साधना

रू... हां यही तो नाम दिया था उसने। आज अचानक यूँ रमेश की तस्वीर देख मन कुछ अनमना सा हो गया।

रमेश ने लिखा था ‘प्रेम का संबंध जिस्म से नहीं है। इसे करने वाला ताउम्र एक साधना करता है। जिसमें साधक का संबंध सिर्फ और सिर्फ साधना पर केंद्रित रहता है। शारीरिक प्रेम एक कमजोरी हो सकती है। पर, क्या वह कभी उस रूहानी प्रेम की जगह ले सकता है, जिसे मीरा ने महसूस किया, और अपने शरीर को कृष्णमय कर दिया।

प्रेम यकीनन एक साधना ही तो है, जिसे अब सुरभि भी महसूस कर रही थी। वही आकर्षण उसे फिर अतीत में महसूस किए रूहानी प्रेम को महसूस करने पर आमादा हो गया था। सोचते ही सुरभि के माथे पर पसीने की कुछ बूंदे उभर आईं और वह अतीत के पन्नों में खोती चली गई। ...सुरभि एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से थी, बचपन में ही पिता का साया नहीं रहा। घर में माँ लक्ष्मी और बड़ी बहन रिया के अलावा कोई नहीं था। पड़ोस में रहने वाले शर्मा जी ने कह सुन के बैंक में माँ की एक छोटी सी नौकरी का जुगाड़ किया। माँ की छोटी नौकरी और परेशानी ने बड़ी बहन रिया को समय से पूर्व ही गंभीरता और समझदारी का दामन पकड़ा दिया था, यानि समय से पहले ही बड़ा कर दिया। पर छोटी सुरभि मां और बहन दोनों की ही बड़ी लाड़ली थी। घर में सभी सुरभि को सरू बुलाते और सुरभि अपने चुलबुले स्वभाव और तीखे नैन नक्श और भोले स्वभाव से सबका मन मोह लेती। छोटी जितनी चुलबुली तो बड़ी रिया उतनी ही शांत सहज और गंभीर। शायद घर में कब क्या किस तरह होना है, रिया से बेहतर कोई नहीं जानता था।

...साथ वाला घर शर्मा जी का था। शर्मा जी के लड़की न होने की कमी भी रिया और सुरभि ही पूरी करतीं। शर्मा जी बैंक में कार्यरत थे तथा दो लड़कों और बीवी के साथ जिंदगी की नैया आराम से काट रहे थे। छोटे बेटे रमेश का लक्ष्मी जी के घर में आना-जाना लगा रहता। रिया और रमेश हम उम्र थे, जिससे उनकी आपस में बातें बहुत होती थीं। लेकिन रमेश और सरू की आपस में ठनी रहती। हालाँकि रमेश सरू का अलादीन का जिन था। सरू के सब कामों और परेशानियों में हाज़िर, बस परेशानी ये थी की ये अलादीन सरू को अपनी जागीर समझता था। "ये क्या पहना है …. इतनी देर कैसे हुई … चौक पे गोलगप्पे क्यों खाये …ऊंची एड़ी की चप्पल क्यों पहनी …वगैरह .. वगैरह।” रमेश की हर नसीहत सरू को तीर सी लगती, पर मानने के अलावा कोई चारा नहीं था। मना किया तो सरु जो रमेश से छोटे-छोटे काम करवाती, उन सभी के बंद हो जाने का डर था। सरू को आज भी वो बसंतपचमी का दिन और लाल दुपट्टा याद था।

