किंकर्तव्यविमूढ़ता

जीवन का आपाधापी से, कितना गहरा नाता है।
अब निर्द्वन्द्व नहीं है जीवन, पग-पग पर कठिनाई है।
काम बिगड़ते ज्यादा जिससे, होती नित रुसवाई है।

कैसे मिले सफलता अब तो, उलझन मन में बसी हुई,
लक्ष्य सिद्धि के बिना आजकल, कुछ भी नहीं सुहाता है।

तरह-तरह के द्वेष बढ़ाती, जाति धर्म की खाई है।
संदेहों की मन में सबने, काई आज जमाई है।

दूरी नहीं पाटते अब तो, हवा अग्नि को सब देते,
प्रेम-भाव से रहना अब तो, नहीं किसी को भाता है।

बात-बात में झगड़े होते, आपस में विश्वास नहीं।
बिना स्वार्थवश दीन-दुखी के, जाता कोई पास नहीं।

गिद्ध बने बैठे कितने ही, करें प्रतीक्षा दम साधे,
घटनाओं से लाभ उठाना, बस इतना ही आता है।

जीवन का आपाधापी से, कितना गहरा नाता है।
प्रतिदिन झेलें द्वंद्व अनेकों, मन विचलित हो जाता है।

मौत एक सुहाना सफर

था मै नींद और मुझे सजाया जा रहा था,
बड़े प्यार से मुझे नहलाया जा रहा था।
ना जाने था वो कौन सा अजीब खेल मेरे घर में,
बच्चों की तरह मुझे कंधे पर उठाया जा रहा था।
था पास मेरे हर अपना उस वक्त,
फिर भी हर किसी के मन से मैं भुलाया जा रहा था।
जो कभी देखते भी न थे मोहब्बत की निगाहों से,
उनके दिल से भी प्यार मुझ पर लुटाया जा रहा था।
मालूम नहीं क्यों हैरान था हर कोई मुझे सोता देख,
ज़ोर-ज़ोर से रो-रो कर मुझे जगाया जा रहा था।
कांप उठी मेरी रूह वो मंज़र देखकर,
जहाँ मुझे हमेशा के लिए सुलाया जा रहा था।
मोहब्बत की इम्तहां थी जिन दिलों में मेरे लिए,
उन्हीं दिलों के हाथों आज मैं जलाया जा रहा था।।

स्तुति : श्री शनि देव

सूर्य पुत्र शनिदेव, मेरी पीर हरण कर दे।
हे तेज़पुत्र शनिदेव, निज दया दृष्टी कर दे।
हे ........

तेरी भृकुटि निराली है, तेरी आँख में लाली है।
तू सबसे बलशाली, जैसे माता काली है।
कर-कमलों में छूकर, मेरा मन निर्मल कर दे।
हे........

तू रौद्र-रूप धारी, वाहन भैंसा काला।
तन है तेरा काला, और नयनों में ज्वाला।
मेरे सारे दुर्गुणों का, संहार जरा कर दे।
हे........

तूने करुणामयी माता, है छाया-सी पायी।
तू अतुलित बलशाली, यम का छोटा भाई।
बल, विद्या, धन तीनों, हर घर-घर में भर दे।
हे........

तूने कृपा-दृष्टी अपनी, जिस जिस पर भी डाली।
तन-मन के कष्ट मिटें, और आयी खुशहाली।
हे सूर्यपुत्र मेरा, तू भाग्य प्रबल कर दे।
हे........

तिल, तेल, पुष्प से हम, तेरा पूजन करते हैं।
और चरणों में तेरे, नित वंदन करते हैं।
तू दयाशील है प्रभु, मेरी बुद्धि विमल कर दे।
हे........

मैं थका हुआ हूँ प्रभु, मुझे प्यार जरा दे दे।
उपकृत मुझको कर दे, उपहार मुझे दे दे।
कुछ ज्ञान मुझे दे दे, धन-धान्य मुझे दे दे।
हे........

अपना साथ नहीं चोरो

मत छोड़ो अपना साथ,
न तोड़ो खुद का विश्वास;
किसी से फिर आशा क्या,
जब थामा नहीं अपना ही हाथ...

औरों से बेशक रख ताल्लुक,
ख़ुद से भी तो रिश्ता निभा;
अपनों का भी रख ख्याल,
दुनिया की कर मत परवाह...

