काव्यानुवाद श्रीमद्भगवद्गीता, दासवा अध्याय (विभूती योग)

राकेश शंकर त्रिपाठी कानपुर

गीता का यह अध्याय विभूति योग के नाम से जाना जाता है। इसमें भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपनी विभूतियों, अपनी विशेषताओं एवं अपने विशिष्ट गुणों से अवगत कराया है।

1. कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स: प्रत्येक संस्था यदि उन्नति करना चाहती है, प्रगति करना चाहती है तो उसे अपने मानव पूँजी की देखभाल समुचित रूप से करना पड़ता है। प्रत्येक लीडर को भी अपने टीम के सदस्यों का समुचित ध्यान रखना उनके दायित्व की एक अनन्य भूमिका है। विषादग्रस्त अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देते हुये भगवान ने अपनी विशेषताओं से परिचय कराया जिससे अर्जुन के अंदर मोह, भय, विषाद दूर होकर पुन: आत्म विश्वास की प्राप्ति हो सके। उसे यह अनुभव हो सके कि उसे जिस नेतृत्व का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वह अद्वितीय है। वह सक्षम है अपने लोगों के हितों की रक्षा करने में और वह उनकी प्रगति में एक सुविधा प्रदान करने की भूमिका में सक्षम है। उसे यह विश्वास होना चाहिए कि जो भी निर्णय होगा, वह हमारे हित में होगा। अत: एक दूसरे के प्रति विश्वास का भाव उत्पन्न करना एक प्रमुख कार्य है।

भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।10.1।।

(श्रीभगवान् बोले — हे महाबाहो अर्जुन ! मेरे परम वचन को तुम फिर भी सुनो, जिसे मैं तुम्हारे हित की कामना से कहूँगा; क्योंकि तुम मेरे में अत्यन्त प्रेम रखते हो।)

2. उचित समय पर अपनी विशिष्टता का प्रदर्शन: प्रत्येक व्यक्ति के अंदर कई विशिष्ट गुण होते हैं। इन गुणों को उचित समय पर प्रदर्शित करना, उपयोग करना इन गुणों को गंभीरता और उचित वैल्यू प्रदान करता है। गुणों का अनावश्यक प्रदर्शन उनको गुणहीन कर देता है। हम जिनके साथ रहते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, पारस्परिक आचार – व्यवहार करते हैं उनके गुणों और व्यक्तित्व को उस गंभीरता से नहीं ग्रहण करते हैं जितनी गंभीरता से हम एक अनजान व्यक्ति के रूप में करते हैं। अर्जुन भगवान श्री कृष्ण को एक मित्र, एक सखा और एक पारिवारिक सदस्य के रूप में ही अभी तक जानते थे। उन्हें इस बात का आभास नहीं था कि वे इन से भी इतर कुछ और हैं। और यही है सच्ची नेतृत्व क्षमता जब लोग आश्चर्यचकित हो जायें यह देखकर कि – हाँ ! कुछ तो बात है।

3. सतत ज्ञान प्राप्त करना: सतत ज्ञान प्राप्त करने का यह तात्पर्य है कि स्वयं को सदैव सशक्त बनाते रहना। सशक्त व्यक्ति ही स्वयं को, समाज को, संस्था को और अपनी टीम के उत्थान में सफल हो पाता है। क्योंकि:

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।।4.38।।

(इस मनुष्य लोक में ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला निःसन्देह दूसरा कोई साधन नहीं है।)

अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से उनके व्यक्तित्व के बारे में, उनके गुणों के बारे में तथा उनकी विभूतियों के बारे में विस्तार से जानने की उत्सुकता प्रकट की है, क्योंकि अभी तक उसको यह विश्वास कर पाना एक दुरूह कार्य प्रतीत हो रहा था कि भगवान श्री कृष्ण दिव्य विभूतियों से युक्त हैं।

यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि अर्जुन भीतर ज्ञान को प्राप्त करने की लालसा है। अपने अज्ञानता के अंधकार को दूर करना चाहता है। और जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, वह सदैव ही प्रगति के पथ पर है। उसका उत्थान सुनिश्चित है।

और एक कुशल नेतृत्व कर्ता का यह पुनीत कर्त्तव्य है कि वह अपने सदस्यों की जिज्ञासा को शांत कर आत्म विश्वास में वृद्धि करे। किसी भी संस्था का यह प्रथम कर्त्तव्य है कि वह अपने स्टेकहोल्डर्स, हित धारकों को अपनी संस्था की खूबियों से परिचय करवाए। भगवान श्री कृष्ण ने इस अध्याय के बीसवें श्लोक से लेकर उनतालीसवें श्लोक तक अपनी बयासी विभूतियों का वर्णन किया है।