...बसंत पंचमी का दिन था। स्कूल में सरस्वती पूजा में पीला सूट और लाल दुपट्टा पहन के आने को कहा था। पीला सूट तो तैयार था पर दुपट्टा वैसा कहीं ना मिला जैसा सरु को चाहिए था। उसने बड़े मनुहार से कहा ‘वो लाल दुपट्टा, जो दूर वाला बड़ा बाज़ार है ना, वहाँ ज़रूर मिल जाएगा, ला दो ना। रमेश को तो जैसे नख़रे दिखाने और धौंस जमाने का मौक़ा मिल गया हो। वो अकड़ के बोला ‘आज …आज तो बड़ा मुश्किल है। साइंस का प्रोजेक्ट बनाना है। मैथ्स का होमवर्क भी बाक़ी है और सर में इतना दर्द है कि पूछो मत। सरू ने कहा “अरे इसमें क्या -- प्रोजेक्ट में बना देती, लाओ सर में तेल भी लगा दूँ। अच्छा सुनो तुम्हें मेरे हाथ की अदरक वाली चाय पसंद है ना। अभी लायी बना के। देखना दो ही मिनट में दर्द छू मंतर हो जाएगा।"

रमेश मन ही मन सरू को परेशान होते देख ख़ुश हो रहा था “नहीं आज चाय पीने का मन नहीं।”

“अरे ऐसा क्यों ..अभी लायी बना के .. ख़ुशबू आते ही पीने का मन ना करे तो नाम बदल देना।”

रमेश ने चुहल के चुटकी ली “अच्छा,सडू तो हो ही, अब क्या करें तुम्हारा नाम।”

सडू सुनते ही सरू का मुँह बन गया। तो रमेश बोला “अच्छा अभी कर के आया तुम्हारा काम फिर चाय पिलाना।”

उस दिन रमेश चुन के सुनहरी किनारी वाला सितारों से जड़ा लाल दुपट्टा ले के आया। उसने बड़े प्यार से आते ही सरू को दुपट्टा दिखाया।

सच सरू की आँखें चमक गईं थी उसे देख कर। वो मन ही मन सोचने लगी कल तो सब सहेलियों पर उसी की धाक होगी। वो झट भाग के ख़ुशबू वाली चाय बना, रमेश के पास बैठ गई। दुपट्टा हाथ में ले छू के देखने लगी। तभी रमेश ने दुपट्टा खींच लिया। सरू तो ग़ुस्से से आग बबूला हो गई।

“ये क्या बद्तमीज़ी है। फट जाता तो ?”

रमेश शरारत से हंसा ‘अरे नहीं फटता …इसे पहनने के कुछ क़ायदे है ..मंज़ूर हो तो बोलो ?”

सरू का मुंह खुला रह गया, ‘हैं…. दुपट्टा पहनने के भी कोई नियम होते…रहने दो ..और चाय वापस करो।”

रमेश ने सरू का हाथ पकड़ा। ‘अरे सुनो तो ..नाराज़ मत हो। बस कल तैयार हो के पहेले मुझे दिखाना।”

उस समय रमेश की आँखों की चमक कुछ कहना चाह रही थी, पर सरू तो दुपट्टे से नजर ही नहीं हटा पा रही थी।

“अरे …बक्क उसमें क्या है। कल स्कूल छोड़ने तो तुम ही जा रहे हो। देख लेना।”

ये कह सरू दुपट्टा ले भाग गई।

अगले दिन सरु पीले सूट और लाल दुपट्टे में ऐसी लग रही थी। जैसे सुबह का उजला सूरज थोड़ा पीला थोड़ा लाल। काली आँखें, खुले बालों का सावन, काली बिंदी और उस पर पलाश सा सुर्ख़ रंग, उस दिन सरू ऐसी लग रही थी जैसे काले बादलों के बीच से पीला, लाल सूरज झाँक रहा हो। रमेश ने देखा तो नज़र ही ना हटा सका। सरू ने झट कंधे पे चपत लगायी। “खड़ूस ..तो हो ही ..एक बार कह दोगे अच्छी लग रही सरू तो ज़ुबान ना घिस जाये तुम्हारी। चलो देर हो रही अब। चौराहे से रिक्शा ला दो। साथ चल सको तो सही। वरना अकेले भी जा सकती।” पर रमेश आज सरू के साथ नहीं उसे सामने रख चलना चाह रहा था। उसने धीरे से बोला “…रु..” सरू हंसी” ..अब ये “स” कहाँ गया। छोड़ो चलो अब वरना सरस्वती पूजा ख़त्म हो जाएगी।”

