काव्यानुवाद श्रीमद्भगवद्गीता, ग्यारहवाँ अध्याय ( विश्वरूपदर्शनयोग )

राकेश शंकर त्रिपाठी कानपुर

कॉरपोरेट लर्निंग्स

गीता का यह एकादश अध्याय विश्वरूप दर्शन योग के नाम से जाना जाता है। इसमें भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपने विराट रूप का दर्शन कराया है। यद्यपि यह अध्याय आध्यामिकता के गूढ़ प्रभाव से युक्त है किन्तु हमें प्रबंधन की बहुत सी बारीकियाँ को सीखने का, आत्मसात करने का अवसर प्रदान करता है।

1. संशय, शंका का समाधान और लक्ष्य की स्पष्टता:

किसी भी संस्था के प्रगति की लिए उस संस्था के ह्यूमन कैपिटल पर की गुणवत्ता को परिष्कृत करते रहना, यह एक कुशल नेतृत्व की महत्वपूर्ण भूमिका है। उनके संशय का समाधान कर उनको लक्ष्य की सुस्पष्टता से अवगत कराना एक आवश्यक कार्य है। लक्ष्य यदि स्पष्ट है, कार्य की सफलता सुनिश्चित है। संस्था अपने निश्चित दिशा में आगे बढ़े, यह संस्था के प्रमुख का कार्य है। क्योंकि संशय से युक्त पुरुष न तो स्वयं का और न ही संस्था, परिवार, समाज और देश का कल्याण कर सकता है। भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:

………..संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।4.40।।

(संशय आत्मा मनुष्य का पतन हो जाता है उसके लिए न तो यह लोक और वह परलोक हितकारक है और न सुख ही प्राप्त है-स्वामी रामसुख दास जी)

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।6.36।।

जिसकी आत्मा असंयत है, उसे लक्ष्य प्राप्त करना कठिन कार्य है और जिसकी आत्मा उसके वश में है वह लक्ष्य आसानी से प्राप्त कर सकता है।

इसलिए यह हमारे कर्त्तव्य और दायित्व दोनों के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है, शंका और संशय का तुरंत समाधान करें। यह कदम नेतृत्व के प्रति, संस्था के प्रति एक अगाध विश्वास का प्रेरक होगा जोकि संस्था और इसके हितधारकों की सुरक्षा का कारक होगा।

दुविधा से ग्रसित, विषाद से युक्त अर्जुन की शंका, संशय और जिज्ञासा का समाधान भगवान श्री कृष्ण कर रहें हैं और उन्हें अभी तक पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई है। अर्जुन के मन में कई विचार उत्पन्न हो रहें हैं और वे एक प्रशिक्षु की भाँति अपनी समस्या के समाधान में तत्पर हैं। भगवान ने अपनी विभूतियों से अवगत कराया है जिससे अर्जुन की दुविधा कुछ हद समाप्त होती प्रतीत हो रही थी।

इस अध्याय के प्रथम श्लोक में अर्जुन ने यह कहा है कि:

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।।11.1।।
(……… मेरा मोह नष्ट हो गया है)

अर्जुन की श्रद्धा और समर्पण यह प्रदर्शित करता है कि जब उद्देश्य भी स्पष्ट हो तो समस्त लोग पूर्ण समर्पण के साथ कार्य का निष्पादन करते हैं।

2. पारदर्शिता, दृश्यता और विनम्रता:

हम अपनी संस्था के, अपनी टीम के लोगों का विश्वास तभी अर्जित कर सकते हैं जब हम अपने कार्यों, वचनों, व्यवहार और अंत: क्रियाओं में पारदर्शी हों और जिस सिद्धांत का प्रतिपादन कर रहें हों, वह होता हुआ दिखना चाहिए। कथनी और करनी में अन्तर विश्वास को डगमगाती है। क्योंकि यह मानव स्वभाव है और मनोविज्ञान है कि आँखों देखी ही सत्यता की कसौटी पर परखी जाती है।

अर्जुन का मोह कुछ सीमा तक नष्ट हो चुका है किन्तु अभी तक वह संतुष्ट नहीं दिख रहे हैं। यह एक अत्यन्त अद्भुत गुण है कि जब तक हम संतुष्ट न हों, तब तक खोज चलती रहनी चाहिए। ज्ञान और विज्ञान दोनों ही आगे बढ़ते रहते हैं और ग्रुप कैप्टेन शुभांशु शुक्ला जैसे अप्रतिम मानव खोज में सदैव तत्पर रहते हैं।

