हम जुगनू को देखने वाली अंतिम पीढ़ी हैं
डॉ. रामानुज पाठक, सतना
नन्हीं-सी लौ, अंधेरे की चीरती चुप्पी,
रात की चादर में टिमटिमाती अपनी दुनिया लिए—
वो जुगनू, जो कभी खेतों, बागों, और नदी के किनारे
हमारी कहानियों का उजास थे,
अब बस स्मृतियों की गहराइयों में डूब रहे हैं।
कभी खेतों की मेड़ों पर, झाड़ियों में,
वो नन्हें दीप जलते थे—
बिन तेल, बिन बाती, बिन आवाज़
सिर्फ़ प्रकृति की निस्वार्थ कृति।
रात के अंधकार में
एक नन्ही आशा की तरह चमकते थे।
माँ की कहानियों में देवदूत थे,
पिता के बचपन की चहचहाहट थे।
“बायोलुमिनेसेंस” उनका चमत्कार था,
ल्यूसीफेरेज़ एंज़ाइम से बना था वो उजाला,
ना कोई गर्मी, ना धुंआ, ना ही बिजली की चाह,
सिर्फ़ रसायन और प्रकृति का नादान जादू।
पर विज्ञान आज यह भी कहता है—
जुगनुओं की संख्या घट रही है।
क्योंकि हमने बदल दिया है उनका संसार:
अंधकार को चीर दी कृत्रिम रोशनी से,
मिटा दिए उनके बसेरे रासायनिक खेती से,
सुखा दिए वो दलदल जो थे उनके प्रजनन स्थल।
शहरों की चकाचौंध ने निगल लिया अंधकार,
और अंधकार में ही पलती थी जुगनू की पुकार।
कीटनाशकों की बौछारों में बुझ गई उनकी लौ,
हमारी प्रगति की कीमत पर नष्ट हुआ उनका ठौर।
अब न गांव में वो चमकती बारात,
न नदियों के किनारे जगमग रात।
कृत्रिम प्रकाश के युग में
जुगनुओं की अस्मिता हुई निर्वासित।
बच्चे पूछते हैं
“मम्मी, क्या सचमुच कोई कीड़ा होता है जो चमकता है?”
“क्या तुमने देखा है कभी?”
और माँ चुप हो जाती है,
क्योंकि उसका बचपन देख चुका है
जो उसके बच्चे अब कभी नहीं देख पाएंगे।
पर्यावरणविद कहते हैं —
जैसे मधुमक्खियाँ, तितलियाँ, और मेंढक,
वैसे ही जुगनू भी “जैव सूचक” हैं।
अगर वे जा रहे हैं, तो समझो
पृथ्वी की साँसे धीमी हो रही हैं।
वे सिर्फ़ कीट नहीं,
एक पारिस्थितिक तंत्र के दूत हैं।
उनका लोप,
प्रकृति की एक पंक्ति का विसर्जन है,
एक संगीत की लय का टूट जाना है।
हम खो रहे हैं—
आश्चर्य की वो पहली अनुभूति,
जब एक चमकती बूंद हथेली पर उतरती थी।
जब लगता था कि सितारे ज़मीन पर उतर आए हैं।
हम खो रहे हैं—
प्रकृति की कविता की सबसे सुंदर पंक्ति।
संभव है,
हम ही आखिरी पीढ़ी हों
जो जुगनू को आँखों से देख सके।
पर यह भी संभव है—
अगर हम बदलें,
तो जुगनू फिर लौट आएँ।
मत बोओ ज़हर खेतों में,
रात को रहने दो रात जैसा।
छोटे-छोटे दलदल, तालाब, और झाड़ियाँ
उनके घर हैं—उन्हें मत उजाड़ो।
अगर हम जागे नहीं—
तो अगली पीढ़ी जुगनू नहीं,
सिर्फ़ “जुगनू की तस्वीरें” देखेंगी,
पढ़ेगी किताबों में उनके बारे में,
जैसे डायनासोर या डोडो की कथा।
और तब शायद कोई बच्चा
एक गहरी साँस लेकर पूछेगा—
“क्या सचमुच अंधेरे में
रोशनी ले कर चलने वाला कोई जीव था?”
और उत्तर होगा—
“था… पर हमने उसे खो दिया…”