उसी साल दसवीं का एग्जाम दे रमेश आगे की पढ़ाई करने दूसरे शहर चला गया। कभी कभार आना होता और बाते औपचारिक होती चली गईं, पर बैठना न छूटा। धीरे-धीरे समय बीतता गया। लक्ष्मी जी ने रिया के हाथ पीले किए और बस अब सुरभि की बारी थी। सुरभि कॉलेज लास्ट ईयर में थी। तभी तिवारी जी सुरभि के कॉलेज में एनुअल डे के चीफ़ गेस्ट बन के आये। तिवारी जी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के वी सी के पद से रिटायर हुए थे। विलक्षण बुद्धि और बेजोड़ व्यक्तित्व, तिवारी जी के रुतबे को और भी संवारता था। सुरभि ने मंच पर महिषासुरमर्दिनि नाटक में हिस्सा लिया था और लग रहा था ,जैसे साक्षात मां दुर्गा ही प्रकट हो गई हैं। तिवारी जी भी उस भुवन मोहिनी के तिलिस्म से बच न पाए और वहीं से उसे अपनी पुत्रवधू बनाने का निश्चय कर लिया। तिवारी जी के वैभव के सामने लक्ष्मी जी के ना की कोई सूरत थी ही नहीं। तिवारी जी का लड़का, कबीर सामान्य कद काठी और साँवला होने के साथ व्यवहार कुशल था। इंजीनियरिंग करके अच्छी फर्म में नौकरी कर रहा था। घर में कोई कमी थी ही नहीं, तो ना करने की गुंजाइश रह ही नहीं गयी थी।

विवाह के दिन बारात आने के पहले शादी के जोड़े में सजी सरू अपने नए जीवन के शुरू होने के सपने सजा रही थी कि कमरे में आहट हुई। “रमेश ...यहाँ ?” सरू रमेश को देखकर पलटी और फिर अपने नए जोड़े और श्रृंगार को इतराते हुए दिखाते हुए बोली “कैसी लग रही हूं मैं…”. रमेश बस सुरभि को देखे जा रहा था। उस समय रमेश की आंखों में अजीब सी कशिश थी, दुःख था और पता नहीं क्या था, जिसे देखते ही सुरभि ने पूछा - “क्या हुआ रमेश तबीयत सही नहीं लग रही “सुरभि के आवाज से रमेश चौंका और बोला “हां कुछ अच्छा नहीं लग रहा” फिर सरू एकदम इतराते हुए बोली “देखो कितनी अच्छी लग रही हूँ ! आज के बाद तुम और रिया दीदी मुझे सडु सडु नहीं कहोगे।”

रमेश की आंखों के कोनों में आंसू की बूंद तैर आयी और उसने धीरे से बुदबुदाया “कोई रू भी नहीं कहेगा" सुरभि उन शब्दों को ढंग से सुन भी नहीं पाई थी। इतने में बाहर से शोर आया कि की बारात आ गई है लाल जोड़े और सुनहरे सपनों को सजा सुरभि अगले दिन कबीर के घर आ गयी। धीरे-धीरे समय पंख लगा के उड़ गया। ना सुरभि ने रमेश के बारे में जानने की कोशिश की और ना रमेश ने मिलने की। एक दिन अचानक सुरभि को फ़ोन आया कि मां को हार्ट अटैक आया है। सुरभि और रिया आनन-फानन में घर पहुँची पर देर हो चुकी थी माँ तब तक नहीं रही थी। माँ के यूँ अचानक जाने से रिया और सुरभि पत्थर हो गईं। माँ के अलावा मायके में था ही कौन ?