अर्जुन कहते हैं कि:

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।।
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयाऽत्मानमव्ययम्।।11.3-4।।

(हे पुरुषोत्तम ! आप अपने-आपको जैसा कहते हैं, वह रूप हम देखना चाहते हैं। ऐसा यदि आप समझते हैं कि वह रूप देखा जा सकता है और यदि यह मानते हैं तो दिखा दीजिए।)

यहाँ पर अर्जुन ने विनम्रता पूर्वक प्रभु श्री कृष्ण से निवेदन किया है जिससे हमें एक जिज्ञासु और शिक्षार्थी के गुण को सीखने को प्राप्त होता है। पदानुक्रम की मर्यादा को बनाकर रखना उस पद पर स्थापित व्यक्ति की भूमिका में है।

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।।4.34।।
(साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम, उनकी सेवा और
सरलतापूर्वक प्रश्न करना चाहिए)

और जैसे विभीषण ने “बंदि चरन कह सहित सनेहा” के रूप में कहा।

3. स्वत: संज्ञान और इंफ्रास्ट्रक्चर:

अर्जुन की जिज्ञासा को शान्त करने के लिए, अर्जुन को संतुष्ट करने के लिए अपने परम् रूप को प्रकट करते हैं । और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड, विभिन्न आकृतियाँ, देव, दनुज, आदित्य, वसु, रुद्र आदि आदि इत्यादि और अर्जुन को देखने के लिए कहते हैं। किन्तु अर्जुन अपनी सामान्य आँखों से देखने में अक्षमता को प्राप्त थे। भगवान श्री कृष्ण ने उनकी आवश्यकता को समझते हुए अपने दिव्य चक्षुओं को प्रदान किया जिससे अर्जुन उनके विराट रूप को देख सकें।

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।11.8।।

यह एक कुशल नेतृत्वकर्त्ता का कार्य यह है कि उसे यह पता होना चाहिए कि कार्य की सिद्धि के लिए क्या आवश्यक है और क्या अवरोध है। इन दोनों का निदान ही कार्य को गति प्रदान करता है। इंफ्रास्ट्रक्चर की गुणवत्ता सफलता का पर्याय है। जैसा कि हमने ऑपरेशन सिन्दूर में देखा हम अपनी गुणवत्ता, सटीकता और कुशलता से सफल हुए इसकी लिए नेतृत्व की दूरदर्शिता की भी प्रमुख भूमिका है।

4. कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स:

अर्जुन के अंदर आत्म-विश्वास को पुनः जाग्रत करने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने अपने विराट स्वरूप का दर्शन कराया। श्लोक संख्या 10 से 30 तक अपने संपूर्ण और उग्र रूप के दर्शन दिए। अर्जुन द्वारा यह प्रश्न कि प्रभु आप कौन हैं, मुझे जानने की इच्छा है, के उत्तर में स्वयं के बारे में अवगत कराते हैं। प्रभु के बारे में सम्पूर्ण रूप से जानने के पश्चात् उनकी स्तुति आरम्भ करते हैं, वन्दन करते हैं और नमन करते हैं।

नेतृत्व कर्ता के रूप में भगवान ने अर्जुन को यह अनुभव कराया कि उसे जिस नेतृत्व का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वह अद्वितीय है। वह सक्षम है अपने लोगों के हितों की रक्षा करने में। उन्होंने अर्जुन से कहा कि तुम उठो अपना कार्य करो, यश को प्राप्त करो। राज्य का सुख भोगो क्योंकि यह कार्य हो चुका है, बस तुम्हें निमित्त मात्र बनना है।

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।11.33।।

यह गुण एक संस्था के लिए और एक कुशल नेतृत्व के लिए आत्मसात करने योग्य है। जब नेतृत्व अपने सदस्यों का और संस्था अपने ह्यूमन कैपिटल के हित का ध्यान रखती है, प्रगति निश्चित है क्योंकि ह्यूमन कैपिटल भी संस्था के प्रति, नेतृत्व के प्रति अपना सर्वोत्तम प्रदान करती है।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।3.11।।
(परस्पर सहयोग की भावना )

