हमारी परवरिश एक पर सवाल !

आजकल एक बच्चा बहुत चर्चे में है – जी हां, केबीसी जूनियर के कंटेस्टेंट की बात हो रही है। जिस आत्मविश्वास, या कहें ओवर कॉन्फिडेंस के साथ वह बात कर रहा था, वह उसकी ट्रोलिंग का कारण बन गया। पहली नज़र में कोई भी देखेगा तो यही सोचेगा -“कितना बदतमीज है, मां-बाप ने कुछ सिखाया नहीं !” मुझे भी लगा कि एक 80 वर्षीय व्यक्ति से इस तरह बात करना न सिर्फ़ अशोभनीय था बल्कि असम्मानजनक भी, और वो भी जब सामने अमिताभ बच्चन जैसे महानायक हों।
लेकिन इस लेख का उद्देश्य उस बच्चे या उसके माता-पिता की आलोचना करना नहीं है। हर मां-बाप अपने बच्चे को सबसे अच्छी परवरिश देना चाहते हैं। मेरा मकसद है इस घटना के एक गहरे पहलू पर आपका ध्यान लाना – क्या यह सिर्फ़ उस बच्चे की गलती है, या कहींन कहीं यह हमारे समाज की बदलती सोच का नतीजा है?
याद कीजिए अपना बचपन… जब एक छोटी-सी शरारत या बतमीजी पर भी आपको डांट पड़ जाती थी – चाहे वह पापा हों, चाचा हों, पड़ोसी हों, या घर का नौकर ही क्यों न हो। और अगर कोई डांटता था तो मां-बाप भी उसका समर्थन करते थे —“और मारो, हमारी तो सुनता नहीं।” पर आज हालात उलट गए हैं। अब किसी और के बच्चे को डांटना तो दूर, समझाना भी अपराध बन गया है। अगर कोई पड़ोसी या रिश्तेदार शिकायत करे, तो माता-पिता ही सामने आ जाते हैं – “हमारे बच्चे को कैसे बोल दिया!” स्कूलों में शिक्षक अब डांटने से डरते हैं। बच्चों के पास जनमैत्री छोटी उम्र से ही मोबाइल, स्मार्टवॉच, और स्वतंत्रता है— लेकिन जिम्मेदारी नहीं।
सच है, बच्चे सिर्फ मां-बाप से नहीं, बल्कि अपने आस-पास के माहौल से भी सीखते हैं। संयुक्त परिवारों मेंबच्चे के संस्कार और भी पके होते थे क्योंकि सबकी नज़र रहती थी।
आज उस बच्चे और उसके माता-पिता की ट्रोलिंग देखकर यह तो तय है कि समाज यह जानता है कि इस तरह का व्यवहार गलत है। पर सोचिए –—जब हमारे आसपास ऐसे बच्चे होते हैं, तो हम ही कहते हैं, “अरे,कितना स्मार्ट है ! कितना क्यूट है !” हम ही उन्हें ओवरकॉन्फिडेंस के लिए ताली बजा देते हैं।
