नेमप्लेट

हरिकिशन जी दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में स्थित ‘होसूर’ शहर में रहते हैं। वहाँ ग्रेनाईट और संगमरमर से बनी वस्तुओं का व्यापार करते हैं।
ग्रेनाईट की नेमप्लेट बनवाने में उन्हें महारथ हासिल है। बड़ी-बड़ी कंपनियां हों या उद्योगपतियों की कोठियां या फिर आम घर, उनकी बनवायी नेमप्लेटों की खूब माँग रहती है।
हरिकिशन जी का छोटा बेटा कार्तिक बिज़नेस में उनका हाथ बंटाता है और बड़ा श्रीकांत अपनी पत्नी काव्या और पाँच साल के बेटे रौनक के साथ बैंगलुरू में रहता है।
श्रीकांत बेंगलुरू के ‘सिटी हॉस्पिटल’ में न्यूरो सर्जन हैं। बैंगलुरू में उसने एक नया फ्लैट खरीदा है। फ्लैट की गृहप्रवेश पूजा के लिए अपने माता-पिता को लेने सपरिवार आज शाम होसूर पहुँचा तो हरिकिशन जी के घर में रौनक हो गई।
बेटे के बैंगलुरू वाले नए घर को लेकर माता पिता उत्साहित हैं। गृहप्रवेश की पूजा कैसे होगी, कौन – कौन आएगा इस पर चर्चा चल रही थी कि तभी श्रीकांत ने पिता से पूछा, “पापा, अभी जब हम घर के भीतर घुसे तो गेट के पास लगी नेमप्लेट दिखाई नहीं दी। गई कहाँ वो।”
हरिकिशन हँसते हुए बोले, “अरे क्या बताऊँ.. चिराग तले अँधेरा वाली बात हो गई।
सबके लिए एक से बढ़कर एक नेमप्लेट डिजाइन करने वाले तुम्हारे पापा का ध्यान अपने ही घर की बदहाल नेमप्लेट पर नहीं गया… वो तो तुम्हारी माँ ने एक दिन मुझे ताना दिया कि सबकी नेमप्लेट बनवाते फिरते हो, ज़रा अपने घर की नेमप्लेट की हालत तो देखो… तब ध्यान दिया कि नेमप्लेट पर अक्षरों की सुनहरी पॉलिश उतर गयी थी। भद्दी दिखती थी। शायद उसे देखने की आदत पड़ गई थी तभी उसकी दशा नोटिस नहीं की। थैंक्स टू योर माँ कि उन्होंने उसे लेकर मुझे टोका तो ध्यान गया। सो नेमप्लेट उतरवा दी है। उसकी पॉलिश बहुत महंगी है, देखता हूँ, पॉलिश से काम बनता है तो ठीक वरना नई नेमप्लेट बनवा लूँगा।”
“पापा, वैसे मुझे वह पुरानी वाली नेमप्लेट बहुत पसंद थी। मैं तो डिट्टो वैसी ही बनवाना चाहता था। क्या मुझे नए फ़्लैट के लिए वैसी ही नेमप्लेट बनवाकर दे सकते हैं?”
श्रीकांत की बात सुनकर हरिकिशन मुस्कराते हुए बोले, “वैसी ही क्यों… मेरे बेटे के नए घर में उससे कहीं शानदार नेमप्लेट होनी चाहिये।” कहते-कहते वह उठे और अपने कमरे में चले गए।
श्रीकांत ने प्रश्नसूचक नजर से वहीं बैठी माँ को देखा तो वह धीमे से मुस्कुराई पर बोली कुछ नहीं।
श्रीकांत कुछ पूछता उससे पहले ही हरिकिशन एक पैकेट लेकर आए और उसे पकड़ाते बोले, “खोलो जरा, देखकर बताओ कैसी लगी… तुम्हारे लिए ख़ास डिजाइन की है।”
श्रीकांत हुलसित हो बोला, – “अरे वाह! मेरे लिए बनवा भी ली क्या ?”
