बलिदान

डॉ. कनक लता  तिवारी
मुंबई

ठांय ठांय ! सुनसान जंगल पैरों की आवाज से गूंज उठा। चिदंबरम के भागते कदम रुक गए। ओफ ओ ! यहां भी पुलिस ने पीछा शुरू कर ही दिया। पांव थक गए हैं कब खत्म होगी यह भाग दौड़ ? अब तो बस मौत का ही इंतजार है। उसने पलट कर अपने पीछे खड़ी रत्ना को देखा। अपना उसे कोई गम नहीं है लेकिन गर्भ भार से दुहरी होती रत्ना भी इस जीवन मृत्यु के खेल में जूझ रही है, इसका उसे बहुत अफसोस है।

उसकी प्राण प्रिया, जिसे दुनिया के सारे सुखों को देने का सपना देखा था उसने, आज उसके साथ अभाव और निष्कासन को झेल रही है। वह नाजुक पाँव, जिनमें रुनझुन करती पायल होती, छालों से भरे पड़े हैं, लेकिन नहीं, अफसोस क्यों करें चिदंबरम ! आखिर उसने बे मकसद तो नहीं लड़ी है यह लड़ाई। अपनी बात मनवाने के लिए उसने और उसके साथियों ने अगर आतंकवाद का रास्ता अपनाया है तो क्या बुरा किया ? क्रांतिकारी ही तो लाते हैं बदलाव। हां! बदलाव ही तो चाहिए। चाहिए छुटकारा दिन पर दिन बढ़ती बेरोजगारी से, गरीबी से,अभाव से। अपने ही राज्य में वे लोग तो पीछे रह जाएं और बाहर वाले जाकर उन्नति की सीढ़िया पर बैठ जाएँ, नहीं चलेगा यह सब। बदलना ही होगा सब कुछ। कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता ही है। क्या खोया क्या पाया है चिदंबरम ने ?

कहां वह शांत गांव का वातावरण कहां दिन-रात बारूद का धुआ चिंदबरम सोचने लगा। बचपन में बाबा जब धान के खेत रोपने जाते थे तो माँ उनका खाना स्कूल जाते बेटे के हाथ में दे देती थी। “जाते हुए बाबा को रोटी देते जाना बेटा।” चिंदम्बरम हाथ में एक छोटी सी छड़ी लेकर रस्ते में फटफटाते हुए चलता। बाबा और उनके साथी जब धान रोपते समय खेत जाते तो उसे लगता कि समय यहीं ठहर गया है। स्कूल में पढ़ने में उसका मन लगता था क्योंकि बाबा का सपना था मेरा बेटा चप्पल और पैंट शर्ट पहन कर ऑफिस जायेगा। माँ भी गरम रोटी सबसे पहले उसकी थाली में रखती, पढ़ने वाले बच्चे को खाना तो पेट भर मिलना चाहिए। छुट्टी के दिन तालाब पर जाता अपने साथियों के साथ चिदंबरम और मछली पकड़ता। वहीं ताल के किनारे आग जला कर वे मछली भून कर खाते। स्कूल के बाद कॉलेज जाने के लिए उसे 38 मील दूर बस पकड़कर जाना पड़ता। सुबह ही माँ रोटी पकाकर उसे दे देती और चाय बिस्कुट खाकर वह निकल जाता। ये बिस्कुट भी उसकी माँ सिर्फ उसके लिए ही लाती थी ताकि सुबह भूखे पेट न निकले। चाय तो अब गाँव वालों के लिए भी जरुरत की वस्तु बन रही थी धीरे धीरे।

कॉलेज में कईयों से परिचय हुआ लेकिन उसका आदिवासी होना जैसे कहीं दूसरों को उससे मिलने में झिझक पैदा करता था। फिर भी उसके सपने उसकी आँखों में बने रहे और उसने पढ़ने में अच्छा ही रिजल्ट किया। शांत स्वभाव का चिदंबरम शिक्षकों का प्रिय तो था ही और इतनी दूर से आने के बाद भी समय पर क्लास में आना, लेक्चर अटेंड करना उसकी छवि को और अच्छा बनाते थे। लड़कियों से वह दूर ही रहता था और गाँव का तथा आदिवासी होने के कारण वह कभी खुल कर लड़कियों से मिल भी नहीं पता था। रत्ना से मिलने के पहले तो प्यार क्या होता है इस भावना को वो जनता ही नहीं था।