जब कोई रिश्ता यूं ठुकराएगा,
अंदर तक तू बिलकुल टूट जायेगा;
साथ होगा खुद का तब अगर,
धोखा भी फिर मौका बन जाएगा...

पथिक

समय चलता है चलता ही रहेगा,
ना कभी थमा है ना कभी थमेगा।
तू भी चलता चल अपने पथ पथिक,
एक दिन मंजिल तू भी पहुंचेगा।

भोर के तारे तुम्हें बुलाते हैं,
नदियों की लहरें राह दिखाती हैं।
क्यों तू हिम्मत हार, बैठ गया;
चलता चल, ये पगडंडियां तुम्हें बुलाती हैं।

माना राह कठिन है बहुत,
पर चलना भी हर पल पड़ेगा।
क्यों बुझ सा गया है तू,
तुझे तो हर तूफ़ां में जलना पड़ेगा।

राहों में काटें भी बहुत होंगे,
दु:ख की बदली भी छाएगी।
पर याद रख ये सब दस्तूर है,
तेरी चाह के आगे सब झुक जाएँगी।

समय चलता है बस चलता ही रहेगा,
ना कभी थमा है और ना कभी थमेगा ...

ज़िन्दगी बुला रही है

नव सृजन करने आ रही है, ज़िंदगी बुला रही है,
तस्वीर अनेक सजा रही है, जिंदगी बुला रही है,
खोना मत लुभाती है, जिंदगी भटकाती है,
हर पड़ाव में दाँव है, कीमतों का जमाव है,
बोली लगा रही है, जिंदगी बुला रही है,

साथ निभा रही है, अपनों से मिला रही है,
सपने जगा रही है, जिंदगी बुला रही है,
जिंदगी के दर्पण में, देख दोहरी दर्शना,
खोना पाना पाकर खोना, सच्ची- झूठी भर्त्सना,
चुन-चुन कर रंग दिखा रही है, जिंदगी बुला रही है,

युक्त रहो स्वयं से, जिंदगी है तेरे दम से,
पकड़ना मत बाहर से, जिंदगी को भ्रम से।
यह सांसों-सांसो से आ रही, जिंदगी बुला रही है,
संगत स्वस्थ मति कि हो, संगीत प्रेम गति कि हो,
आनंद मग्न गा रही है, जिंदगी बुला रही है,

धार बहा रही है, प्राण-प्राण सरिता की,
रुकती नहीं युगों , अमृत पिला रही हैं,
जिंदगी बुला रही हैं

राष्ट्र के नाम कुर्बान हो गए
देश के कितने वीर, जिंदगी की यह भी एक तस्वीर,
आजादी पर अपने इठला रही है, जिंदगी बुला रही है,
बोध रखो कल का, जिंदगी के दिन चार,

सदा यहां न रहता उम्र और प्यार,
सूरज उगा रही है, जिंदगी बुला रही है।

अनुभव

अनुभव और इक साल जीत गया
जाने क्या दिन-रात बीत गया...

कुछ मीठी यादें बना गया
कुछ बातों पर ये रुला गया
कुछ अधूरा सा ही छोड़ गया...
कुछ पूरा कर के शोर गया...

अनुभव और इक साल जीत गया

कुछ छोड़ गए, कुछ जुड़ गए
कुछ जाने कहाँ मुड़ गए...
कुछ यूं ही दिल में रह गया
कुछ बिन मांगे ही मिल गया

अनुभव और इक साल जीत गया

कुछ खुश हुए, कुछ रहे दुखी
कुछ याद रहे, कुछ बने अजनबी...
कुछ राहें है मेरे इंतज़ार में
कुछ गुज़र गयीं बीते साल में...
जो अपना था वो मीत गया

अनुभव और इक साल जीत गया
जाने क्या दिन-रात बीत गया...

