़ता है।”
“सच कहूँ तो घरेलू होना नायाब है, और घर गृहस्थी संभालना कला?” शुभम बेसाख्ता बोले तो सुधीर हँसा,
"अरे, सर… गृहस्थी चलाने में कौन सी क्वालिफिकेशन चाहिए।"

“गृहस्थ जीवन एक तरह से तपोभूमि है। समर्पण-त्याग जैसी क्वालीफिकेशन चाहिए इसके लिए और ये तो विरलों को ही मिलती है। जानते हो, पिछले दिनों मेघा के साथ एक हाईफाई ढाबे में गया। पाँच सितारा सुविधाओं वाले तथाकथित ढाबे के वातानुकूलित डाइनिंग हॉल में जमीन में मखमली रेशम के नर्म गद्देनुमा आसन बिछे थे।

चमचमाती चौकियों पर रखे थाल में परंपरागत तरीके से भोजन परोसा जा रहा था। चम्मच और काँटे हमें नहीं दिए गए थे। हाथ से खाना खाने में अनुपम अनुभूति तो जरूर हुई पर हँसी भी आई कि जमीन से उठे हम कभी जमीन पर बैठकर हाथ से खाना खाने को दकियानूसी मानते थे। और यहाँ जमीन से जुड़ना स्टाइल आईकॉन माना जा रहा है। कुछ ऐसा ही होगा आने वाले युग में घरेलू होना...”

“ये भी सही है सर, आजकल घरेलू औरतें बस नाम की घरेलू रह गयी हैं। खाना बनाने के लिए उन्हें भी कामवालियों का मुँह ताकते देखा है...” “पर कविता जी के हाथ का बना खाकर लगता है इन्होंने कामवाली का मुँह कभी नहीं देखा। जानते हो सुधीर, आज मैं अपनी माँ को याद करके नॉस्टाल्जिक हो जाता हूँ। घर की जिम्मेदारी बखूबी सँभालती थी। रोज शाम को तैयार होकर पिताजी का इंतज़ार करती थी। पिताजी लाख तनाव लेकर घर आएँ पर माँ का मुस्कुराता चेहरा देखकर मुस्कुरा ही पड़ते थे। आज कितनो को नसीब होती होगी ऐसी शाम। इसलिए जो है उसकी कद्र करो। मुझे तो तुम्हारी किस्मत से ईर्ष्या हो रही है।”

“और मुझे आपकी...” जवाब में सुधीर कहना चाहता था पर चुप रहा।

एक हफ्ते पहले कंपनी की सिल्वर जुबली में बॉस के साथ आई उनकी पत्नी मेघा को देखकर वह बेतरह चौंका था वह कुछ प्रतिक्रिया देता उससे पहले मेघा ने ही पूछ लिया, “तुम जमशेदपुर से हो न ?”

“ज्ज्जीजी...” वह हकबका गया था।
“तुम दोनों एक-दूसरे को जानते हो क्या?” बॉस के पूछने पर मेघा बोली, “ये जनाब... मेरी सहेली को देखने आए थे पर वो इन्हें पसंद नहीं आई...”

“अच्छा कौन थी?”

“थी एक, बच गयी।” कहकर वह खिलखिला पड़ी... उसकी हँसी तीर की तरह चुभी थी। विश्वास ही नहीं हुआ कि यह वही मेघा है जिसे वह एक दिन देखने गया था।

“क्या हुआ, खा नहीं रहे, और सब्जी दूँ क्या...” कविता के टोकने पर सुधीर वर्तमान में आया। सुधीर के प्रति कविता का कंसर्न शुभम को अद्भुत लगा। उस दुर्लभ दृश्य को देख उनके मन में कसक उठी। वह और मेघा तो अलबत्ता साथ खा ही नहीं पाते और खाते भी हैं तो डाइनिंग टेबल पर अपने-अपने कार्यक्षेत्र को लेकर ही चर्चा होती है।

मेघा न तो खाने में कोई जोर-जबरदस्ती पसंद करती है न दूसरों के लिए करती है। वैसे भी कुक इतनी वेराईटी परोस देता है कि देखते ही पेट भर जाए। “तुम्हारी पत्नी पर अन्नपूर्णा का आशीर्वाद है। इस स्वाद और सत्कार से आत्मा तृप्त हो गयी।”