4. नेतृत्व के आवश्यक गुण : हमारे विचार में जिन गुणों की आवश्यकता होनी चाहिए एक कुशल नेतृत्व में, उन बीस गुणों के बारे में भगवान ने चौथे और पाँचवे श्लोक में बताया है:

बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।।10.4।।
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।।10.5।।

बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, दया, सत्य, दम, शम, सुख, दुख आदि को आत्मसात कर हम अपने व्यक्तित्व के विकास में अभूतपूर्व योगदान कर सकते हैं।

5. लक्ष्य न ओझल होने पाए: उपर्युक्त पंक्ति के रचनाकार के बारे में तो ज्ञात नहीं है किन्तु संघ की शाखाओं में अपने अनुज के द्वारा सुनने को प्राप्त हुआ:

लक्ष्य न ओझल होने पाए, कदम मिलाकर चल।
मंजिल तेरे पग चूमेगी, आज नहीं तो कल।।

और यही ज्ञान हम प्राप्त करते हैं कि जो सतत अपने लक्ष्य में अपना चित्त, अपने प्राण, नित्य निरन्तर कथन करते हुए, नित्य निरन्तर लगे रहते हैं, वे निश्चित रूप से मुझे अर्थात् अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं और वह लक्ष्य अलग-अलग व्यक्ति और संस्था के लिए पृथक-पृथक हो सकते हैं :-

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।10.9-10.10।।

6. सकारात्मक दृष्टिकोण : भगवान श्री कृष्ण ने अपनी विभूतियों को संक्षेप में बयासी वर्गीकृत तत्वों के बारे में बताया है और ये विभूतियाँ अपने वर्गों में श्रेष्ठ हैं।

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।….

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।10.20-39।।

हम इन श्लोकों से दो प्रकार की सीख प्राप्त कर सकते हैं:

i) इन श्लोकों से हम एक सामान्य व्यक्ति या नेतृत्व कर्ता की भूमिका में यह ग्रहण करते हैं कि प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति और चर अचर में जो भी श्रेष्ठ है वही मूल्यवान है, वही मान्य है, वही विशिष्ट है। अत: हमें अपने आपको सामान्य अवस्था से हटकर विशिष्टता को प्राप्त करने का प्रयास करते रहना चाहिए।

ii) दूसरे हम यह सीखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य के अंदर जो भी विशिष्टता है उसको पहचानना एक कुशल नेतृत्व का गुण होना चाहिए और उसके उन गुणों का प्रयोग कर हम संस्था की प्रगति में लीडर के रूप में अपना योगदान दे सकते हैं। जिस भी व्यक्ति में जो भी अच्छाई प्रकट होती है, दिखाई देती है उसे हमारा नमन होना चाहिए कि वह विशिष्टता भगवान का रूप है। हमें प्रत्येक व्यक्ति में सकारात्मकता के दर्शन करते रहना चाहिए और यह दर्शन एक कुशल संगठन कर्ता, कुशल नेतृत्व के रूप में विकसित करता है।

रश्मि रथी में “दिनकर जी” ने लिखा है:

जय हो’ जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।
किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,
सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।।

श्री भगवानुवाच

हे अर्जुन तू सुन अभी, परम वचन श्रुत ज्ञान।
जिसको मैं कहता तुम्हें, तेरा प्रेम महान।।
यह प्रभाव युत दिव्य है, ज्ञान-लाभ अनुकूल।
तेरे हित की कामना, तेरे मनोनुकूल।। 1

जानें नहीं महर्षि हैं, ना जानें सब देव।
ना जाने उत्पत्ति को, विश्व रूप मैं देव।।
नहीं जानते ये सभी, मुझसे सब उत्पन्न।
आदि अनादि अनन्त मैं, मुझसे ना हैं भिन्न।।
लीला से हूँ प्रकट मैं, मैं ही सबका आदि।
कारण हूँ सब सृष्टि का, मैं ही आदि अनादि।। 2

जो मनुष्य हैं जानते, तत्व-सत्य जो कथ्य।
लोक महेश्वर मैं सदा, है महान यह तथ्य।।
मुझे अनादि अजन्म जो, जाने मुझे यथार्थ।
सम्पूर्ण पाप से मुक्त हो, ज्ञानवान वह पार्थ।। 3

बुद्धि-ज्ञान-दम-सत्य-शम, क्षमाशील का भाव।
सुख-दुःख-भय औ अभय है, मैं-मेरा ना भाव।
सम-तप-तुष्टि-अहिंसा, दान कीर्ति अपकीर्ति।
अलग-अलग सब भाव ये, सभी भूत स्फूर्ति।।
सृजन भाव संसार का, प्रलय भाव भी व्याप्त।
मुझसे ही सब भाव हैं, बीस भाव ये प्राप्त।। 4-5