जो कुछ है सब राम तुम्हारा

अपना क्या है इस जीवन में,
जो कुछ है सब राम तुम्हारा।
दो ऐसा वरदान मुझे, बस
पूरा कर लूं काम तुम्हारा।।

मेरी श्वासें लेती रहतीं,
हर दिन, हर पल नाम तुम्हारा।
भव - बंधन क्यूं बांधे मुझको,
हाथ लिया जब थाम तुम्हारा।।

दर - दर तुझको क्यूं खोजूँ मैं,
कहां नहीं है धाम तुम्हारा।
दशों दिशाएं तेरी थाती,
दक्षिण तेरा, वाम तुम्हारा।।

मैं सेवक तेरे चरणों का,
सकल जगत आयाम तुम्हारा।
माया - वश नीलाम खड़ा हूं।
बोली तेरी, दाम तुम्हारा।।

बेटियां

खुशनसीब वह द्वार, जहाँ बेटियों का संसार।
सतरंगी ख़ुशियों की फुहार, जिस घर बेटियों का मान।
बेटियों से रोशन ये सारा जहाँ, वरना तो ये पूरी दुनियां बेजान।
ये जानते सभी, पर मानते कुछ ही।
तो आज भी क्यों, सिर्फ़ बेटों की तुमको आस।
ग़र बेटी ना होगी, तो ब्याहोगे बेटे किसे तुम।
ग़र बेटी ना होगी, तो लाओगे कहाँ से बेटे तुम।
कहते हो हम सब समान, पर बसती तुम्हारी बेटों में जान।
आज वो चाँद पर भी, आज वो मंगल पर भी।
छूती आज वो आसमान, रखती सबका ख़याल।
भेद का ये चश्मा अब तो उतारो, करो बेटियों से दिल से प्यार।
वही रोशन करे सबेरा, वही खिलाए फूल गुलाब।
खुशनसीब वह द्वार, जहाँ बेटियों से सजता संसार।

यादों के डीप

कुछ अनजानी सी हलचल है, वह इधर-उधर को डोल रही,
जो बरसों से थे बंद पड़े, उन कमरों को वह खोल रही।
उन ज़ंग लगी चिटकनियों से, उन धूल भरी तस्वीरों से,
वह अपनी चिर परिचित भाषा में, हँसते-हँसते बोल रही।
हैं शब्द विपुल मुस्कानों के, हैं शब्द दबी फरियादों के,
मन के अंधियारे कोनो में कुछ दीप जले हैं यादों के।

भावों का आलीशान महल जो सदा बसा ही रहता था,
वह कालांतर में फँसकर लेकिन वीराने को सहता था।
पर आज वहाँ जानी-पहचानी आहट सी है कदमों की,
उसको सुनकर हर भाव जगा जो हमसे हरदम कहता था।
"हम इसे सम्हाले रखेंगे, बन ईंट सुदृढ़ बुनियादों के",
हाँ, आज कहीं मन के कोनों में दीप जले हैं यादों के।

वे सब अनन्त इच्छाएँ थीं जो अब उलझी सी लगती हैं,
वे असंतोष की मृगतृष्णा से अब भी हमको ठगती हैं।
सचमुच यह तुलना अपरिहार्य है, लेकिन फिर भी आज वहीं,
अमली विवेक की सीख कहीं अंदर ही अंदर जगती है।
हमको मज़बूत बनाते हैं, निश्चय उन प्रबल इरादों के;
कुछ हमसे कहते रहते हैं, जो दीप जले हैं यादों के।

माना वह बेशक है अतीत, लेकिन वह अपना ही पल है,
जिसको हम जीवन कहते हैं, वह केवल आज, वही कल है।
चाहे उसमें खुशियाँ बरसें, चाहे दुःख के अम्बार लगें,
जो अनुभव हमको मिलते हैं वे अपने कर्मों के ही फल हैं।
आगे बढ़ने के मार्ग बने, ख़ुद से ही ख़ुद के वादों के,
वे राह दिखाते हैं हमको, जो दीप जले हैं यादों के।

ऐसी थी जेठानी मेरी

मेरी चार भाभियों में,
जो बड़ी थी जेठानी मेरी।
शशि जैसा गौर वर्ण,
कांति निराली जिनकी।
सुषमा स्वाभाविक मुख पर,
मीने सी चमकती बिंदिया।
पर, ममता से भरी हुई;
ऐसी थीं जेठानी मेरी।।

बड़ी थी बड़ी जनी,
बड़ी ही बनी रहीं।
हक रखती सभी पर वो,
डांट भी लगाती रहीं।
पर सबको बड़ों वाला,
प्यार भी जताती रहीं।

होती थी निहाल वो,
मीठी को देखकर
दुहिता है रोली जिनकी
सुवन - सुशील हैं।
वल्लभ कमल और
सोनी सी बहुरिया जिनकी।
ऐसी थी बड़ी भाभी,
ऐसी थी जेठानी मेरी।।