स समय पर सभी मिलने जुलने वालों ने सलाह कर घर को बेचने का प्रस्ताव रखा जो सभी को सही लगा। उस समय उसकी हालत ऐसी हो रही थी जैसे किसी ने कलेजा निकालकर हाथ में रख दिया हो। माँ का तीजा हुआ और तेरहवीं के बाद घर ख़ाली करना था। वो घर जहाँ पग पग पर यादें बिखरीं पड़ी थीं। सुरभि फिर सरू बनकर उन यादों में खोना चाहती थी वही रूठने मनाने का दौर दोबारा जीना चाहती थी। माँ की यादों से दिमाग़ सुन होता जा रहा था। तभी रिया दीदी की आवाज़ से उसकी चेतना लौटी। रिया दीदी बोल रही थी …“चल सरू माँ की अलमारी और संदूक ख़ाली कर ले।” सुरभि ने माँ की अलमारी खोली तो ऐसा लगा की माँ की साड़ियों में माँ का स्पर्श ज़िंदा हो गया हो। माँ की बनायी जन्माष्टमी की पंजीरी, आटे के लड्डू, बेसन की बर्फ़ी सभी का स्वाद फिर ताज़ा हो गया! आँखों से आँसू की बरसात और तेज़ हो गई! तभी धप्प से अलमारी से एक लकड़ी का बक्सा नीचे गिरा। ...सुरभि ने डिब्बा खोला तो उसमें कुछ ख़त मिले सुरभि जैसे जैसे ख़त पढ़ती जा रही थी वैसे वैसे उसका दिमाग़ सुन्न होता जा रहा था। सभी ख़त रमेश ने उसके लिए लिखे थे। जो माँ ने उसे कभी दिए ही नहीं। ख़त का एक एक शब्द हज़ार, हज़ार जज़्बातों के हीरों से जड़ा था।

सारे ख़त रमेश ने अपनी प्यारी रु को लिखे थे। ख़त पढ़ कर सरू को लगा दिमाग़ की नसें फट जाएंगी। यह सच तो वह कभी जानती ही नहीं थी। रमेश ने कभी कुछ जताया ही नहीं या वो ही कभी देख नहीं पाई। सुरभि सभी ख़तों के सामने जड़ बैठी थी की तभी रिया कमरे में आयी ..सरू क्या हुआ ..सरू ने आँख उठा रिया की तरफ़ देखा –‘ये सब क्या है दीदी? क्या तुम जानती थी ?’ रिया ने बात पलटते हुए कहा ‘छोड़ ना ..बहुत काम पड़ा है!’ सुरभि ने हाथ पकड़ रिया को वही बिठा लिया’ नहीं मुझे जानना है ..बताओ मुझे!’ “सरू ..तू हमेशा छोटी रही ..माँ ने भी कभी कोई परेशानी तुझ से नहीं कही ..जब ये ख़त आने शुरू हुए तो माँ को शक था, तेरी पढ़ाई पे कोई फ़र्क़ ना पड़ जाये। साथ ही शर्मा अंकल के ढेरों एहसानों ने माँ का मुँह बंद कर दिया। सरू बिना बाप की बेटियों के साथ, माँ एक-एक कदम फूंक-फूंक के रखती है। हम दोनों हमेशा माँ का ग़ुरूर रहीं। हम दोनों पे उठी एक भी उँगली माँ को जीते जी मार देती। इसलिए माँ ने ये राज बस राज ही रखा। अब बीती बात भूल जा और उठ बहुत काम पड़ा है।”