5. कोई भी अपरिहार्य नहीं:

प्रबंधन का एक सिद्धांत यह भी है कि सम्पूर्ण रूप से सभी आवश्यक हैं किन्तु व्यक्तिगत रूप में कोई भी अपरिहार्य नहीं है। यदि ऐसा होता है तो जोखिम की संभावनायें अधिक होती हैं जिसके मिटिगेशन के लिए सदैव जागरूकता और अनिवार्यता उपलब्ध होनी चाहिए।

भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि यदि तुम युद्ध नहीं करते हो तो भी ये प्रतिपक्षी योद्धा लोग नहीं रहेंगे।

कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।।11.32।।

इसलिए तुम उठो और यश को प्राप्त करो।

6. स्टिक एंड कैरेट पॉलिसी:

यह पॉलिसी प्रबंधन में मोटिवेशनल टूल के रूप में प्रयुक्त होती है। हम कैरेट का प्रयोग वांछित व्यवहार को प्रोत्साहित करने के लिए करते हैं तथा स्टिक का प्रयोग अवांछित व्यवहार को रोकने के लिए करते हैं। अर्जुन देखते हैं कि कुछ लोग भयभीत होकर भाग रहें हैं और कुछ लोग कीर्तन वन्दन कर रहे हैं।

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत् प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः।।11.36।।

नेतृत्व का धर्म है कि अच्छे लोगों को प्रोत्साहित करे और अवांछित व्यवहार को हतोत्साहित करे।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् 4.8।।

किसी भी संस्था, समाज और देश के लिए दण्ड नीति भी प्रबल होनी चाहिए, बिना दण्ड नीति के रूल ऑफ लॉ का सिद्धांत सफल नहीं होता। भगवान ने कहा है कि “दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।10.38।। (दमन करनेवालोंमें दण्डनीति और विजय चाहने वालों में नीति मैं हूँ।)

7. गलती की अभिस्वीकृति:

कहते हैं कि “न जाने किस वेष में बाबा मिल जाएं”। इसका तात्पर्य यह है कि हमारा व्यवहार, आचरण और विचार सदैव अनुकूल सोच के साथ होने चाहिए क्योंकि गम्भीर व्यक्तित्व, गम्भीर नेतृत्व कभी भी अपनी महिमा का, अपने गुणों को प्रदर्शित नहीं करता। उसको और उसके गंभीरता को समय पर ही परखा जाता है। अर्जुन भगवान श्री कृष्ण को एक सामान्य व्यक्तित्व समझ कर, उनकी सरलता और सहजता से भ्रमित होकर एक सखा के समान व्यवहार कर रहे थे, कोई भी औपचारिकता की रेखा नहीं थी। किन्तु विश्वरूप दर्शन के पश्चात् उन्हें अपनी गलतियों का आभास हुआ और उसकी अभिस्वीकृति कर क्षमा याचना के लिए प्रार्थना की।

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं, हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं, मया प्रमादात्प्रणयेन वापि।।
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि, विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं, तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्।।11.41-42।।

8. लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण:

जो व्यक्ति, संस्था, समाज, राष्ट्र अपने मिशन, विजन, लक्ष्य के प्रति सदैव समर्पित है, उसी के लिए कर्म करता है, उसी के प्रति जीता है, उसी को प्राप्त करना चाहता है सभी हितधारकों के हितों को ध्यान में रखते कर्म की प्रक्रिया पर सम्पूर्ण ऊर्जा को केंद्रित करता है, वह इकाई मुझे अर्थात् लक्ष्य को निश्चित प्राप्त करती है।

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।11.55।।

9. इमोशनल इंटेलीजेंस एवं सामानुभूति:

एक कुशल एवं सफल नेतृत्व के लिए इन दोनों गुणों का होना अत्यावश्यक है। कहते हैं कि जिंदगी में सफलता प्राप्त करने के लिए आईक्यू से ज्यादा ईक्यू का होना अत्यावश्यक है।

भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन की भावनाओं को, उनके विचारों को, उनकी समस्याओं को समझने का प्रयास किया और उनके दृष्टिकोण को समझते हुए उनके अनुरूप समाधान भी प्रस्तुत किया। इस प्रक्रिया में वे अपने स्वयं को उनके परिप्रेक्ष्य में रखकर, स्वयं को सकारात्मक रूप से प्रस्तुत कर, सम्बन्धों और संवादों को स्थापित रखते हुए प्रेरणा को प्रदान किया।

कॉरपोरेट नेतृत्व को सदैव अपने ईगो से दूर रहकर, नैतिक मूल्यों के अंतर्गत निर्णयों को निष्पादित करना चाहिए जिससे कि उन्नति एवं वृद्धि के साथ-साथ दीर्घकालिक एवम् समग्र रणनीति सार्थक हो सकें।

अर्जुन उवाच

उपकृत करने के लिये, बतलाये जो गूढ़।
गोपनीय अध्यात्म से,स्वस्थ हुई मति मूढ़।।
मोह नष्ट हो दूर है, सिर्फ आप हैं व्याप्त।
हूँ कृतज्ञ मै आपका, कृपा आपकी प्राप्त।।1

कमलनयन ! विस्तार से, सुना कथन सम्पूर्ण।
सृजन प्रलय के विषय से, ज्ञान हुआ परिपूर्ण।।
अक्षय महिमा आपकी, अविनाशी माहात्म्य।
अनुभव मैंने है किया, होता जब तादात्म्य।।2

जैसा कहते आप हैं, वैसा दिखे प्रताप।
इच्छा पर उस रूप की, हे परमेश्वर आप।।
पुरुषोत्तम मैं चाहता, देखूँ सब मैं शौर्य।
ज्ञान-शक्ति-बल-वीर्य औ, तेज युक्त ऐश्वर्य।।3

ऐसा यदि हैं मानते, दें दर्शन अधिकार।
हे प्रभु! क्या मैं कर सकूँ, दर्शन वह साकार।।
दर्शन का अभिलाष मैं, मैं देखूँ वह रूप।
योगेश्वर जो दिव्य है, अव्यय रूप स्वरुप।।4

श्री भगवानुवाच

देखो तुम हे पार्थ अब, देखो रूप अनेक।
विविध रंग के रूप हैं, देखो तुम प्रत्येक।।
आकृति विविध प्रकार के, शतशो कई हजार।
दिव्य अलौकिक रूप हैं, देखो बारम्बार।।5

बारह हैं आदित्य सब, ग्यारह रुद्र प्रमान।
आठों वसुओं देख लो, दो अश्विन गुणवान।।
देख मरुत उनचास को, और अनेकों रूप।
पूर्व कभी देखा नहीं, अचरज भरे स्वरूप।।6

गुडाकेश ! तुम देख लो, सभी चराचर पूर्ण।
एक जगह ब्रह्मांड है, देख जगत सम्पूर्ण।।
जो कुछ भी तू चाहता, देखो और स्वरूप।
भूत भविष भी देख लो, देखो रूप अनूप।।7

नेत्रों से अपने मुझे, सकता नहीं है देख।
बिन देखे कैसे दिखे, मेरा जो आलेख।।
दिव्य अलौकिक चक्षु ले, देखो मेरा रूप।
ईश्वरीय सामर्थ्य को, देखो विश्व स्वरूप।।8

सञ्जय उवाच

ऐसा कहकर कृष्ण प्रभु, योगेश्वर भगवान।
हे राजन फिर पार्थ को, हुआ प्रभू का ज्ञान।।
दिखलाया वह रूप जो, ऐश्वर रूप विराट।
अद्भुत और अलौलिकम्, खुलता हृदय कपाट।।9

बहुत नेत्र-मुख युक्त हैं, अद्भुत है दृष्टव्य।
वह विराट है रूप जो, दिखे अलौकिक भव्य।।
आभूषण सब दिव्य हैं, आयुध दिव्य सशस्त्र।
दिव्य अलौकिक दिख रहे, सभी विभूषित वस्त्र।।
धारण माला वस्त्र हैं, दिव्य गंध का लेप।
कुमकुम चंदन आदि के, लगे शरीर प्रलेप।।
लगे ललाट शरीर पर, कुंकुम चंदन भव्य।
देखा रूप अनंत को, भव्य रूप दृष्टव्य।।
चकित रूप है कर रहा, अमित रूप ऐश्वर्य।
मुख ही मुख चारों तरफ, परम देव आश्चर्य ।।10-11