मुखिया जी के चारों बच्चे
एक-एक कर बड़े होते जा रहे थे
और धीरे-धीरे
अपने पैरों पर खड़े होते जा रहे थे
बहुएँ आईं, खुशियाँ लाईं
कुछ दिन तक अपने-अपने घर की-
कथा कहानी खूब सुनाईं
पर होने को वही हुआ
जो किस्मत में था लिखा हुआ
बर्तन आपस में टकराने लगे
सब एक दूसरे पर बड़बड़ाने लगे
बहुएँ बात-बात पर चिढ़ जाती थीं
कभी आपस में तो कभी
सासू माँ से ही भिड़ जाती थीं
बटवारे की नौबत आई
पंचायत भी गयी बुलाई
जो मुखिया जी आज तक पूरे गाँव का
फैसला अब तक करते आ रह थे
उन्हीं मुखिया जी का फैसला
आज गाँव वाले करने जा रहे थे

सरपंच ने कहा -
जब साथ में निबाह न हो तो
औलाद को अलग कर देना ही
उचित होता है,
मुखिया जी यह बताओ
तुम किस बेटे के साथ रहोगे
पिताजी के बोलने से पहले ही
बड़े बेटे ने कहा-इसमें पूछना क्या है
सबसे बड़ा बेटा मैं हूँ
पिताजी तीन महीने मेरे साथ रहेंगे
माँ तीन महीने
नम्बर दो बेटे के साथ रहेंगी
फिर पिताजी तीन महीने

तीसरे बेटे के पास
और माँ तीन महीने
सबसे छोटे बेटे के साथ रहेंगीं
यदि यह इन्हें मंजूर नहीं है
तो फिर ये दोनों वृद्धाश्रम में रहेंगे
और हमलोग खर्चा भिजवाते रहेंगे

सरपंचने कहा-
वाह क्या है तुम्हारा हौसला
मिन्टों में कर दिया माँ-बाप का फैसला
चलो अब करते हैं जायदाद का फैसला
बाप जो सिर झुकाये हुए बैठा था,
एकदम गरज उठा-
कैसा फैसला !
जिस पति-पत्नी को भगवान ने
एक साथ रहने के लिए
एक बंधन में बाँधकर
एक जोड़े के रूप में भेजा था
उसे अलग करने वाले
तुमलोग होते हो कौन
पूरी सभा हो गयी मौन
बाप लगभग चिल्लाते हुए फिर बोला -
बागवान सिनेमा देखकर आये हो क्या ?

पंचों सुनो -
फैसला अब मैं करूँगा
इन चारों को घर से बाहर
निकाल कर करूँगा
तीन-तीन महीने ये बारी-बारी से
आकर हमारे पास रहेंगे
और बाकी के नौ महीनों का
इंतजाम खुद करेंगे
रहने की यदि परेशानी होगी तो
उसका भी इंतजाम किये देता हूँ

मुखिया हूँ,
हर चीज को संज्ञान में लेता हूँ
मैं भी इनसान हूँ, फौलाद नहीं हूँ
बाप हूँ, बेरहम औलाद नहीं हूँ
सरपंच जी ! गाँव में
अनाथालय और वृद्धाश्रम तो हैं
जी हाँ ! हैं
दो-दो धर्मशालाएँ भी हैं
जी हाँ ! हैं वो तो आपकी ही हैं
तो उनमें से एक खुलवा दीजिए
उस पर लिखा हुआ
धर्मशाला शब्द मिटवा दीजिए
और वहाँ मोटे-मोटे अक्षरों में
"बेटा-बहू-आश्रम" लिखवा दीजिए
जायदाद का मालिक मैं हूँ, ये नहीं हैं
लड़कों और पंचायत का मुँह
खुला का खुला रह गया
जैसे बुड्ढा कोई नई बात कह गया
लड़कों ने कहा-
पिताजी हमलोग नौ महीने
आश्रम में कैसे रहेंगे

बापने कहा-
जिस माँ ने तुम लोगों को नौ-नौ महीने
पेट में रखकर अपने खून से सींचा था
उसे तुमलोग हमेशा के लिए
वृद्धाश्रम भेज सकते हो !
और खुद उसी आश्रम में
नौ महीने भी नहीं रह सकते हो !
ऐसे बेटों के साथ ऐसा ही होना चाहिए
इसे कहते हैं फैसला !
फैसला औलाद को नहीं,
फैसला माँ-बाप को करना चाहिए
फैसला माँ-बाप को करना चाहिए।