बदलाव

स्कूल स्टाफ की मीटिंग के बाद चेयरमैंन अनुराग ने लेखा को रुकने के लिए कहा तो लेखा को थोड़ा अटपटा लगा, पर संकोचवश कुछ कह ना सकी। अनुराग ने स्कूल प्यून को दो कप चाय लाने को कहा और लेखा को बैठने को कहा।

लेखा बैठ गई, कई बार आप बड़ी से बड़ी कठिनाई झेल जाते हैं, बड़ी से बड़ी चुनौती का सामना कर जाते हैं, पर एक छोटी सी बात जिसे आप बार-बार अनदेखा कर रहे थे, वो यकायक सामने आ जाय तो आप बेचैन हो जाते हैं।

अनुराग,शायद लेखा की परेशानी भाँप चुके थे। उन्होंने पानी का गिलास आगे किया, मुस्कराए और लेखा को आँखों से इशारा कर संयत होने को कहा। नीचे देखते हुए अनुराग ने धीरे से अपनी बात रखनी शुरू की।

डॉ ऋचा गुप्ता,
गाजियाबाद

“लेखा जी बहुत पहले ही मैं अपनी वाइफ को खो चुका हूँ। उसके बाद न कभी किसी संबंध के बारे में सोचा और ना ही नये विवाह के बारे में।पर अब इस उम्र के इस पड़ाव में एक साथी की कमी लगने लगी है और आपको देख कर लगा कि आप से बेहतर और कोई वो हो ही नहीं सकता।”

लेखा के चेहरे पर परेशानी साफ़ झलक रही थी।

“पर मैं…. इस उम्र में… कैसे।”



“अरे उम्र की ….कैसी बात करती हैं आप ! आप अपनी ज़िमेदारियों से मुक्त हो चुकी हैं। अब आप अपने बारे मे सोच सकती हैं। इसमें ग़लत क्या है। हाँ ! अगर मैं आपको पसंद नहीं तो बात अलग है।”

“अरे नहीं नहीं ….ऐसा कुछ नहीं … पर समाज … मेरी बेटियां..!”

“किस समाज की बात कर रही हैं आप ? क्या साथ दिया इस समाज ने आपका, जब आप अकेली अपनी परेशानियों से जूझ रही थीं ! ...और रही बात बेटियों की, उन से बात मैं कर लूंगा। और मुझे पूरा विश्वास है, उन्हें हां करने में कोई परेशानी नहीं होगी।”


“सर,आप समझ नहीं रहे। इस उम्र में ये सब। मैं सबकी नजरों में मज़ाक़ बन के रह जाऊँगी। इस समाज के नियम बहुत अजीब हैं सर। मर्द के लिए अलग और औरत के लिए अलग। एक मर्द जब कोई निर्णय लेता है और वो भी पैसे और रुतबे वाला, तो उस पर अंगुली उठाने की हिम्मत कोई नहीं करता। पर संयम और त्याग की बात बस एक औरत के हिस्से में आती है। मैं आप पर कोई इल्ज़ाम नहीं लगा रही। आप की नीयत साफ़ है, पर मैं समाज के नियमों से बंधी हूँ। मुझमें इसके ख़िलाफ़ जाने की हिम्मत नहीं। समर के जाने के बाद से अब तक अपने को सम्भालती आयी हूँ। अब तो थोड़ा ही सफ़र बचा है। ये भी कट जाएगा।”

“लेखा जी काटने में और गुज़ारने में अंतर होता है। अब जब आपके सामने ये विकल्प है तो परेशानी क्यों? चलिये अभी छोड़िए! मैं नहीं चाहता आप जल्दबाज़ी में कोई निर्णय लें। पर ये ज़रूर चाहता हूँ कि आप एक सही निर्णय लें।”

लेखा बात को आगे नहीं बढ़ना चाहती थी। इसलिए 'धन्यवाद' कह ….बात को ख़त्म करना ही सही समझा।

उसने फोन पर शुभ्रा को सब कह सुनाया !

लेखा, शुभ्रा की सबसे पुरानी और ख़ास सहेली थी। अब सहेली क्या कहना, अब तो वो उसके परिवार का हिस्सा थी। लेखा की हर दुख तक़लीफ की वो एक मात्र साक्षी थी। लेखा जो न कह पाती, वो भी शुभ्रा, लेखा के आँखों से पढ़ लेती, और आज भी उसने लेखा की आँखों में जो पढ़ा, वो उसे बैचेन कर रहा था। वो जानती थी की वो चाहकर भी उसके लिए कुछ नहीं कर पा रही है। समाज और समाज की सड़ी गली मान्यताएं - एक पुरुष के लिए अलग है और स्त्री के लिए अलग। आज हम आज़ादी के 75 सालों का जश्न मना रहे हैं पर क्या वाक़ई हमें इन सड़ी गली मान्यताओं से आज़ादी मिली है ?