चलते समय शुभम बोले तो कविता ने भी हाथ जोड़कर कह दिया, “सादा सा खिला पाई। किसी दिन मेघा जी को भी लिवा लाइए… तब कुछ ढँग से सत्कार करूँ।” सुधीर बहुत दिनों से घर बुला रहा था। यहाँ किसी काम से आया तो चला आया। मेघा बहुत बिजी रहती है। फिर भी कोशिश करूँगा कभी हम दोनों आएँ।" शुभम सरलता से बोले। उनके जाने के बाद सुधीर कविता पर झुंझला उठा, “तमीज है ज़रा भी… मेघा जी एक मल्टीनेशनल कंपनी की बड़ी अधिकारी हैं... शुक्र करो नहीं आई, वरना क्या कहतीं तुम्हें देखकर। कपड़े चेंज नहीं कर सकती थी।”

सुधीर का गुस्सा उसकी मुसी हुई तेल-मसालों से गंधाती साड़ी पर उतरा। कविता को अफ़सोस हुआ कि मौक़ा निकालकर कपड़े क्यों नहीं बदले। क्या करती वह भी...सुधीर ने अचानक सूचना दी, “बॉस का फोन आया है। यहाँ पास ही किसी काम से आए हैं। घर आने को बोल हे हैं। पाँच-दस मिनट में चाय-पानी की तैयारी कर लो...” सुनते ही वह रसोईं में जुट गयी। जब तक वहाँ से फुर्सत पाती बॉस पधार चुके थे।

चाय-नाश्ते के बाद देर तक रुक गए तो सुधीर ने औपचारिकता वश खाने को पूछ लिया तो वह भी उनसे आग्रह कर बैठी, "खाना खाकर जाइये…" स्नेहभाव को वह नज़रंदाज़ नहीं कर सके और तैयार हो गए। उसने तो बिना शिकन के फटाफट खाना तैयार किया और खिलाया तो उन्होंने भी मन से खाया इसमें गलत क्या हो गया। रसोईं समेटकर वह कमरे में गयी तो सुधीर को कमरे की छत ताकते देख समझ गयी कि अभी भी नाराज है। हमेशा की तरह अपने मान-अभिमान की चिंता किये बिना वह बोली, “अच्छा ये तो बताओ खाना कैसा था?”

“खाने का क्या है कविता... तुम्हारी दुनिया तो बस उसी के इर्द-गिर्द घूमती है। मैंने तो खाने के लिए औपचारिकतावश पूछा तुम तो उनके पीछे ही पड़ गयी...”

“मैं कैसे समझती कि आप औपचारिकता कर रहे हैं।”

“समस्या यही है... तुम दुनियादारी नहीं समझती। ऐसा सादा खाना अपने बॉस को खिलाकर खुश होऊंगा क्या ?"

“अब फाइवस्टार जैसा तो था नहीं… उनका बड़प्पन था सो तुम्हारी तारीफ़ कर गए...” कहकर उसने आँखे मूँद ली पर मन भटक रहा था। बॉस तो सीधे-सादे हैं पर मेघा ? वह घर आती तो सारी इज्जत धरी की धरी रह जाती। कहाँ घरेलू सीधी-सादी कविता और कहाँ आत्मविश्वास से लबरेज मेघा… अगली बार नियोजित कार्यक्रम के अनुसार ही बुलाना होगा... कविता से कहना होगा खाना काफी नहीं, प्रेजेंटेशन पर ध्यान दे। आज स्टील के बर्तनों में खाना परोसना अजीब लगा था। बोनचाइना का सेट है पर वह बैठक के दीवान वाले बॉक्स में रखा है उनके सामने निकाल ही न पाए... और कविता जो जबरदस्ती खाना थाली में डालती है वो भी अजीब लगता है। उस दिन जब वह मेघा से मिला तब हाईटी के समय उसे भरी हुई प्लेट पकड़ाई जाने लगी थी तब वह कितनी अदा से…'नो-नो आई विल हेल्प माई सेल्फ…' कहकर बस थोड़ा सा ढोकला लिया था।

