“कोई दुआ असर नहीं करती, जब तक वो हम पर नजर नहीं करती, हम उसकी खबर रखें या न रखें, वो कभी हमें बेखबर नहीं करती।”
कुछ ऐसा ही संबंध है हमारा और हमारी कुल देवी दक्षिणमुखी मां काली का जो नवरात्रि के पावन पर्व में भक्तों की विशेष आराधना का केंद्र रहता है। गांव की तपोभूमि पर स्थापित माँ काली का मंदिर अपने दर्शनाभिलाषी भक्तों से शोभायमान रहता है। वैसे तो वर्ष भर यहाँ भक्तों का मेला लगा रहता है किंतु नवरात्रि पर्व और श्रावण मास कुछ अलग ही छटा बिखेरता है इस दरबार में।
बनारस (उ. प्र.) से 30 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में जौनपुर जिला के आदि-गोमती के पावन तट से 2 किलोमीटर की दूरी पर हरदासीपुर (चंदवक, जौनपुर) में स्थित ये मंदिर लगभग 8 शताब्दियों से इस क्षेत्र (डोभी) की शोभा को गुंजायमान कर हमें सौभाग्य देता है। क्षेत्र की कुल देवी के रूप में स्थापित यह मंदिर अलौकिक मान्यताओं,किम्बदन्तियों की कथाओं और भक्तों की मनोकामनाओं का एक स्वरूप है साथ ही साथ माँ न जाने कितने वैवाहिक दंपतियों के कुशल जीवन की साक्षी हैं।
अंकुरसिंह जौनपुर
ऐतिहासिक महत्व –
कुछ किम्बदन्तियों के अनुसार काशी क्षेत्र पर तकरीबन 150 ई.पू. भर (राजभर) समुदाय का राज्य था तत्कालीन समय में इसे विंध्य क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। इस वंश के राजाओं ने बावड़ियों एवम मंदिरों के निर्माण पर विशेष बल दिया; किन्तु मगध साम्राज्य के उदय के पश्चात इसे मगध क्षेत्र के अधीन कर लिया गया जिससे हर्षवर्धन के शासन काल में पुनः इनको राज करने का अधिकार प्राप्त होता है और इनका शासन निरंतर चलता रहा। किन्तु लगभग वर्ष 1000 ईसवी में काशीक्षेत्र से सम्बद्ध क्षेत्र (वर्तमान में डोभी, जिला-जौनपुर) में रघुवंशी क्षत्रियों का आगमन हुआ। बनारस के राजा ने अपनी पुत्री का विवाह तत्कालीन अयोध्या के राजा नयनदेव से करने का फैसला किया, जो कि अयोध्या का राजपाठ छोड़ सन्यास धारण कर माँ गंगा के चरणों मे आये थे और काशी के नियार क्षेत्र में कुटी स्थापित कर तपस्या करने लगे थे। विवाह के उपरांत भेंट स्वरूप काशीराज ने काशी के कुछ क्षेत्र (वर्तमान में डोभी व कटेहर) की भूमि प्रदान की जिसमें रघुवंशी क्षत्रिय आबाद हुए। उसके बाद वत्यगोत्री, दुर्गवंश, और व्यास क्षत्रिय इस जनपद में आये। तत्कालीन समय मे भी भरों और सोइरसों का प्रभुत्व इस क्षेत्र पर था। क्षत्रियों की आबादी बढ़ने के साथ-साथ भरों और क्षत्रियों में संघर्ष बढ़ने लगा।
लगभग वर्ष 1090 के दौरान कन्नौज से गहरवार क्षत्रियों के आगमन के पश्चात ये संघर्ष युद्ध में तब्दील होने लगा और फलस्वरूप गहरवारों ने विंध्याचल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर अपने धार्मिक रुचि के अनुरूप मंदिरों के निर्माण एवं विकास पर बल देना आरम्भ किया।