एक साथ आकाश में, उगते सूर्य हजार।
वह प्रकाश ना हो सके, जो प्रकाश उजियार।।
सदृश नहीं है परम का, अनुपम दिव्य प्रकाश।
वे विराट प्रभु परम हैं, वे विराट अविनाश।।12

एक जगह है दिख रहा, दिखे जगत सम्पूर्ण।
उस शरीर में दिख रहा, विश्व पूर्ण परिपूर्ण।।
कई विभागों में बँटे, देखे कई अनन्त।
विश्वरूप प्रभु देह में, कई जगत जीवन्त।।13

बहुत चकित हो देखता, विश्वरूप अभिराम।
रोमांचित हो सिर झुका,अर्जुन करें प्रणाम।।
श्रद्धा सहित व भक्ति से, हाथ जोड़ सम्मान।
मस्तक को वे हैं झुका, बोले वचन महान।।14

अर्जुन उवाच

देख रहा प्रभु आपके, तव शरीर सब दैव।
भूतों के समुदाय भी, विविध विशेष तदैव।।
कमलासन आसीन हैं, ब्रह्मा हैं दृष्टव्य।
दिखते भव्य महादेव औ ऋषि सभी,
दिव्य सर्प सब भव्य।।15

विश्वरूप प्रभु विश्व के, देख रहा प्रति क्षेत्र।
हाथ-पेट-मुख-आँख जो, फैले हैं सर्वत्र।।
आदि-अंत औ मध्य जो, ईश्वर रूप अनन्त।
हे विश्वेश्वर आप ही, हैं विराट अत्यंत।।16

गदा-किरीटिन शंख औ, पद्म-चक्र को धार।
तेज राशि है कर रही, दीप्त जगत संसार।।
दीप्यमान हैं अग्नि सम, सूर्य सदृश है कान्ति।
कठिन रूप से देखता, दूर होत है भ्रान्ति।।
असीम अपार अपरिमित, तेजोमय सर्वत्र।
भूषित रूप स्वरूप हैं, आप पुनीत पवित्र।।17

परमाक्षर प्रभु आप हैं, आश्रय परम निधान।
रक्षक हैं प्रभु धर्म के, शाश्वत धर्म महान।।
अविनाशी प्रभु आप हैं, पुरुष सनातन आप।
आश्रय हैं सब विश्व के, आप प्रभाव प्रताप।।18

आदि अंत औ मध्य से, रहित आप प्रभु आप।
शक्ति प्रभाव अनंत औ, तेज अपार प्रताप।।
सूर्य-चन्द्र सम नेत्र ये, अनगिन भुजा अनन्त।
अग्निरूप मुख प्रज्वलित, तपता जगत ज्वलंत।।19

अंतराल सब आप से, द्यावा पृथ्वी मध्य।
सभी दिशा परिपूर्ण हैं, प्रभू आप सर्वज्ञ।।
देख अलौकिक रूप को, जो है यह विकराल।
तीन लोक अति व्यथित हैं, पृथ्वी-द्यौ-पाताल।।20

सभी हो रहें आप में, सभी देव समुदाय।
होते सभी प्रविष्ट हैं, होकर के असहाय।।
होकर के भयभीत वे, करते कीर्तन ध्यान।
अर्चन वन्दन आपका, कीर्ति गान गुणगान।।

सिद्धों और महर्षियों, के जो हैं समुदाय।
हो मंगल कल्याण हो, गाते हैं निरुपाय।।
उत्तम उत्तम मंत्र से, करें सभी गुणगान।
गाते सब समुदाय हैं, माँगें सब कल्यान।।21

आदित्य रुद्र वसु यक्ष औ, और पितर गंधर्व।
सिद्ध असुर समुदाय सब, विश्वदेव सब सर्व।।
मरुत ऊष्मपा पितृगण, दो अश्विन समुदाय।
चकित होत सब देखते, वे सब हैं असहाय।।22

बहुत नेत्र मुख बहुत औ, बहुत भुजा बहु जाँघ।
बहुत विलक्षण दीखता, भय को सके न लाँघ।।
बहुत चरण बहु उदर भी, दाढ़ बड़े विकराल।
बहु विचित्र इस रूप से, सब हैं अति बेहाल।।
व्यथित सभी हैं हो रहे, मैं भी हूँ भयभीत।
महाबाहु ! व्याकुल सभी, देखूँ रूप पुनीत।।23

