सम्पादक की ओर से

जन संस्कृति, जन परम्पराओं- प्रथाओंं और भारतीय संस्कारों का प्रतिनिधित्व कर रही ‘जनमैत्री’ के प्रकाशन का सफर वक्त के साथ कदम से कदम मिलाते हुए बढ़ता जा रहा है। इस सफर को सहज बनाने में कलमकारों, लेखकों, कहानीकारों और रचनाकारों के आत्मीय योगदान की बहुत बड़ी भूमिका है। उनके सहयोग के बिना शायद हमारे लिए यह सफर सहज-सरल होने की जगह कठिन साबित होता। हर्ष का विषय यह है कि पत्रिका के हर नए अंक में नए-नए लेखक और काव्यशिल्पी जुड़ते जा रहे हैं। पाठकों की टिप्पणियां और सुझाव भी मिल रहे हैं। हम पाठकों के विवेकपूर्ण सुझाव पर अमल करने का हरसंभव प्रयास भी कर रहे हैं और भविष्य में भी उनके सुझाव-उनकी रुचि हमारे लिए सर्वोपरि होगी।

जनमैत्री का यह अंक ऐसे समय में प्रकाशित हो रहा है, जब समूचा देश आजादी के जश्‍न में डूबा हुआ है। आजाद भारत ने विकास के कई सोपान पार किये हैं। आज हमारा देश विश्‍व के ताकतवर देशों से आंख में आंख मिलाकर बात कर रहा है। तरक्की का सिलसिला जारी है। यह कभी रुकता नहीं, ठहरता नहीं। हाँ, रफ्तार कभी सुस्त, मंद तो कभी तेज होती रहती है। शिक्षा, रक्षा, स्वास्थ्य और संरचना के क्षेत्र में आगे बढ़ने की गति लगातार तेज हो रही है, होती रहेगी। मगर हमें सामाजिक स्तर पर आत्ममंथन करने की जरूरत है। स्वतंत्रता और विकास को व्यापक संदर्भों के दायरे में खड़ा कर चिंतन करने की जरूरत है। सरकारों के अलावा समाज की भूमिका को रेखांकित करना है। देश की ‘मातृशक्ति’ की स्थिति पर नजर डालना है।

बड़ा सवाल है क्या हम वास्तव में आजाद हुए हैं ? आज भी हमारे समाज में वही प्राचीन संकीर्णताएं, मान्यताएं देखने को मिल रही हैं, जिनकी वजह से हमारा सनातनी सामाजिक-पारिवारिक ताना-बाना टूट कर बिखर गया है। संकीर्ण सोच से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। अंधविश्वासों से भरी परम्पराएँ, वही जादू टोना-टोटका, झाड़-फूंक आदि सब जो पहले हुआ करता था, आज भी देखने-सुनने को मिल रहा है। पहले महिलाएँ घरों की चार दीवारी में रहती थीं, वहाँ कुछ भी अप्रिय घटना उनके साथ घटित होती तो किसी बाहर वाले को पता नहीं चल पाता था। सारा मामला अंदर ही दबा दिया जाता था परन्तु आज महिलाओं के साथ खुले आम अप्रिय घटनाएँ होती हैं। बलात्कार, तेज़ाब फेंकना तो आम बात हो गई है।

यह कैसा स्वतंत्र देश है, जहां आज भी एक अकेली महिला को बेचारी कहकर सम्बोधित किया जाता है। यदि वह विधवा हो जाती है तो उसे मजबूर अबला का नाम दे दिया जाता है। बिना पुरूष के महिला को कोई सम्मान नहीं दिया जाता ! किसी से हंसकर बात कर लेती है तो चरित्रहीन की श्रेणी में डाल दिया जाता है। नारी तो आज भी परतंत्र ही है ना ? नारी को कब स्वतंत्रता मिलेगी ? आज हमारे स्वतंत्र भारत के समाज की एक नई गंभीर समस्या पैदा हो गई है, जो ऑनर किलिंग के नाम से बहुचर्चित हो चुकी है। इसका कारण क्या पितृतंत्रात्मक समाज की सोच और दृष्टिकोण नहीं है ?

आज बलात्कार परिवार के बाहर ही नहीं परिवार में भी होने लगे हैं। नारी को सब अपनी निजी सम्पत्ति समझते हैं और अत्याचार करते हैं। नारी शोषण की घटनाएँ तो आम बात हो चुकी हैं। अकेली नारी रहती है तब भी संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। किसी के साथ घूम लेती है या बात भी कर लेती है तो भी उस पर संदेह किया जाता है। शादी-ब्याह में बेटी से नहीं पूछा जाता कि तुम्हें कैसा वर चाहिए। हालांकि आज परिस्थिति काफी हद तक परिवर्तित हो चुकी है परन्तु फिर भी अभी नारी स्वतंत्रता के लिए लम्बा सफर तय करना है। सिर्फ शहरों की चकाचौंध और चमक-दमक से भरे माहौल को आधार मानकर भारतीय नारी की स्थिति का आंकलन नहीं किया जा सकता। यह देश विशाल है। 140 करोड़ की आबादी वाला देश है। शहरों से कोसों दूर गांवों में, जंगलों, पहाड़ों और नदियों के किनारों तथा आस-पास बसने वाले समाज में भी नारियां हैं। वह भी हमारे देश की नारियां हैं, उनकी दशा पर भी नजर डालनी होगी।

धन्यवाद
प्रदीप शुक्ल