“अरे खोलो न पैकेट।” काव्या भी हुलसी और कौतूहल के साथ पैकेट के खुलने का इंतज़ार करने लगी।
बेटे-बहू को यूँ उत्साहित देख हरिकिशन जी की पत्नी ने नेमप्लेट के कसीदे पढ़े, “तुम्हारे पापा ने बड़े मन से बनवाई है। जाने कितने डिज़ाइन नकारकर इसे पसंद किया है। कारीगर से कहते थे बेटे के घर के लिए है, सारा हुनर दिखा दो।”
बातों ही बातों में पैकेट खुल गया… और उसमें से निकली एक चमचमाती खूबसूरत सी नेमप्लेट… जिसमें लिखा था ‘डॉक्टर श्रीकांत वर्धन’ एम. बी. बी. एस. एम. डी.(न्यूरो)’ बड़ी सी नेमप्लेट में सुनहरे रंग की सुंदर कैलीग्राफ़ी में लिखे नाम को देख काव्या बोली, “अरे वाह पापा! आपने तो बहुत सुंदर नेमप्लेट बनवाई है।” पर श्रीकांत नेमप्लेट देख सोच में डूब गया।
लेकिन श्रीकांत नेमप्लेट पर हाथ फेरते हुए संकोच से बोला, “नेमप्लेट वाकई सुंदर है पर बनवाने से पहले मुझसे जिक्र कर लेते तो…”
“अरे तुम्हें सरप्राइज़ देना था तो जिक्र कैसे करता।” कहते- कहते हरिकिशन जी की नज़र श्रीकांत के चेहरे पर पड़ी। असमंजस वाले भाव देख वो आशंकित हो गए।
“क्या हुआ बेटे, नेमप्लेट में कुछ कमी रह गयी क्या?”
हरिकिशन की बात सुनकर वह धीरे से बोला, “पापा, दरअसल मैं इस नेमप्लेट में काव्या का नाम भी लिखवाना चाहता था।”
चाव से बनवाई गई नेमप्लेट पर श्रीकांत की नुक्ताचीनी काव्या को नागवार गुजरी सो बोल पड़ी, “पापा ने कितने प्यार से नेमप्लेट बनवाई है और तुम हो कि…” वह कुछ अटकी श्रीकांत को आँखों ही आँखों में कुछ कहती बोली, “अच्छी है, बहुत- बहुत अच्छी है।”
बहू द्वारा नेमप्लेट की तारीफ ने हरिकिशन जी के कमजोर पड़ते हौसले को बल दिया… और वह सफाई देने के अंदाज़ में बोले, “मानता हूँ इन दिनों दो नामों का चलन है पर सच कहूँ तो मुझे वही परंपरागत नेमप्लेट पसंद है जिसमें घर के मालिक के नाम का ही जिक्र होता है।”
सहसा उन्हें लगा वह कुछ गलत बोल गए हैं इसलिए अपनी ही कही बात को दुरुस्त करते हुए बोले, “मेरा मतलब है कि घर की मालकिन का नाम कोई भी ऐरा-गैरा आकर पढ़े अच्छा लगता है क्या!”
कोई कुछ कहता उससे पहले ही बैठक में रखा फोन घनघनाया तो रौनक रिसीवर उठाने दौड़ा। रिसीवर उठाया और हलो के साथ रॉन्ग नम्बर कहकर रख दिया।
उसके मुँह से रॉन्ग नंबर सुनकर रौनक की दादी ने चौंककर पूछा, “किसका फोन था?”
“दादी रॉंग नंबर था। कोई सुजाता को पूछ रहा था…” उसके कहते ही वहाँ बैठे सब लोग हँस पड़े।
रौनक को गोद में बिठाते हुए दादी ने पूछा, “क्यों रे, तुझे मेरा नाम नहीं पता है…?”