स्पर्श आप हैं कर रहे, फैला जो आकाश।
ज्योतिर्मय सब वर्ण हैं, दीपित होत प्रकाश।।
मुख फैला है आपका, सुंदर नेत्र विशाल।
दीपित होत प्रदीप्त सब, मैं हूँ पर बेहाल।।
होता मैं भयभीत हूँ, धीरज धैर्य विलुप्त।
व्याकुल है अंत: करण, शान्ति हो गई लुप्त।।24

प्रलयकाल की अग्नि सा, ज्वलित मुखों को देख।
विकराल दाँत लगते मुझे, भय की खिंचती रेख।।
मोह ग्रस्त मैं हो रहा, गया दिशायें भूल।
चिन्ता से मैं ग्रस्त हूँ, दिग्भ्रम भय सा शूल।।
शान्ति मुझे ना मिल रही, सुख ना रहता पास।
जगनिवास देवेश प्रभु, हों प्रसन्न ! यह आस।।25

सभी पुत्र धृतराष्ट्र के, राजा सब समुदाय।
घुसते वे विकराल मुख, में सब हैं असहाय।।
भीष्म-द्रोण औ कर्ण हैं, मेरे योद्धा वीर।
बड़े वेग से दौड़ कर, करें प्रवेश अधीर।।
चूर्णित होते देखता, दाँत बीच सब शीश।
फँसे हुये हैं दाढ़ में, शीश दाढ़-जगदीश।।26-27

जैसे नदियों का बहुत, जल प्रवाह आवेग।
दौड़ें सागर ओर वे,अभिमुख यह संवेग।।
वैसे ही संसार के, वीर समस्त महान।
शूर वीर हैं कर रहे, मुख को ही प्रस्थान।।

दीप्तिमान है आपका, आनन कई प्रकार।
ज्वलित मुखों में कर रहे, योद्धा कई हजार।।28

जैसे जलते अग्नि में, दौड़ें करें प्रवेश।
मोहित होकर मुग्धवश, होकर भावावेश।।
स्वाहा होते मुग्ध हो, करें स्वयं का नाश।
सभी पतंगे नष्ट हो, मिलता उन्हें विनाश।।
वैसे ही इन लोग में, मोहजनित उद्वेग।
जाते मुख में आपके, है प्रविष्टि अति वेग।।29

ज्वलित मुखों से आप जो, करते हैं ग्रसमान।
निगल रहे सब लोक को, काल रूप प्रतिमान।।
सभी ओर से प्रभु उन्हें, चाट रहें हैं आप।
हे विष्णो प्रभु आपका, दिखता हमें प्रताप।।
उग्र भयंकर आपका, है प्रकाश अति तेज।
झुलस रहा ब्रह्माण्ड है, जगत व्यथित निस्तेज।।30

हे देवों में श्रेष्ठ प्रभु, करता नमन प्रनाम।
उग्र रूप है आपका, जानूँ नाम सुनाम।।
परिचय अपना दीजिये, उत्कट रूप प्रचण्ड।
तत्त्व रूप से जान लूँ, अद्भुत रूप अखण्ड।।
आदिपुरुष मैं आपकी, जानूँ नहीं प्रवृत्ति।
हो प्रसन्न बतलाइये, तत्त्व ज्ञान अभिवृत्ति।।31

श्री भगवानुवाच

बढ़ा हुआ मैं काल हूँ, महाकाल मैं काल।
ध्येय हमारा इस समय, नष्ट सभी तत्काल।।
महाकाल सब लोक का, मैं ही करूँ विनाश।
उद्यत हूँ सब नष्ट हो, इन लोकों का नाश।।
करने को संहार मैं, आया बन कर काल।
तुझे छोड़कर ना बचें, सबका अन्त: काल।।
प्रतिपक्ष तुम्हारे वीर जो, नहीं रहेंगे पार्थ।
युद्ध करो या ना करो, जानो यही यथार्थ।।32