लेखा ने 35 साल की उम्र में अपने पति समर को खो दिया। दो बच्चों के साथ लेखा के सामने दुनिया भर की तकलीफ़ें आ खड़ी हुईं। बड़ी मुश्किल से एक स्कूल में नौकरी मिली जिससे घर और बच्चों का गुज़ारा हो पाया। उस उम्र में लेखा के लिए ये सब अकेले संभालना आसान न था। पर वो सख़्तजान बन गयी औऱ काजल की कोठरी में से बेदाग़ निकल आयी। ग़ौर-वर्ण, ऊँचा माथा, काले बाल सब जैसे उसके दुश्मन हो गये थे। क्या चमकते हीरे को कोठरी में छुपाया जा सकता है ? पर, लेखा सब सहती हुई बच्चों के लिए समर्पित हो गई। दोनों बच्चियां तेज़ निकलीं और इंजीनियरिंग कर विदेशों में बस गई हैं। लेखा को भी अपने पास बुलाना चाहा पर लेखा किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती थी। सो यहीं रह गई। उम्र बढ़ जाती है पर क्या अरमान और चाहतें भी मर जाती हैं। भले ही लेखा 50 की हो गई थी पर आज भी क़द काठी और रंग वैसे का वैसा धरा रखा था।

स्कूल के नए चेयरमैन अनुराग बजाज जो अभी-अभी विदेश से लौटे थे, लेखा की कश्मकश का सबब बन गये थे। अनुराग जी बहुत ही सुलझे और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। सोच का खुलापन और सरल स्वभाव उनके व्यक्तित्व और गंभीरता को बढ़ाता था। लेखा के सरल स्वभाव और मीठी वाणी से प्रभावित थे, और मन ही मन उसे अपनाने की बात ठन चुके थे। इसी सिलसिले में उन्होंने लेखा को प्रपोज किया था !

“लेखा जी काटने में और गुज़ारने में अंतर होता है। अब जब आपके सामने ये विकल्प है तो परेशानी क्यों? चलिये अभी छोड़िए! मैं नहीं चाहता आप जल्दबाज़ी में कोई निर्णय लें। पर ये ज़रूर चाहता हूँ कि आप एक सही निर्णय लें।”

लेखा बात को आगे नहीं बढ़ना चाहती थी। इसलिए 'धन्यवाद' कह ….बात को ख़त्म करना ही सही समझा।

उसने फोन पर शुभ्रा को सब कह सुनाया !

लेखा, शुभ्रा की सबसे पुरानी और ख़ास सहेली थी। अब सहेली क्या कहना, अब तो वो उसके परिवार का हिस्सा थी। लेखा की हर दुख तक़लीफ की वो एक मात्र साक्षी थी। लेखा जो न कह पाती, वो भी शुभ्रा, लेखा के आँखों से पढ़ लेती, और आज भी उसने लेखा की आँखों में जो पढ़ा, वो उसे बैचेन कर रहा था। वो जानती थी की वो चाहकर भी उसके लिए कुछ नहीं कर पा रही है। समाज और समाज की सड़ी गली मान्यताएं - एक पुरुष के लिए अलग है और स्त्री के लिए अलग। आज हम आज़ादी के 75 सालों का जश्न मना रहे हैं पर क्या वाक़ई हमें इन सड़ी गली मान्यताओं से आज़ादी मिली है ?

लेखा ने 35 साल की उम्र में अपने पति समर को खो दिया। दो बच्चों के साथ लेखा के सामने दुनिया भर की तकलीफ़ें आ खड़ी हुईं। बड़ी मुश्किल से एक स्कूल में नौकरी मिली जिससे घर और बच्चों का गुज़ारा हो पाया। उस उम्र में लेखा के लिए ये सब अकेले संभालना आसान न था। पर वो सख़्तजान बन गयी औऱ काजल की कोठरी में से बेदाग़ निकल आयी। ग़ौर-वर्ण, ऊँचा माथा, काले बाल सब जैसे उसके दुश्मन हो गये थे। क्या चमकते हीरे को कोठरी में छुपाया जा सकता है ? पर, लेखा सब सहती हुई बच्चों के लिए समर्पित हो गई। दोनों बच्चियां तेज़ निकलीं और इंजीनियरिंग कर विदेशों में बस गई हैं। लेखा को भी अपने पास बुलाना चाहा पर लेखा किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती थी। सो यहीं रह गई। उम्र बढ़ जाती है पर क्या अरमान और चाहतें भी मर जाती हैं। भले ही लेखा 50 की हो गई थी पर आज भी क़द काठी और रंग वैसे का वैसा धरा रखा था।

स्कूल के नए चेयरमैन अनुराग बजाज जो अभी-अभी विदेश से लौटे थे, लेखा की कश्मकश का सबब बन गये थे। अनुराग जी बहुत ही सुलझे और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। सोच का खुलापन और सरल स्वभाव उनके व्यक्तित्व और गंभीरता को बढ़ाता था। लेखा के सरल स्वभाव और मीठी वाणी से प्रभावित थे, और मन ही मन उसे अपनाने की बात ठन चुके थे। इसी सिलसिले में उन्होंने लेखा को प्रपोज किया था !

