भ्रष्टाचार और नैतिकता

अवनीश कुमार गुप्ता, प्रयागराज

गांव की चौपाल आज फिर से गुलजार थी। हर कोई जुटा था, और इस बार चर्चा का विषय था— “भ्रष्टाचार और नैतिकता”।

चौपाल के बीचों-बीच खड़े थे बनवारी लाल जी— गांव के स्वयंभू ईमानदार नेता। उनकी आवाज़ में वो ताकत थी, जो आम जनता को यह यकीन दिला देती थी कि देश के सारे भ्रष्टाचारी उनके घर के बाहर लाइन लगाकर क्षमा मांग रहे हैं।

“भाइयों और बहनों!” बनवारी लाल जी ने आवाज़ लगाई, “आज हमारा समाज नैतिकता से दूर जा रहा है! लोग बेईमानी कर रहे हैं, रिश्वत ले रहे हैं, और झूठ को सच बना रहे हैं। हमें इसे रोकना होगा!”

भीड़ में बैठे रामलाल काका ने आंखें मलीं, फिर बोले— “अरे बनवारी बाबू, पिछले महीने आपकी बेटी की नौकरी कैसे लगी थी, जरा बताइए?”

अब यह सवाल पूछना वैसा ही था, जैसे किसी सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर से पूछ लेना कि उनकी फॉलोअर्स लिस्ट असली है या बॉट्स से बनी है।

बनवारी लाल जी हल्के से हड़बड़ाए, फिर मुस्कुराकर बोले, “अरे भाई, वो तो मेरी बेटी मेधावी थी, मेरिट से सिलेक्ट हुई है!”

रामलाल काका बोले, “हां, और उस मेरिट में आपके फोन कॉल का भी थोड़ा योगदान रहा होगा!”

अब यह बात एक वायरल वीडियो की तरह फैल गई।

लोग धीरे-धीरे समझ गए कि भ्रष्टाचार पर भाषण देने वाले अक्सर वही लोग होते हैं, जो खुद अंदर से रिश्वत के दलदल में गोता लगा चुके होते हैं।

अब जब भ्रष्टाचार की बातें हो रही थीं, तो भीड़ में खड़े रमेश चाचा को भी जोश आ गया। वे बोले— “हमारी पीढ़ी ईमानदार थी! आजकल तो हर चीज में बेईमानी है!”

अब ये वही रमेश चाचा थे, जो हर सरकारी योजना में “थोड़ा लेन-देन” करके अपना काम निकलवा लेते थे।

अब उनकी बातों पर कोई गंभीरता से सोचता, इससे पहले ही भीड़ से आवाज़ आई— “अरे चाचा, पिछले साल आपने राशन कार्ड में अपनी बहू को विधवा बताकर ज्यादा अनाज लिया था, वो ईमानदारी थी क्या?”

रमेश चाचा का चेहरा सफेद पड़ गया, जैसे किसी भ्रष्ट अफसर के घर रेड पड़ गई हो।

अब यह चर्चा और दिलचस्प हो गई।

इसी बीच गांव का मास्टर रामप्रसाद बोले— “भ्रष्टाचार की असली जड़ है— अधूरी पढ़ाई और पूरा ज्ञान!”

“आजकल हर कोई सोशल मीडिया पर दो लाइनें पढ़कर खुद को कानून, धर्म और विज्ञान का ज्ञानी समझता है।”

“कोई अंधविश्वास फैलाता है, कोई अफवाहें उड़ाता है, और जब पकड़ा जाता है, तो कहता है— ‘मुझे फेक न्यूज के बारे में पता नहीं था!'”

तभी भीड़ से एक नौजवान बोला— “अरे मास्टर जी, यही तो असली स्किल है! अधूरा ज्ञान ही सबसे ज्यादा बिकता है।”

“आजकल पढ़ाई-लिखाई से ज्यादा, “कॉन्फिडेंस” बिकता है।”

“अगर किसी को कुछ आता भी न हो, लेकिन वो कहे ‘मुझे सब पता है’, तो लोग उसे फॉलो करने लगते हैं!”