मेघा का ख्याल आते ही विचारों का कारवां अतीत की ओर मुड़ गया। मेघा को पहली बार देखा था तब वह आम सी लड़की लगी थी। इतना कैसे बदल गयी। उसका पहनावा, चाल-ढाल सब मॉडल जैसा हो गया है। बोलती तो तब भी आत्मविश्वास से ही थी। “मेघा जी लाइफ से आपकी क्या एक्सपेक्टेशन है।” उसने सँभलकर पूछा तो वह बेहिचक बोली, “मैं उड़ना चाहती हूँ… ऊँचा, खूब ऊँचा... आम औरतों सा जीवन नहीं बिताना चाहती।” एम्बीशियस होना ठीक है पर एक सेल्स गर्ल का करियर ग्राफ आखिर कितना बढ़ेगा वह हमेशा की तरह दुविधा में फँसा था। “लड़की बोल खूब लेती है पर दिखने में कुछ ख़ास नहीं है। अपना सुधीर तो हीरो है... मेरी मानो एक बार पानागण वाली भी देख लो।” बुआ ने पानागढ़ वाली लड़की की बात उठाई तो अम्मा बोलीं, “अरे नहीं जीजी, पक्के रंग की है पर फीचर्स अच्छे हैं।” वह हमेशा की तरह कन्फ्यूज था। उसका मन कह रहा था, मेघा से पहले वाली लड़की ज्यादा सुन्दर थी और करियर भी अच्छा था पर उसका घर नहीं ठीक लगा... इसके साथ रिश्ता समझौता करना जैसा न हो जाए... जमशेदपुर का कोई कोना नहीं छूटा था जहाँ उसके लिए लड़की न देखी गयी हो पर वह कभी लड़की की शक्ल में खोट निकालता तो कभी बौद्धिक स्तर पर कम आंकता... कोई ज्यादा बोलने वाली लगती तो कोई एकदम चुप... किसी की नौकरी का ऑड समय अखरता तो किसी के पैकेज में कमी होती।

अम्मा अब लड़कियाँ देख-देख शर्मिन्दा और बहने खीजने लगी थीं। इन्हें कोई लड़की ही पसन्द नहीं आती ये ठप्पा भी लगता जा रहा था सो अम्मा और बहनो ने मेघा के लिए उसका घेराव किया पर मन की क्या कहें जो कह रहा था कि क्या पता पानागण वाली ज्यादा अच्छी हो। आखिरकार वहाँ भी हो आया गया। बुआ की बताई पानागण वाली लड़की गोरी तो थी पर फीचर्स कोई ख़ास नहीं थे। नौकरी भी मामूली थी। पूर्व में देखी कई लड़कियों से मेघा जरूर कमतर थी पर पानागण वाली से बेहतर थी। यह सोचकर मेघा के लिए उसकी हाँ हो ही गई पर तब तक देर हो चुकी थी। पता चला उसका रिश्ता तय हो चुका है, उससे ज्यादा अच्छे लड़के से… “ज्य़ादा भी लड़कियाँ नहीं देखनी चाहिए। औंधे मुँह गिरता है आदमी... आज पाँच साल से रिश्ता ढूँढ रहे हैं, जाने कौन हूर की तलाश है।” कुछ ऐसी सुगबुगाहटें सुनाई देने लगी थी। महीनो उसके लिए कोई रिश्ता नहीं आया।

मन ही मन वह भी घबराने लगा था। विगत में ठुकराई अच्छी लड़कियों को यादकर सर धुनने का मन होता। उन्हीं दिनों अम्मा की एक सहेली जो इलाहाबाद से जमशेदपुर तबादले पर आई थी, उनका फोन आया। बचपन की सहेली से सालों बाद बात करते हुए अम्मा ने अपने मन के छाले उन्हें दिखाए तो सहेली ने कहा, “जब इतने रिश्ते ठुकराए हैं तब एक और देख लो। न पसंद आए तो मना कर देना।” अम्मा ने उससे बात की तो बढ़ती चर्बी और झड़ते बाल से आतंकित हो उसने झटपट हाँ कर दी।