सात महर्षी हैं हुये, हुये और इत्यादि।
उनसे पहले ये हुये, हुये चार सनकादि।।
चौदह मनु भी अवतरित, इनको सबको जान।
मेरे मन से हैं सभी, मानस पुत्र महान।।

मुझमें श्रद्धा ये रखें, रखें भक्ति के भाव।
सम्पूर्ण प्रजा इनकी रहे, जग में रहे प्रभाव।। 6

जो मनुष्य जाने इसे, मेरी इसी विभूति।
और जानता योग को, तत्व ज्ञान अनुभूति।।
पा जाता वह व्यक्ति है,अविचल भक्ति अगाध।।
इसमें संशय कुछ नहीं, मिले भक्ति निर्बाध।। 7

सारे जग का प्रभव मैं, मुझसे सब हैं व्यक्त।
शरणागत मेरे सभी, बुद्धिमान जो भक्त।।
मेरा करते हैं भजन, रखते श्रद्धा-भक्ति।
सर्वोपरि भगवान हैं, उच्च भाव अभिव्यक्ति।। 8

चित्त रखें मुझमें सदा, अर्पण करते प्राण ।
आपस में चर्चा करें, करते प्रेम प्रमाण।।
नित्य-निरंतर तुष्ट हो, भजते परम प्रभाव ।
रमण करें मुझमें सदा,सुख आनन्दित भाव।। 9

नित्य-निरंतर लोग जो, मुझमें हैं तल्लीन ।
बुद्धि-योग देता उन्हें, मुझमें होत विलीन ।।
वास करूँ उनके हृदय, उन पर कृपा विशेष ।
ज्ञानदीप प्रज्वलित हो, अंधकार ना शेष।। 10-11

अर्जुन उवाच

ब्रह्म परम औ धाम भी, परम पुनीत हैं आप ।
दिव्य पुरुष शाश्वत अजम्,आदि देव ही आप ।।
नारद-असित व्यास ऋषि, देवल करते पुष्टि ।
आप स्वयं भी कह रहें, आप परम हैं सृष्टि ।। 12-13

मुझसे जो कुछ कह रहें, मैं मानूँ सब सत्य ।
किन्तु न जाने देवता, ना जाने हैं दैत्य ।।
पुरुषोत्तम हे जगतपति, देवदेव-भूतेश ।
सब के उद्गम आप हैं, स्वयं को जाने ईश ।। 14-15

जिन विभूति से आपने, किये लोक हैं व्याप्त।
वे विभूति जो दिव्य हैं, नहीं हमें हैं ज्ञात।।

कहने में पूरी तरह, बस समर्थ हैं आप।
वर्णन जिसमें पूर्णता, कहें विभूति प्रताप।। 16

हे योगेश्वर मैं करूँ, किस प्रकार तव ध्यान।
चिन्तन कैसे मैं करूँ, तेरा ही आह्वान।।
किस प्रकार जानूँ तुम्हें, मुझको दे दें ज्ञान।
किन-किन भाव से आपका, चिंतन करूँ व ध्यान।। 17

पुनः कहें विस्तार से, योगशक्ति ऐश्वर्य।
तृप्त नहीं मैं हो रहा, ऐसा है सौंदर्य।।
उत्कंठा रहती सदा, विषय आपका ज्ञान।
अमृत रूपी वचन को, सुनना है भगवान।। 18

श्रीभगवानुवाच

कुरूश्रेष्ठ ! कहता सुनो, मम ऐश्वर्य महान।
वैभव युक्त स्वरूप जो, अंतहीन है ज्ञान।।
प्रमुख रूप से कह रहा, दिव्य विभूति विस्तार।
जो अनन्त अस्सीम हैं, महिमा रहे अपार।।
हे अर्जुन सब जीव का, आदि मध्य मैं अन्त।
आत्मा सबके हृदय मैं, रहता हूँ जीवन्त।। 19-20

अदितों में मैं विष्णु हूँ, मरुतों में मरीचि।
तेजस्वी मैं सूर्य हूँ, किरण वस्तु सब बीचि।।
अधिपति हूँ सब नखत का, मैं शशि मैं राकेश।
जो विशेष इनमें दिखे, हैं मेरे संदेश।। 21

ऋषियों में मैं भृगु सदा, वाणी में ओंकार।
यज्ञों में जप अचल मैं, हिम पर्वत आकार।।
पीपल हूँ मैं वृक्ष में, नारद हूँ देवर्षि।
चित्ररथ: गंधर्व में, मुनि मैं कपिल महर्षि।। 25-26

घोड़ों में उच्चैश्रवा, ऐरावत गज मध्य।
नर में मैं राजा सदा, मैं ही हूँ आराध्य।।
हथियारों में मैं वज्र हूँ, कामधेनु मैं गाय।
कामदेव मैं प्रेम हूँ, वासुकि सर्प कहाय।। 27-28

