कश्म कश

पल्लवी अवस्थी , मसकट ,ओमान 

“पटाखो पर प्रतिबंध है, सुबह तुम खुद ही तो बता रही थी।” नवीन ने छेड़ा। 

“ग्रीन पटाखों की छूट तो सरकार ने दे दी है न, वही लायेंगे।” 

मानसी के कहने पर नवीन उसे प्यार से निहारने लगे वो समझ चुके थे कि दीपावली की ये छुट्टियाँ उन्हें आराम नहीं करने देंगी। थकान की कल्पना जाने क्यों मन में उमंग की हिलोर उठाने लगी। 

मानसी उन्हें सोच में डूबा देखकर बोली, “अरे! उठो न बहुत काम है। घर के डेकोरेशन के बारे में भी सोचना है, दीपावली है इसलिए कुछ नया करना है।” 

“सुबह तक तो तुम्हें कोई काम नज़र नहीं आ रहा था।” 

“सुबह तक विहान के आने की बात भी कहाँ पता थी।” बेसाख्ता उसके मुँह से निकला… 

“सुनो, तुम्हारी अँगूठी…” नवीन उसकी उंगलियों को सहलाते हुए कुछ भावुक हुए। 

“अँगूठी का क्या है, अलमारी में बंद हो जानी थी।” कहते हुए उसने खिड़की खोल दी। ठंडी हवा के साथ त्यौहारी महक भीतर चली आई जिससे घर का कोना-कोना महक उठा। नवीन और मानसी सहसा एक-दूसरे को देख मुदित मन से  मुस्कुरा उठे… 

शून्य को निहारती..
जाने क्या ! मैं चाहती ?
किस डगर की हूँ पथिक
ये भी नहीं मैं जानती ?

है कश्म क़श ये !
खुद से खुद को पहचानने की..
है कश्म क़श ये
सही राह जानने की..
तो झाँक ! अपने अंतर्मन में
छोड़ जीना बीते कल में..
कल बीत गया, हो गयी बात पुरानी
नये दिन में फिर, लिख एक नई कहानी..

चुन अपनी ख़ुशियाँ ख़ुद ही
बाँट मुश्कान हर तरफ़
उठा कदम सचाई से, कर्तव्य पथ पर
बढ़ कामयाबी की ओर
भर दे हर रंग हर तरफ़
ना निहार यूहीं शून्य को
बस बढ़े चल बढ़े चल और बढ़े चल…