चिदंबरम को याद आ गई रत्ना से हुई पहली मुलाकात। वो गाँव की हरियाली और केले के नरम पत्तों से फिसलती पानी की बूंदे, ऐसे धुले धुले वातावरण में कोमल कली सी नाजुक रत्ना को पहली बार उसने देखा था। रत्ना उस समय चावल कूट रही थी। मूसल पर पड़े उसके नाजुक हाथ बिल्कुल लयात्मक गति के साथ उठ गिर रहे थे। उस नाजुक सी लड़की को देखकर ऐसा लगता था कि चावल कूटते हुए गिर ही जाएगी। उस सलोने चेहरे को देखकर चिदम्बरम भौंचक्का सा हो गया। गांव के सारे चेहरे तो पहचाने हुए थे, फिर ये नया चेहरा कौन है। पूछताछ कर चिदंबरम को पता चल गया कि उसके ही गांव के राजशेखर की भांजी है। मां बाप का एक दुर्घटना में देहांत होने के बाद अपने मामा के पास आकर रह रही है। चिदंबरम किसी न किसी बहाने रोज राजशेखर के यहां जाकर बैठने लगा। पहले तो रत्ना अनजानी बनी रही लेकिन फिर चिदंबरम के दिल की धड़कन उसे भी तरंगित करने लगी। आखिर एक दिन ऐसा भी आया कि जब दोनों शादी के बंधन में बंध गए।

चिदंबरम बी ऐ के एग्जाम के रिजल्ट की प्रतीक्षा कर रहा था। शादी के बाद उसका रिजल्ट आया तो प्रथम श्रेणी में पास हुआ था। फिर शुरू हुई नौकरी के लिए उसकी भाग दौड़। किसान माता-पिता ने बड़ी मेहनत से लड़के को पढ़ाया था। जमीन भी उनकी अपनी नहीं थी। बटाई पर खेती करके जीवन कटता था। लड़के की पढ़ाई से बड़ी आशाएं थी। अपने पढ़े-लिखे पुत्र को हल में जुता हुआ वह देखना नहीं चाहते थे।

पहले पहले चिदंबरम बड़े उत्साह से नौकरी के इंटरव्यू के लिए जाता था। लेकिन बार-बार की असफलताओं ने उसका उत्साह भंग कर दिया। उसके पास ना तो सिफारिश थी ना ही पैसा, जिनके बल पर आजकल नौकरियों में प्रवेश मिलता है। उसकी आकांक्षाओं पर धूल पड़ गई। घर आकर जब वह मुरझाई हुई रत्ना को देखता तो उसका कलेजा और मसोसने लगता। इसी समय उसकी भेंट अरविंदन से हुई।

अरविंदन के पास थी लच्छेदार और सम्मोहित करने वाली बातें और चिदंबरम के पास था उन्हें आत्मग्रहीत करने का समय। कब वह अरविंदन के रंग में रंगता गया उसे खुद नहीं पता। उसकी वह शक्ति जो किसी नौकरी में और देश तथा परिवार की उन्नति में खर्च होती, अरविंदन के सुझाए रास्ते की ओर उन्मुख होने लगी। अपनी बेकारी निराशा और हताशा से उबरने के लिए उसने अरविंदन के बताए रास्ते को स्वीकार कर लिया।

हां खत्म कर देगा उन सबको जो दूसरे राज्यों से आकर उन राज्यों के हकों पर डाका डाल रहे हैं। जलाएगा वह भी क्रांति की मशाल। करेगा एक सपना पूरा, करेगा साम्राज्य का निर्माण जहां हर युवक अच्छी नौकरी से युक्त होगा और हर जीवन सुविधाओं से परिपूर्ण होगा – यही सोचकर तो चला था चिदंबरम इस कठिन रास्ते पर लेकिन अभी तक मिला क्या है दिन-रात पीछे शिकारी कुत्तों की तरह सूंघती पुलिस और उससे बचने निकलने की दौड़ धूप में कटती जिंदगी।

