घर आ जाओ
डॉ कनकलता तिवारी, नवी मुंबई
चले गए जो दूर वतन से, लेकर सपनों की झोली ।
मन में तो अरमान लिए थे, लेकर इच्छा की डोली ।
धरती माँ ने पाला पोसा, शिक्षा और परिवार दिया था,
पर जब पड़ी ज़रूरत उनको, तब अपनों को छोड़ दिया था।
खड़ी द्वार पर आजी उनकी, लेकर दिया और रंगोली ।
चले गए जो दूरवतन से लेकर सपनों की झोली ।
कहते हैं मिलते अवसर हैं, मिलता है सम्मान जहाँ से,
पर क्या नाता तोड़ जमीन से, मिलता सच्चा ज्ञान वहाँ से ?
इसी भूल में खो जाते जो, खाली रहती उनकी झोली ?
चले गए जो दूर वतन से लेकर सपनों की झोली ।
वो खो गए चमक दमक में, जो रोशन देश कर पाते ।
परदेश के शोर धमक में, क्यूँ अपनी पहचान मिटाते ।
अब भी क्या सताती उनको अपने घर की बोली ॥
चले गए जो दूर वतन से लेकर सपनों की झोली ॥
पर सोचो, जब लौटे ना वो,तो घर में दीप कौन जलाए ?
सूर्य चमकता विज्ञानों का, घर मेंअंधकार है छाए।
माँ की अर्थी को कंधा बस देते हैं हमजोली ॥
चले गए जो दूर वतन से लेकर सपनों की झोली ।
अभी समय है सोचो साथी, मिट्टी का कर्ज चुकाओ ।
जहाँ से पाए पंख उड़ान के, उसी गगन में लौट के आओ।
ऐसा न हो आ न पाओ रह, जाओ यादों की बनकर होली ॥
चले गए जो दूर वतन से सपनों की लेकर झोली।
