सम्पादक की ओर से

प्रदीप शुक्ल

संस्कृति और स्वतंत्रता का उत्सव

आज स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर गर्व की अनुभूति हो रही है। स्वतंत्र भारत आज दुनिया भर में चर्चा का विषय बना हुआ है। हमारे हर कदम पर दुनिया वालों की नजरें टिकी हुई हैं। हमने हर क्षेत्र में विकास के सोपान पार किए हैं। ज्ञान-विज्ञान, उद्योग-व्यापार-आर्थिक क्षेत्र के साथ ही युद्ध तकनीक के कौशल में भी तेज रफ्तार से आगे बढ़ रहे हैं। हमारी मेधा-प्रतिभा-हुनर की विश्‍व में कद्र हो रही है, मगर संस्कृति के क्षेत्र में हमें आत्मचिंतन करने की जरूरत है। यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या हम ‘गुलामी’ की मानसिकता वाली संस्कृति के शिकार नहीं होते जा रहे? क्या सांस्कृतिक धरातल पर आजाद हो सके हैं? क्या यह सच नहीं कि हमारी सांस्कृतिक मानकों पर लगातार हमले हो रहे हैं? आज की पीढ़ी, जो मुख्य रूप से अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली तथा पश्‍चिमी प्रभाव में पली-बढ़ी है, धीरे-धीरे अपनी जड़ों से कटती जा रही है। 1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद हमारी यह जिम्मेदारी थी कि हम एक स्वदेशी, भारतीयता में रचा-बसा शिक्षातंत्र अपनाएं, जो हमें हमारी संस्कृति से जोड़कर रखे, मगर अफसोस, ऐसा नहीं हुआ। जो शिक्षा प्रणाली अंग्रेजों ने अपनी सोच के अनुसार गढ़ी थी, वही जारी रही। असल मकसद सिर्फ भारतीय संस्कृति पर प्रहार करना है। और यह समझना जरूरी है कि यह सब यूं ही नहीं हो रहा-यह एक लंबी मानसिक और सांस्कृतिक लड़ाई का हिस्सा है।

भारतीयता दुनिया की सबसे सहिष्णु और समावेशी संस्कृति है। हमने सदियों से हर धर्म, हर जाति, हर परंपरा का सम्मान किया है। यहां यहूदी, पारसी, मुस्लिम, ईसाई सबको शरण और सम्मान मिला। लेकिन अब समय आ गया है कि हम भी अपनी संस्कृति के सम्मान के लिए आवाज उठाएं।

हमारे त्योहारों की जड़ें इतिहास और अनुभव की मिट्टी में गहरी धंसी हैं। ये सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक एकजुटता, दान, सेवा और नैतिक शिक्षा के माध्यम हैं। दीपावली अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक है, होली रंगों के साथ रिश्तों को ताजगी देने का अवसर है, रक्षाबंधन भाई-बहन के स्नेह का उत्सव है, और नवरात्रि शक्ति और साहस की पूजा है।

हर त्योहार के पीछे एक कहानी है-एक सीख है। दीपावली हमें सिखाती है कि कठिनाई कितनी भी हो, सच्चाई और अच्छाई अंत में जीतती है। होली हमें जात-पात और भेदभाव की दीवारें तोड़ने का संदेश देती है। रक्षाबंधन सिर्फ उपहार नहीं, बल्कि सुरक्षा और विश्वास का वचन है। ईद रोज़ा और त्याग के बाद मिलने वाली खुशी और साझा करने का भाव है। क्रिसमस प्रेम, करुणा और सेवा का पर्व है। इनका मजाक उड़ाना, दरअसल अपने ही अतीत और पहचान को नकारना है।

सोशल मीडिया के मौजूदा दौर में, हम सभी के हाथ में एक शक्तिशाली हथियार है-‘शेयर’ बटन। हम चाहें तो अच्छाई, प्रेरणा और सकारात्मक संदेश फैला सकते हैं, या फिर अनजाने में अपनी संस्कृति के खिलाफ जहर घोल सकते हैं। अगर कोई त्योहार या परंपरा का मजाक बनाकर संदेश भेजता है, तो उसका हिस्सा मत बनिए। न तो उसे शेयर कीजिए, न लाइक कीजिए। वहीं रोक दीजिए। हाँ, अगर संभव हो, तो तर्क और शांति से समझाइए कि यह गलत है।

आज के युवाओं के सामने दो रास्ते हैं- विघटनकारी सोच का हिस्सा बनना, जो हमें अपनी संस्कृति, इतिहास और परंपराओं से दूर ले जाती है। संगठित और सशक्त भारत का निर्माण- जो अपनी जड़ों से जुड़ा हो, और आधुनिकता के साथ-साथ परंपरा को भी संजोए रखे। चुनाव आपके हाथ में है। याद रखिए, आधुनिक होना परंपरा को छोड़ना नहीं है। आधुनिकता और संस्कृति साथ-साथ चल सकती हैं।

त्योहार सिर्फ छुट्टी का बहाना नहीं हैं। ये हमें हमारी पहचान से जोड़ते हैं, हमें परिवार और समाज के करीब लाते हैं और हमारे जीवन में आनंद, रंग तथा उमंग भरते हैं। इन्हें मजाक का विषय बनाना, हमारे अपने अस्तित्व का अपमान है।

आइए, हम संकल्प लें कि हम किसी भी त्योहार का मजाक उड़ाने वाले संदेश को आगे नहीं बढ़ाएंगे। हम अपनी परंपराओं का सम्मान करेंगे और अगली पीढ़ी को भी यह सम्मान सिखाएंगे। हम आधुनिकता को अपनाएंगे, लेकिन अपनी जड़ों से जुड़े रहेंगे। याद रखिए कि संस्कृति वहीं जीवित रहती है, जिसे उसके लोग सम्मान देते हैं। एक मजबूत, सम्मानित संस्कृति ही एक सशक्त राष्ट्र की नींव होती है।

धन्यवाद
प्रदीप शुक्ल

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