अचानक रत्ना की कराह ने उसे वर्तमान में लाकर पटक दिया। आसन्न प्रसवा रत्ना के पीले पड़ते मुख ने उसे बता दिया कि अब उसकी संतान के आने में देर नहीं है। चिदंबरम किसी तरह कांपती कराहती रत्ना को एक झाड़ी की ओट में ले जा एक पेड़ के सहारे बैठा दिया और खुद कहीं सुरक्षित ठिकाना खोजने के लिए निकल पड़ा। दो कदम ही चला होगा कि अचानक नन्हे बच्चे के क्रंदन से जंगल गूंज उठा। चिदंबरम ने दौड़कर रत्ना के पास पड़ी अपनी नवजात बच्ची को उठा लिया। खून से सनी बच्ची को पोंछने की शक्ति नहीं थी रत्ना में। चिंदम्बरम के हाथ लरज उठे – यही है उसकी संतान, क्या भाग्य लेकर जन्मी है। यायावर माता-पिता की संतान ने तो जन्म ही जंगल के कांटों के सेज पर लिया है। क्या दे पाएगा अपनी बिटिया को पता नहीं, उसके संघर्ष का क्या अंत होगा ? कैसे उठेगा इस नई जान का बोझ उन दोनों से जिनका अपना ही अभी कोई ठिकाना नहीं है।

चिंदबरम की आँखों के सामने मानो अपना घर घूम गया। पिछली बरसात के पहले ही उसने नया छप्पर डाला था। रत्ना और उसने सोचा था कि वे चादर में नहीं बल्कि लकड़ी के झूले में अपने होने वाले बच्चे को डालेंगे। इसके लिए चिदंबरम ने लकड़ी के दो बड़े टुकड़े भी लाकर रखे थे। उसे याद है चूल्हे के सामने रोटी सेंकती हुई रत्ना का चेहरा ख़ुशी से लाल हो गया था।

चिदंबरम के ख्यालों को दौड़ते कदमों की आहटों ने भंग किया, शायद बच्ची के रोने की आवाज से पुलिस को उसके छिपने के ठिकाने का पता चल गया था और वह घात लगाकर दौड़ती चली आ रही थी। चिदंबरम ने रत्ना की तरफ देखा जो नीम बेहोशी की हालत में पड़ी थी अचानक हिलने से बच्ची फिर रोने लगी। चिदंबरम ने घबरा कर बच्ची का मुंह दबा दिया और एक हाथ से रत्ना को धीरे से खिसका कर झाड़ी के अंदर ले गया। पुलिस के दौड़ते कदमों की आवाज झाड़ियों के पास आकर रुक गई चिदंबरम ने बच्ची का मुंह जोर से दबाए रखा। उसकी अपनी सांस भी रुकने रुकने को हो रही थी। पुलिस वाले काफी देर तक आसपास देखते रहे और फिर उनके क़दमों की आहटें मंद पड़ने लगी।

खतरा टला जानकर चिदंबरम की सांस में सांस आई और उसने बच्चे के मुंह से हाथ हटा लिया। इतने में रत्ना की कराहती आवाज आई और उसे होश आ गया। वह अपने बच्ची को मांग रही थी। चिदंबरम ने बच्ची उसकी गोद में दे दी, लेकिन कहां थी उसकी बच्ची ? वहां तो था नील पड़ा उसका नन्हा शरीर। मुंह पर देर तक पड़े दबाव ने उसकी स्वांस नलिका को अवरोधित कर दिया था। रत्ना के निशब्द रुदन से चिदंबरम की छाती फटी जा रही थी लेकिन क्या करता चिदंबरम। जीवन के उद्देश्यों को पाने की दौड़ में उसने एक और बलि दे दी, लेकिन क्या पूरा होगा उसका उद्देश्य ? मिल जाएगा उससे वह सब कुछ जो उसकी चाहत है ? क्या मिल जाने पर भी उसे याद नहीं आएगा एक नवजात आत्मा का निशब्द रुदन ? क्या जिंदगी भर उसे नहीं तड़पाएगा जीवन के लिए संघर्ष करते हुए नन्हे से प्राणों का बलिदान ???

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