इसीलिये तुम अब उठो, करो युद्ध संग्राम।
प्राप्त करो यशकीर्ति को, मिले नया आयाम।।
सभी शत्रु को जीतकर, प्राप्त करो सर्वस्व।
जीतो भोगो राज्य को, पाओ यश-वर्चस्व।।
मेरे हाथों मर चुके, पहले सभी समस्त।
साची-सव्य निमित्त बन, होकर के आश्वस्त।।33

मेरे द्वारा मर चुके, भीष्म द्रोण औ कर्ण।
जयद्रथ वीर बहुत से, मारे गये विकर्ण।।
मारो वैरी को यहाँ, युद्ध करो भयहीन।
जीतोगे निश्चित यहीं, होओ मत गमगीन।।34

 

सञ्जय उवाच

केशव के इन वचन को, सुनकर बोले पार्थ।
हाथ जोड़ भयभीत हो, करे प्रणाम कृतार्थ।।
भय से अति भयभीत था, फिरसे करे प्रणाम।
गद् गद् होकर बोलता, करे कृष्ण अभिराम।।35

अर्जुन उवाच

अन्तर्यामी हे प्रभू, लीला तव है व्याप्त।
हर्षित होता जगत है,अनुराग प्रेम को प्राप्त।।
नाम आपके श्रवण से,जन जीवन सम्पूर्ण।
कीर्तन वंदन सब करें, जगत हर्ष परिपूर्ण।।
सभी असुर हैं भागते, होकर सब भयभीत।
सिद्ध करें अर्चन सभी, करते बात पुनीत।।36

गुरुओं के भी हैं गुरू, ब्रह्मा के भी आदि।
नमस्कार क्यों ना करें, सिद्ध सभी इत्यादि।।
अक्षर रूप स्वरूप हैं, सत् चित् आनँद आप।
असत् आप भी हैं प्रभू, सत् भी आप प्रताप।।37

आदिदेव प्रभु आप हैं, आप हि पुरुष-पुरान।
आश्रय हैं इस जगत के, जानन योग्य महान।।
परम धाम प्रभु आप हैं, रूप अनंत विशाल।
यह संसार है व्याप्त जो, आप से प्रभू कृपाल।।38

वायु-अग्नि औ चंद्र भी, दक्ष-वरुण हैं आप।
यम भी हैं प्रपितामह:, आदि जीव हैं आप।।
नमस्कार प्रभु आपको, बारम्बार हजार।
बार बार मैं कर रहा, नमस्कार प्रति बार।।39

आगे से मैं हूँ करूँ, नमस्कार कइ बार।
पीछे से भी है प्रभू, करें नमन स्वीकार।।
सभी दिशाओं से करुँ, नमस्कार प्रतिबार।
पराक्रमी प्रभु आप को, पूजूँ बारम्बार।।
हे अनन्त सामर्थ्य हे, हे असीम बलवान।
सभी समेटे आप हैं, विष्णो कृपा निधान।।40

हे यादव हे सखा हे, कृष्ण सखा भगवान।
सखा मानकर जो कहा, महिमा से अनजान।।
हठ से या प्रभु प्रेम से, था प्रमाद अज्ञान।
इस प्रकार जो भी कहा, नहीं मुझे था ज्ञान।।41

चलते-फिरते-जागते, सोते-उठते-बैठ।
हँसी-दिल्लगी की प्रभू, हे अच्युत ! हे श्रेष्ठ।।
खाने पीने के समय, और कभी एकांत।
किया नहीं आदर प्रभू, जीवन था दिग्भ्रांत।।
सब कटुम्ब के सामने, नहीं किया सम्मान।
क्षमा चाहता मैं प्रभू, किया अगर अपमान।।42

विश्व चराचर जगत के, पिता आप ही आप।
गुरुओं के गुरु आप हैं, पूजनीय प्रभु आप।।
हे अनन्त त्रैलोक में, और नहीं है कोय।
हे भगवन् ना आप सा, नहीं अधिक ना होय।।43

पूजनीय प्रभु आप हैं, हों प्रसन्न प्रभु आप।
काया को प्रणिधाय कर, करूँ प्रणाम प्रताप।।
जैसे सहता है पिता, पुत्र कृत्य अपमान।
मित्र-धृष्टता है सहे, मित्र कृत्य अज्ञान।।
जैसे पति है सह सके, पत्नी से अपमान।
मेरे सब अपराध को, मिले क्षमा का दान।।44

