इच्छायें
पल्लवी अवस्थी, मसकट , ओमान
इस रंग बदलती दुनिया में,
जाने कितना झमेला है;
अपनेपन का दिलों में आज,
ना पहले जैसा मेला है।
धरती तो पहले ही बंटती थी,
अब आसमान भी बाँट रहे;
जाने कौन सी चाहत है,
बस अपनों को ही काट रहे।
चाहत का कभी ना अंत हुआ,
लालच का रेलम रेला है;
इस लोभ लिप्सा ने ही तो बस,
अपनों को दूर धकेला है।
ऊपर-ऊपर से तो मुस्काते,
पर अंदर से सब सूना है;
इतनी इच्छायें जीवन में कि,
जीना खुलकर भूल गए।
ये भी ले लें वो भी चाहें पर,
चाहत कभी न ख़त्म हुई;
झूठी मुस्कान के पीछे सच्ची,
ख़ुशी भी कहीं गुम हुई।
इस रंग बदलती दुनिया में,
चाहत के पीछे भाग रहे;
पर पीछे छूट रहा सूनापन,
इस बात का हरदम भान रहे।
इच्छायें अनंत व्योम सी हैं,
इनसे पार ना पाओगे;
छोड़ इन्हें ना बढ़े यदि,
अपनों से दूर हो जाओगे।
जीवन ऋतु
राहुल चनानी, मुंबई