शुभ्रा ने इस विषय पर कई बार लेखा का मन लेना चाहा पर जितनी बार लक्ष्मण रेखा पार करने की कोशिश करती उतनी ही बार ख़ाली हाथ लौट जाती। लेखा ने अपने चारों ओर निराशा और समाज की इतनी बड़ी दीवारें खड़ी कर ली थी कि उन्हें पार करना संभव नहीं था।

शुभ्रा ने एक बार फिर लेखा को झकझोरने की कोशिश की, “साथ वाले जैन साहब को देखो 45 की उम्र में बीवी मरी है, साथ में दो जवान बच्चे हैं, पर तीन ही महीने में दुल्हन घर ले आए। सभी घर वाले भी पूरा साथ दे रहे थे। सभी के मुँह पर एक ही बात थी - "औरत न रहने से कहीं घर संभलता है भला ! अच्छा हुआ शादी कर ली ...इधर उधर मुँह मारने से तो बेहतर है।”

“मुझे आज तक ये बात समझ नहीं आयी अकेली औरत घर, बच्चे, नौकरी सब संभाल सकती है, गिद्ध भरी निगाहों वाले लोगों से बच सकती है, पर एक मर्द औरत के बिना घर नहीं संभाल सकता ? क्या इस समाज के नियम मर्द के लिए अलग और औरत के लिए अलग नहीं ?”

लेखा की आँखों में पानी तैर आया था। “शुभी तू क्या मुझे नहीं जानती। समर के जाने के बाद मैं पत्थर हो चुकी हूँ। अब क्या पत्थर पे फूल खिल सकता है। अनुराग जी को समझाना मेरे बस का नहीं। पर क्या तू भी मेरा साथ नहीं देगी।”

शुभ्रा ने आगे बढ़ लेखा को गले से लगा लिया ...“तूने ऐसा सोचा भी कैसे पगली। तेरे मन की हालत तुझ से बेहतर मैं समझ सकती हूँ। पर अब तुझे एक सहारे की ज़रूरत है, एक ऐसे बंदे की ज़रूरत है जहाँ सर रख कर कुछ देर सुस्ता सके। मुझे पता है तुझे अनुराग पसंद है पर समाज के डर से तू कुछ कह नहीं पा रही, अभी सब सह लेगी पर कहेगी नहीं। समाज में बदलाव की ज़रूरत है बदलाव तो सृष्टि का नियम है लेखा। जहाँ पानी रुक जाता है वहाँ सड़न की बदबू भर जाती है। अगर इस बदबू से बचना है तो पानी को नदी की धार के साथ बहाना ही होगा। समाज औरतों को लेकर असंवेदनशील हो जाता है, औरतों को कमज़ोर माना जाता है। पर, अकेले रहने पर उन सबसे मज़बूत बने रहने की आशा क्यों की जाती है ! क्या उसकी ज़रूरतें, उसकी भावनाएं कोई मायने नहीं रखतीं ? स्त्री का जीवन दो भागों में बँटा होता है - स्त्रीत्व और मातृत्व। पर मातृत्व जीते समय उसके स्त्रीत्व भाग को काटकर फेंक दिया जाता है। पता नहीं कब ये समाज औरतों की भावनाओं को सम्मान दे पाएगा? और कब औरतें अपने को दोष न देकर समाज से अलग हटकर अपने हक़ में फ़ैसला करना सीख पाएंगी ? लेखा अपने बीते हुए कल को आज पे हावी मत होने दो। अनुराग सर को बेटियों से बात करने दो। कुछ फ़ैसले वक़्त पर छोड़ दो।”

लेखा ने मुँह दूसरी तरफ़ घुमा लिया।

शुभ्रा ने झट लेखा की बड़ी लड़की को फ़ोन लगाया।

“तुझ से बात करना बेकार है। गुड़िया ही तुझे समझा सकती है बस।”

गुड़िया ने फ़ोन उठाते ही मौसी को ताना दिया, “फिर माँ से लड़ाई हुई ना मौसी। तभी याद आती आपको बस मेरी।”

लेखा को एकदम हँसी आ गई


“और क्या करूँ। तेरी माँ को मेरी कोई बात समझ ही नहीं आती।”

शुभ्रा ने अनुराग के प्रस्ताव बाबत सब कह सुनाया !

“चिंता ना करो मौसी, मैं और गुड्डन अगली फ्लाइट से इंडिया आ रहे हैं। अनुराग अंकल से बात हो चुकी है। माँ को हम सम्भाल लेंगे। बस तब तक आप माँ का ख़याल रखो!”

लेखा के चेहरे पर एक संतुष्टि का भाव था। चलो धीरे से सही कुछ बदलाव आ तो रहा है।