सुरभि ने सभी खत संभाल के अपने सामान के साथ रख लिये। शर्मा जी भी पड़ोस का घर बेचकर जा चुके थे। अब वो बेटों के पास ही रहते थे। पड़ोसियों से बस ये पता चला की बड़ा बेटा दिल्ली में उच्च पद पर आसीन था और छोटा बेटा फ़ॉरेन में सेटल हो गया था। उस समय सुरू की हालत कुछ अजीब हो रही थी। रमेश के ख़तों ने सुरभि के मन में उस अनजानी प्यार की बेल को खाद दे दिया था। जिसका अंकुर शायद किशोरावस्था में फूट चुका था। पर उस बेल को खाद और पानी कभी मिला ही नहीं। अत: वो अंकुर पेड़ बन ही नहीं पाया। सुरभि एक बार कैसे भी रमेश से मिलना चाहती थी। उससे पूछना चाहती थी कि आख़िर क्यों वो उससे बात नहीं कर पाया। यह ख़त माँ तक कैसे पहुँचे ..क्यों उसने उसे कबीर के साथ जाने दिया क्यों उसने उससे रु को छीना और मार दिया..पर इन सवालों के जवाब मिलना मुश्किल था। वापस ससुराल लौटकर सुरभि कुछ अनमनी सी हो गयी। उसका किसी भी जगह मन नहीं लगता घर के सभी काम यंत्रवत करती जाती पर मन बहुत उदास रहने लगा था घर में सभी ये सोच के मौन थे कि माँ के जाने के बाद झटका लगा है वक़्त के साथ सब सही हो जाएगा।

समय पंख लगाकर उड़ा जा रहा था। सुरभि का बेटा अब दसवीं में आ चुका था। सुरभि ज़्यादातर घर के कामों में बिज़ी रहती एक दिन सुबह रिया का फ़ोन आया जिसमें रिया ने बताया कि फ़ेसबुक पर रमेश की वाइफ़ का लिंक फ्रेंड सजेशन में दिखा है। सुरभि बहुत बार फ़ेसबुक पर रमेश को ढूँढने की नाकाम कोशिश कर चुकी थी। रिया का फ़ोन रखते ही सुरभि ने फटाफट फ़ेसबुक पर रमेश की वाइफ़ को सर्च किया। रूपाली शर्मा ...हाँ यही तो नाम बताया था दीदी ने।

सुरभि जैसे ही फ़ोटो गैलरी में गयी। रमेश की फ़ोटो देखते ही एक टीस सी उठी। आज भी रमेश में कोई अंतर नहीं आया था। वही चौड़े कंधे, गोरा रंग,ऊँचा माथा। वक़्त भी शायद कामदेव की छटा को कमजोर नहीं कर पाए थे। साथ खड़ी थी रूपाली और दो बच्चे। रूपाली को देखते ही एक बेहद गहरी टीस के साथ एक चुप वाली सिसकी होंठों पर ठहर गयी...पर साथ ही मुँह से ढेरों दुआयें भी निकल उठी, ‘जहाँ रहो ख़ुश रहो रमेश तुम... तुम्हें तो तुम्हारी रू मिल ही गयी ना।" आँखों में सावन भादो के बादलों ने झड़ी लगा दी थी। सुरभि अब रोज़ ही फ़ेसबुक पर जाकर रमेश और रूपाली की फ़ोटो देखती। फिर वे खत निकाल के पढ़ती, ख़ास तौर से वह आखिरी वाला जिसमे रमेश ने लिखा था, "प्रेम के कई रूप हो सकते हैं .. प्रेम तो वो एहसास है जो दो व्यक्तियों की रूह को छूता है और फिर ये एहसास उतना ही महत्वपूर्ण बन जाता है, जितना संसार की अन्य मूल्यवान वस्तुएं। प्रेम जिस्मानी नहीं होता। किसी से दूर रहकर उसको चाहना भी प्रेम है। प्रेम तो एक सधना है, जिसमें साधक बस अपने इष्ट का दीवाना है वो उसे पाना नहीं बल्कि उसमें खोना चाहता है।" रमेश ने भी तो वही प्रेम किया था सुरभि से .. और अब सुरभि भी उसी प्रेम को महसूस कर रही थी।

डॉ. ऋचा गुप्ता, गाजियाबाद