(डॉ. प्रमोद कुमार कुश 'तनहा’, मुम्बई)
कुछ अम्न की वफ़ा की, मुहब्बत की बात कर; इस मुल्क की ख़ुशी की, हिफ़ाज़त की बात कर।
नाज़ुक बहुत हैं मुल्क में, मज़हब के आईने; कुछ सोच के समझ के, सियासत की बात कर।
तकता है आसमान को, तपती ज़मीन से; उस ग़मज़दा किसान की, हालत की बात कर।
लड़ना है तो लड़ भूक से, मुफ़्लिस के दर्द से; हर ज़ुल्म के ख़िलाफ़, बग़ावत की बात कर।
हिन्दू की मुसलमान की, बातें ज़रूर हों; ‘तनहा’ ग़रीब की कभी, ख़िदमत की बात कर।
ज़माने की हवा अच्छी नहीं है, वफ़ा की बात भी होती नहीं है।
वो क्या समझेंगे मुल्कों की ज़ुबानें, जिन्हें दिल की ज़ुबां आती नहीं है।
सियासी खेल है या बदनसीबी, ग़रीबी मुल्क से जाती नहीं है।
बहेगा सरहदों पे ख़ून कितना, ज़मीं की प्यास क्यूं बुझती नहीं है।
बहुत आवाज़ दी ‘तनहा’, मगर क्यूं; कभी खिड़की कहीं खुलती नहीं है।