मंदिर में कविता को दिखाया गया। साधारण रूपरँग की सीधी-सादी कविता को देख माँ और बहनो की आँखों मे कोई चमक नहीं थी। कविता की बड़ी बहन ने कहा, “कविता के लिए आप लोगों की हाँ हो तो भगवान का आशीर्वाद दिलवा दें।” उसकी नज़र भगवान की ओर उठी तो वह अपराधबोध से भर उठा। अनगिनत लड़कियों को बेदर्दी से ना कहने वाला वह उस दिन नहीं कर पाया। अम्मा ने हँसकर कहा भी कि ‘इतनी जल्दी क्या है घर जाकर बताते हैं...” पर उसके मुँह से निकल पड़ा.. “जैसा आप बड़े समझें मुझे आपत्ति नहीं...” उसके हामी भरते ही सभी विवादों पर विराम लग गया। अम्मा-बहने बहुत खुश नहीं थी। उनके सामने तमाम वो चेहरे घूम गए जिन्हें उन्होंने बड़े अरमान से उसके लिए ढूंढा था। पर लेख-संयोग उसके और कविता के मध्य आकर बैठ गया तो हाँ तो होनी ही थी। सबकी फीकी प्रतिक्रिया से मन में दंश सदा के लिए गड़ा गया कि इतनी योग्य लड़कियों को मना करने का नतीजा है कविता....

कविता की सादगी, उसकी परिवार परायणता, सेवा-निष्ठा सब पूर्व में छोड़ी गई लड़कियों के अफ़सोस की भेंट चढ़ गई। करवटें बदलता सुधीर बॉस की किस्मत पर रश्क कर रहा था कि मेघा जैसी पत्नी पाकर वह चैन की नींद सो रहे होंगे पर, वह नादान क्या जानता था कि उसके बॉस शुभम सक्सेना भी उसी की तरह बेचैनी से करवटें बदलते सोच रहे हैं। भला हुआ जो उस समय कविता ने उन्हें नहीं देखा पर उन्होंने इसी कविता को देखा था। मुजफ्फर नगर की आर्या कालोनी में मालिक मकान सवर्णलता आंटी के घर वह दो-चार दिनों के लिए आई थी। छत पर कभी-कभार ही आती थी तब गाहेबगाहे कमरे की खिड़की से उस पर नज़र पड़ जाती थी। एक दिन कविता छत पर कपड़े फैलाने आई तो माँ ने धीरे से कहा, “शुभम, उस लड़की को ध्यान से देखना... लता की बहन की बेटी है। आजकल की लड़कियों को देखते हुए बड़ी सीधी है। खाना बहुत अच्छा बनाती है कविता नाम है इसका… लता बता रही थी कि लड़का ढूँढ रहें है इसके लिए जो तुझे ठीक लगे तो बात चलाऊँ?” वह चिहुंक पड़ा था “कौन वो... अरे बिलकुल नहीं...” उसके बाद वह लता आँटी के सामने कम ही पड़ा और कविता के सामने तो बिलकुल भी नहीं...

बाद में उसका लेख संयोग मेघा के साथ बैठा। आज उसे सुधीर की किस्मत से रश्क हो रहा था...बार-बार कविता का कभी रोटी, तो कभी सब्जी के लिए पूछना मन को टीस रहा था। काश! उस वक्त करियर ओरिएंटेड, फैशनेबल लड़कियों की आकांक्षा न पाली होती तो वह कविता के साथ सुकून भरे जीवन को जी रहा होता। काश! इस फाइव स्टार लग्जरी के बीच कोई ऐसा होता जो घरेलू होता। घर आने पर उसके सुख-दुःख बाँटता, खाना परोसता... 'कुछ और लेंगे... कैसा बना है ? आप कुछ खा ही नहीं रहे हैं।' सरीखे सामान्य से प्रश्न पूछता… 'कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नही मिलता…' शुभम के कानो में सहसा मेघा की गुनगुनाहट पड़ी तो वह चौंक उठा, सोच विचार के तंतु बिखर गए। लैपटॉप पर झुकी काम करती मेघा को गुनगुनाते देख शुभम सहसा मुस्कुरा उठा। यूँ लगा मानो गीत के बोलों ने जीवन के फलसफे को समझा दिया हो। शुभम ने आँखे मूँद ली। मेघा की गुनगुनाहट अंतर्मन में गहरे उतर रही थीं। “कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता...” इस एक पँक्ति के दोहराव ने मन की सारी उलझने शांत कर दी।

मीनू त्रिपाठी