कभी न देखा आपका, पहले ऐसा रूप।
हर्षित होता देखकर, ऐसा दिव्य स्वरूप।।
भय से होता मन व्यथित, व्याकुल हूँ भयभीत।
देवरूप दिखलाइये, जगनिवास हे मीत।।
देवों के देवेश हे, कटे मिटे संताप।
क्षमा करें मुझको प्रभू, हों प्रसन्न प्रभु आप।।45

धारित गदा किरीट औ, चक्र हाथ में साथ।
देखूँ वैसा रूप प्रभु, दिखलाओ हे नाथ।।
रूप चतुर्भुज वह दिखे, बाहु-सहस्त्र! विशाल।
इच्छा मेरी पूर्ण हो, विश्व रूप ! गोपाल।।46

श्री भगवानुवाच

योग-शक्ति सामर्थ से, दिखलाया यह रूप।
आदि अनन्त विराट जो, श्रेष्ठम् तेज अनूप।।
देखा ना यह और है, दिव्य अनूप स्वरूप।
है दिखलाया ये तुझे, प्रथम बार यह रूप।।47

मनुज लोक में इस तरह, प्रकट नहीं यह रूप।
ना वेदों के पाठ से, अनुष्ठान-अभिरूप।।
यज्ञों से भी प्राप्त ना, हो शास्त्रों का ज्ञान।
हो अध्ययन विराट भी, ना दर्शन यह जान।।
कठिन ताप ना दान से, नहीं क्रिया पर्याप्त।
तुझे छोड़ के और को, यह दर्शन ना प्राप्त।।48

विचलित मोहित हो गये, देख भयानक रूप।
व्यथा मूढ़ से दूर हो, भय से मुक्त स्वरूप।।
चिन्ता छोड़ो प्रीति से, दर्शन कर नि:स्वार्थ।
शंख-चक्र-है पद्म औ, गदा-युक्त मैं पार्थ।।49

सञ्जय उवाच

अर्जुन से हैं कह रहे, वासुदेव भगवान।
दिखलाता वह रूप हूँ, जिससे हो कल्यान।।
दिखलाया फिर कृष्ण ने, दिव्य चतुर्भुज रूप।
अद्भुत मोहक रूप जो, सुन्दर परम अनूप।।
पुनः सौम्य होकर प्रभू, कहे दूर हो भीत।
धैर्य बँधाया पार्थ को, द्विभुज बन मनमीत।।50

अर्जुन उवाच

प्राप्त जनार्दन आपके, सौम्य रूप का लाभ।
मनुज रूप को देखकर, आप रूप अमिताभ।।
शान्तचित्त मैं हो गया, प्रकृति स्वयं की प्राप्त।
दिव्य अलौकिक रूप है, दिल में मेरे व्याप्त।।51

श्री भगवानुवाच

मेरा यह जो रूप है, देखा तुमने आज।
दर्शन दुर्लभ हैं सदा, सदा रहा है राज।।
देखन को इस रूप को, लालायित हैं देव।
नित्य प्रतीक्षा कर रहे, मिलें चतुर्भुज देव।।52

जिस प्रकार देखा मुझे, नहीं रूप उपलब्ध।
ना तप से ना ज्ञान से, नहीं किसी प्रारब्ध।।
ना मिलता हूँ यज्ञ से, नहीं प्रभावी दान।
दर्शन मेरा तब मिले, मेरी भक्ति निदान।।53

हे अर्जुन हे परन्तप, एक तत्व का ध्यान।
भक्ति-अनन्या तत्व से, मिले चतुर्भुज ज्ञान।।
इस विधि से ही कर सके, साधक दर्शन प्राप्त।
प्राप्त कर सके वह मुझे, भक्ति अनन्या व्याप्त।।54

हे पाण्डव जो है करे, मम निमित्त सब कर्म।
मुझमें तत्पर है सदा, निरत भाव ही धर्म।।
भक्त मुझे वह प्राप्त है, रहे भाव तल्लीन।
कर्म करे मेरे लिये, मुझमें तत्पर लीन।।
मेरा ही प्रेमी रहे, आसक्ति रहित हो भाव।
वैर भाव से है रहित वह, पाता मम सद्भाव।।55

Layer 1167

Author