शेषनाग मैं नाग में, मम विभूति ये देव।
जलचर अधिपति वरुण हूँ, जलपति मैं जलदेव।।
पितरों में हूँ अर्यमा, मृत्यु देव यमराज।
अलग-अलग जो रूप हैं, सब मेरे ही साज।।
दैत्यों में प्रहलाद हूँ, दमन काल में काल।
पशुओं में मैं सिंह हूँ, पक्षि गरुण प्रति काल।। 29-30

करे शुद्ध सब वस्तु को, वायु पवित्र विभूति।
शस्त्राधारी राम मैं, मेरी ये सब नीति।।
जल-जंतू के मध्य मैं, मगर जंतु अवतार।
गंगा नदियों मध्य मैं, सद्गति हो उद्धार।। 31

सभी सृष्टि का आदि मैं, अंत मध्य पहचान।
विद्या में अध्यात्म मैं, करे जगत कल्यान।।
इसे जानकर ना बचे, ना कोई प्रारूप।
वाद श्रेष्ठ शास्त्रार्थ में, है मेरा यह रूप।। 32

सभी अक्षरों में सदा, मैं हूँ सदा अकार।
द्वन्द्व समास समास में, मैं हूँ श्रेष्ठ प्रकार।।
अक्षय शाश्वत काल मैं, महाकाल मैं काल।
पालन पोषण जीव सब, विश्वतो रखे ख्याल।। 33

सबको हरती जो सदा, भक्षण करती मृत्यु।
कर्ता सब उत्पत्ति का, जन्म मरण का सत्य।।
स्मृति नारी में सदा, मेधा धृति औ कीर्ति।
श्री औ वाणी क्षमा मैं, ये सब मेरी दीप्ति।। 34

सब जीवों में चेतना, हूँ वेदों में साम।
इन्द्रिय में मैं मन सदा, कर्म करे निष्काम।।
अधिपति हूँ सब देव का, देवों में मैं इंद्र।
ये विभूति मुझसे सभी, तारों में मैं चन्द्र।। 22

रूद्रों में मैं शिव सदा, पर्वत में मैं मेरु।
वसुओं में मैं अग्नि हूँ, राक्षस-यक्ष कुबेर।। 23

सेनापतियों में सदा, कार्तिकेय तू जान।
सभी पुरोहित मध्य मैं, रूप बृहस्पति मान।।
सभी जलाशय में सदा, सागर-सिंधु-समुद्र।
अधिपति यह गंभीर है, विभूति देव है इंद्र।। 24

जो श्रुतियाँं हैं योग्य वे, गायन योग्य तमाम।
सामवेद में श्रेष्ठ है, बृहत्साम परिणाम।।
सब छंदों में छंद है, गायत्री इक छंद।
मार्गशीर्ष हूँ माह में, है विभूति आनंद।।
छ: ऋतुओं के मध्य मैं, कुसुमाकर: बसंत।
सर्वाधिक उल्लास का, है आनंद अनंत।। 35

छलियों में मैं द्यूत हूँ, तेजस्वी में तेज।
जय विभूति हूँ पुरुष में, निश्चय भाव सहेज।।
सात्त्विक भाव पुरुष में, सात्विक गुण आचार।
सभी विभूतीं से सदा, तत्व युक्त संसार।। 36

वृष्ण वंश उत्पन्न मैं, वासुदेव हूँ कृष्ण।
पाण्डव में मैं पार्थ हूँ, अर्जुन सखा हूँ वृष्ण।।
मुनियों में मैं व्यास हूँ, वेद व्यास मुनि देव।
कवीनाम उसना कवी, कवियों के गुरुदेव।। 37

दण्ड नीति हूँ दमन का, दुष्टों को सन्मार्ग।
विजय चाहता जो पुरुष, नीति विजय का मार्ग।।
रखने योग्य जो गुप्त हैं, भाव सदा मैं मौन।
ज्ञानवान का ज्ञान मैं, तत्वज्ञान मैं ज्ञान।। 38

जनक बीज मैं सृष्टि का, हे अर्जुन यह जान।
मुझसे ना कोई रहित, चर औ अचर समान।।
अंत नहीं है दिव्य का, मम विभूति का पार्थ।
संक्षेप सहित मैंने कहा, जो तेरे परमार्थ।। 39-40

जो दिखता ऐश्वर्य है, कान्ति युक्त औ शक्ति।
मेरे तेज के अंश वे, मेरी ही अभिव्यक्ति।। 41

आवश्यक है क्यों तुझे, जाने सारी बात।
मैं समक्ष तेरे खड़ा, बनो आत्म निष्णात।।
हे अर्जुन तू यह समझ, यह अनन्त संसार।
मेरे ही एकांश से, ब्रह्माण्ड जन्म साकार।। 42

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