सम्पन्नता और फिजूलखर्ची

यह कटु सत्य है कि मनुष्य के जीवन में धन की आवश्यकता आधारभूत है, इसके बिना जीवन यापन संभव नहीं है। किन्तु यह भी एक सत्य है कि धन से सब कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। इन दोनों तथ्यों का जीवन में अलग - अलग महत्व है, इसलिये दोनों को समान पैमाने पर नहीं माप सकते।

विडम्बना यह है कि जीवन में सम्पन्नता का भाव प्रबल होते ही सबसे पहला आघात रहन - सहन, पहनावा और खान - पान के माध्यम से संस्कारों पर होता है। फलस्वरूप फिजूलखर्ची की उत्पत्ति होती है। फिजूल खर्च ऐसे व्यय को कहा जाता है जिसकी आवश्यकता ना होते हुए भी व्यय किया जाए। कभी - कभी व्यक्ति को पता ही नहीं चलता कि उसके द्वारा किए खर्चे कब फिजूल खर्च का रूप ले चुके हैं और वह इन खर्चों को आवश्यक साबित करने के लिए बेतुके तर्क देने का प्रयास करता है। ऐसे में व्यक्ति के अन्दर जरूरत और इच्छाओं के बीच अन्तर समझने की शक्ति क्षीण हो जाती है। जब कि मनुष्य यह नहीं जानता कि उसके ऊपर कब कौन सी आपदा आ जाए, जिसके लिए उसे अतिरिक्त धन की आवश्यकता पड़ जाए। आधुनिक समय में जहां चारों ओर हर क्षेत्र में विकास हो रहा है वहीं सभ्यता में पाश्चात्य शैली का समावेश भी हो रहा है। परंपरागत तौर तरीकों की जगह आधुनिक चीजों ने ले ली है, जो कि फिजूलखर्ची का मुख्य कारण है। आज इसे स्टेटस सिम्बल माना जाने लगा है। इसका सबसे अधिक असर देखने को मिलता है शादियों पर, जहां सादगी को दर किनार करते हुए करोड़ों रुपए आसानी से खर्च किए जा रहे हैं। लोगों को ऐसे मौकों पर समाज और रिश्तेदारों के बीच शक्ति और रुतबा दिखाने का भरपूर अवसर मिलता है। फलस्वरुप बाकी लोगों के पास गलत संदेश तो जाता ही है, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से दहेज प्रथा को भी बढ़ावा मिलता है।

सम्पन्नता का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि हम धन का दुरुपयोग करें, धार्मिक मान्यता के आधार पर हम यह भी कह सकते हैं कि माता लक्ष्मी के निरादर से मनुष्य के जीवन में दरिद्रता का प्रादुर्भाव होता है। दिखावे की जिन्दगी से जब हम मुंह मोड़ लेंगे तो काफी हद तक फिजूल खर्ची रोक सकेंगे। हम यदि व्यय प्रबंधन को ध्यान में रखें तो फिजूलखर्ची से बचा जा सकता है। जैसे कि स्टोर या बाजार जाते समय स्टोर द्वारा संचालित योजनाओं का लाभ उठाना, यदि किसी कूपन का लाभ मिलता हो तो साथ ले जाना ना भूलें, बाजार जाते समय सूची अवश्य बना लें अन्यथा जो वस्तुएं रह गई हैं उन्हें बाद में अधिक मूल्य दे कर घर के समीप खरीदना होगा। महीने भर का राशन या अन्य वस्तुएं एक बार ही खरीदें इससे खर्च का अनुमान भी लगेगा और बार - बार बाजार जाने से भी बच जायेंगे।

नई पीढ़ी भविष्य की चिन्ता किए बगैर आज में ही जीने पर ज्यादा भरोसा करने लगी है। बच्चों को प्राथमिक शिक्षा घर पर ही दी जाती है अतः बच्चों को पैसों की उपयोगिता समझाएं, उनकी महत्वपूर्ण मांगों को ही पूरी करें। विद्यालय में शिक्षकों का भी कर्तव्य है कि विद्यार्थियों को धन के दुरुपयोग और उसके दुष्परिणामों से अवगत कराएं। इसी तरह कुछ प्रारंभिक प्रयास हर स्तर पर करते रहने चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियों को इस घोर अर्थ युग में अर्थ का सही मोल समझाया जा सके और उन्हें फिजूल खर्च की राह से विमुख संचय और आवश्यक खर्चों की समयोचित जानकारी मिल सके।

योगेश कुमार अवस्थी, कोलकाता