किसान सृष्टिका प्रथम सृजनहार

डॉ. रामानुज पाठक, सतना

माटी के मन में अंकुर बन,
प्रभु प्रेरणा बन जाता है;
किसान वही, जो श्रम सुधा से
धरती को स्वर्ग बनाता है।

धूप जला दे देह, तिरस्कृत
बरखा रूठ चले पथ से;
वह फिर भी उम्मीद बोए,
जीवन के हर कंटक में हँसे ।

आँसू बीज बनें जब उसके,
सोना खेत उगा देता है;
दुःख की धूल झटक-झटककर,
हौसलों को सींच-सींचता है।

वादों की धूप सुलगती हो,
सत्ता की छाँहछलाए;
पर उसकी थाली में विश्वास,
उसका आत्मबल खिल जाए।
थकी हथेली थामे हल को,
तारों का रथ हाँकता है;
रात-रात वह सपनों के
नयन-दीप जलाता है।

बच्चों की मुस्कानों में ही
उसकी पूजा-आराधन;
अन्न-कणों में छिपा हुआ
भारत का शाश्वत जीवन ।

धरती माँ है, वह ज्येष्ठ पुन
जिसके चरणों से पावन;
उसकी चुप साधना में ही
राष्ट्र की होती आराधन ।

उसकी हँसी जहाँ बसती है
वहाँ हरियाली गाती;
जहाँ उसके हों श्रम-मंत्र,
वहाँ समृद्धि झरती जाती।
चलो, उसी के संग फिर गाएँ
सपनों का संगीत नया;
हर खेत खिले नव-दीपों-सा,
हर मन में वसंत रचा ।

किसान ! तू ही कर्म-कलश है,
तू ही जीवन की ज्योति;
तेरी विजय से धड़क रहा
इस विश्व-हृदय का स्रोत ।

तू अनहद-नाद, तू पूर्ण व्रत,
तू सृष्टि का प्रथम सृजनहार;
तेरे श्रम में ही ईश्वर का
नव-युग आता हर बार ।

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