अब यह सुनकर मास्टर रामप्रसाद सिर पकड़कर बैठ गए।

अब भीड़ में हरिश्चंद्र बाबू खड़े हुए और बोले— “भाइयों, असली समस्या नैतिकता की है! आजकल लोग नैतिकता को व्यापार बना चुके हैं!”

“ईमानदारी पर भाषण देने वाले सबसे बड़े बेईमान होते हैं!”

“शिक्षा सुधार की बात करने वाले खुद अपने बच्चों को डोनेशन से एडमिशन दिलवाते हैं!”

“समाज सेवा की बातें करने वाले पहले फोटो खिंचवाते हैं, फिर भूखे बच्चों को खाना देते हैं!”

अब यह सुनकर भीड़ में चुप्पी छा गई।

तभी गजोधर काका बोले— “बिलकुल सही कहा बाबू! आजकल नैतिकता भी एक ब्रांड बन चुकी है।”

“अगर कोई किसी गरीब की मदद करे, लेकिन बिना फोटो खींचे, तो लोग कहेंगे— ‘पब्लिसिटी नहीं कर रहा, कुछ गड़बड़ है!'”

“और अगर कोई दान करे और इंस्टाग्राम पर पोस्ट डाल दे, तो लोग कहेंगे— ‘वाह, कितना दयालु इंसान है!'”
अब भीड़ गरम थी, तो चर्चा आगे बढ़ी।

अब मुद्दा आया— खेल और घोटालों का।

गांव के युवा खिलाड़ी रवि यादव खड़े हुए और बोले— “हमने सुना है कि बड़े-बड़े खेल संघों में सेलेक्शन पहले से तय होता है!”

“जो असली टैलेंटेड खिलाड़ी होते हैं, वो पीछे रह जाते हैं, और जिनके पास सिफारिश और पैसे होते हैं, वो आगे बढ़ जाते हैं!”

अब यह सुनकर गांव का एक और लड़का बोला—

“खेल में ही क्यों, नौकरी में भी यही होता है!”

“जो मेहनत करता है, वो परीक्षा पास करता है, इंटरव्यू में फेल हो जाता है!”

“और जो नेताओं के जानकार होते हैं, वो सीधे सरकारी दफ्तर में बैठ जाते हैं!”

अब भीड़ में रोष था।

अब जब भ्रष्टाचार, बेईमानी और नैतिकता पर इतनी बातें हो गईं, तो किसी ने नेताओं का जिक्र छेड़ दिया।

गांव के पंचायत सदस्य गिरीश बाबू बोले— “भाइयों, नेता ही इस देश की असली समस्या हैं! ये लोग वोट मांगने आते हैं, और फिर जनता को भूल जाते हैं!”

अब यह सुनकर गांव के बुजुर्ग भोला चाचा बोले— “गिरीश बाबू, और वोट कौन देता है? भूत-प्रेत?”
“हम ही तो पैसे और दारू के बदले वोट बेचते हैं, फिर शिकायत भी करते हैं!”

अब यह बात ऐसी थी, जो कड़वी भी थी और सच्ची भी।

तभी भीड़ में से एक और आवाज़ आई— “अरे चाचा, हम चुनाव के समय एक दिन के लिए बिकते हैं, लेकिन नेता पूरे पांच साल के लिए बिक जाते हैं!”

अब पूरा गांव हंसी से लोटपोट था, और बहस वहीं खत्म हो गई।

इतनी लंबी चर्चा के बाद सबसे बड़ा सवाल यही था— समस्या आखिर है कौन?

मोबाइल? नेता? युवा? बुजुर्ग? या खुद समाज?
हरिश्चंद्र बाबू ने आखिर में एक वाक्य कहा— “समस्या यह नहीं कि भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, समस्या यह है कि हम इसे मज़ाक समझकर हंसी में उड़ा देते हैं!”

अब यह सुनकर सबकी हंसी बंद हो गई।

तभी रामलाल काका बोले— “अरे चलो भाई, बहुत बहस हो गई, अब चाय पीते हैं!”

और बस, गांववालों की आदत के मुताबिक समाज की समस्या पर चर्चा वहीं खत्म हो गई।

“बाकी सब बाद में, पहले चाय!”

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