“पता तो है, दादी नाम है आपका…” वह तपाक से बोला। अब तो सब और जोर से हँस पड़े। हरिकिशन अपने पोते से बोले, “बेटा जी, आपकी दादी का नाम भी है… और वो नाम है सुजाता।”
हरिकिशन जी की पत्नी अपने पोते को लाड़ करती हुई बोली, “इसकी भी क्या गलती है… मुझे ‘सुजाता’ पुकारते कभी किसी को सुना हो तो जाने।”
“और क्या, पापा-मम्मी और चाचू आपको ‘अम्मा’ कहकर बुलाते हैं। मैं ‘दादी’ और बाबा ‘सुनती हो…’ ‘सुजाता’ तो कोई भी नहीं कहता।” उसने कंधे उचकाए तो सुजाता यानी दादी हँसकर बोली, “सिर्फ यहीं नहीं बेटू… तेरे पापा की दादी मुझे ‘बहूरानी’ बुलाती थी। रिश्तेदारी में मुझे ‘श्रीकांत की माँ… कार्तिक की माँ’ कहकर बुलाया जाता है और तुम्हारे दादा जी के दोस्त ‘मिसेज हरि किशन’ और मेरे माँ-बाप के घर तो…”
“अरे बस- बस दादी!” रौनक हैरानी से आँखे नचाते बोला, “इत्ते सारे नाम! बाप रे बाप! इत्ते सारे नामों के बीच सुजाता नाम तो गुम ही था…”
नन्हें से रौनक के मुँह से निकला तो सब अवाक रह गए। भोलेपन में कितनी बड़ी बात कह गया।
“दादी, आप नेमप्लेट में दादा जी के नाम के साथ अपना नाम भी लिखवाओ तभी सब असली नाम जानेंगे।”
रौनक की सहज कही बात पर हरिकिशन और उनकी पत्नी की नज़रें टकरायीं … हरिकिशन ने महसूस किया कि पत्नी के चेहरे पर मुस्कान बेशक थी पर आँखों में कुछ सवाल… या शायद उलाहना…या कुछ भी नहीं। खोई-खोई सी वो आँखें मानों कुछ अनकहा कहना चाहती थी।
असहज से हरिकिशन हकबका कर इधर-उधर देखने लगे… तो रौनक एक बार फिर कंधे उचकाते हुए मासूम सा चेहरा बनाते हुए बोला, “अब बताओ न दादू, इसमें मेरी क्या गलती।” उसकी भोली अदा पर काव्या और श्रीकांत हँस दिए पर हरिकिशन जी के मुखमंडल से हँसी नदारद थी। कुछ पल के मौन के बाद गला खंखारकर गंभीर भाव से बोले, “गलती तुम्हारी नहीं बेटे, शायद हमारी है। शायद क्यों यकीनन अपनी ही है।”
कोई कुछ कहता उससे पहले ही वह उठे और किसी को फोन लगाया।
“अवनीश भाई… वो जो बेटे के घर के लिए नेमप्लेट बनवाई थी उसमें कुछ बदलाव है, नई बनानी पड़ेगी। और हाँ… मेरे लिए भी एक नई नेमप्लेट बनवाओ। मेरे नाम के साथ ‘सुजाता’ लिखा जाएगा…”
रिसीवर रखते ही नजरें पत्नी से मिलाते हुए बोले, “क्यों ठीक है न… देर आया पर आ ही गया।”
सुजाता हरिकिशन जी को देख भरपूर मुस्कुराई।
श्रीकांत ने भाव विभोर होकर पिता से कहा, “थैंक्स पापा…पर आपकी मेहनत बेकार हो गयी। नेमप्लेट दोबारा बनानी पड़ रही है।”
“कोई बात नहीं बेटे, कभी-कभी पास रखी चीज नजर के सामने नहीं आती। यूं कहो, छोटी-छोटी, मामूली सी लगने वाली बातों में गहरे अर्थ छिपे होते हैं… अपनी सोच, आचार – विचार में विसंगतियां दिखें तो तुरंत दूर करना बेहतर है।”
बहू से भी वह भावुक स्वर में बोले, “मुझे माफ़ कर देना बेटी, नेमप्लेट में श्रीकांत की डिग्री का जिक्र हो न हो पर उसकी ‘शक्ति’ का जिक्र जरूरी था और इतनी सी बात समझने में मैं चूक गया।”
माहौल की गंभीरता फोन की घँटी ने तोड़ी। रौनक ने दौड़कर फोन फिर उठाया और ‘हेलो’ कहने के बाद उत्साह से लबरेज बोला, “हाँ जी हैं… सुजाता मेरी दादी हैं।” रिसीवर पर हाथ रखकर दादी से वह बोला, “फिर से वही फोन…” हरिकिशन की पत्नी फोन करने वाले से अपने पोते की मासूमियत हँस-हँसकर साझा करने लगी।
हरिकिशन रौनक से बोले, “आज ‘सुजाता’ को न पहचानकर तूने अच्छा किया तेरी दादी को कम से कम उनका नाम तो मिल गया…”
“दादी का नाम गुम गया था न !”
“हाँ बेटे, गुम गया था। अब किसी और का नाम गुम न हो इसका ख्याल रखना पड़ेगा… मुझे भी, और तुम्हें भी।” रौनक की बात के जवाब में कहते हुए उन्होंने पोते को प्यार से गोद में बैठा लिया… जानते थे कई जोड़ी आँखें उन्हें नेह से निहार रहीं हैं।