मीत

डॉ. दुर्गेश कुमार शुक्ल, प्रयागराज

कुछ प्रसंग जीवन में आये, बन कर याद अतीत हो गये,
परिचय गाढ़ा हुआ किसी से आगे चल कर मीत हो गये,
मीत प्रीति के आलिंगन में वर्षा ऋतु का गीत हो गया,
पत्थर-पत्थर नाम हमारा गढ़वाली संगीत हो गया,
जब भी हमने शाम अंधेरे उसका नाम पुकारा था,
स्थिर नदियां चीख रहीं थीं वह घनश्याम तुम्हारा था,
रुक्मणि उसकी सांसें थी पर प्राण तो उसकी राधा थी,
जग तो पूरा श्याम ही था पर मीरा तो उसकी आधा थी,
तुम रहो कहीं भी हे मोहन तेरी सबको अभिलाषा है,
राधा प्रेममूर्ति है जीवित मीरा स्वयं प्रेम की भाषा है।
घन घिरे दुखों के कारे हों दिशि दस में भरी निराशा हो,
हे कृष्ण तुम्हारी अरुण रश्मि ही जन गण की आशा हो,
वृंदावन की कुंज गली संग पत्ते पत्ते मन मीत हो गए,
प्रेमपाश में बंधे देख जन काल पाश भयभीत हो गए,
कुछ प्रसंग जीवन में आये, बन कर याद अतीत हो गये,
परिचय गाढ़ा हुआ किसी से, आगे चल कर मीत हो गये।

प्रकृति का श्रेष्ष्ठ सृजन

इंसान

शिव सेवक त्रिपाठी (अकेला)

इंसा तू धरती की जान,
मानव धरती का भगवान;
अन्न उगाता बाग सजाता,
सबको देता अन्न का दान;
इंसा तू धरती की जान।

भोजन में भी कितने हिस्से,
कुत्ता, बिल्ली, कौआ, गाय;
सबका हिस्सा तुझसे आय,
प्रकृति में छोटा हो या महान;
सब में प्रेम तुझी से जान,
श्रद्धा है तेरी बलवान;
पत्थर पूजे डाले प्रान,
इंसा तू धरती की जान;
मानव धरती का भगवान।

तू अदम्य साहस की खान,
दुर्गम कोई कार्य न जान;
छोटा, बड़ा सभी का मान,
माँ जैसे सबका सम्मान;
इंसा तू धरती की जान,
मानव धरती का भगवान।