जैसा कि हमने प्रथम अध्याय में देखा कि अर्जुन अपने प्रतिद्वन्द्वियों (मार्केट प्लेयर्स) को देखकर मोहग्रस्त हो गये हैं और युद्ध से विरत हो रहें हैं। जिस समय युद्ध का निर्णय लिया गया होगा उस वक्त अत्यंत ही विचार-विमर्श हुआ होगा, ब्रेन स्टॉर्मिंग सेशन्स हुये होंगे, उचित-अनुचित परिणामों पर चर्चा हुयी होगी। निर्णय लेने के बाद ही युद्ध भूमि में सेनायें सजी होंगी। सभी की भूमिका भी तय कर दी गयी होगी। पाण्डव सेना की निर्भरता मुख्यतः धनुर्धर अर्जुन पर थी और वही अर्जुन अपनी भूमिका से विचलित हो रहे थे और नेतृत्व की विमुखता सम्पूर्ण सेना या टीम के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। कहीं पर हमने यह पढ़ा है कि किसी जनरल ने कहा है "डर सभी को लगता है और हमें भी लगता है किन्तु यह स्थिति हमारे टीम के सदस्यों को अवगत नहीं होनी चाहिये" क्योंकि नेतृत्व की कमजोरी टीम पर प्रतिकूल प्रभाव तो डालती ही है साथ ही साथ नेतृत्व को प्रभावहीन भी बनाती है और वह अपने नियंत्रण से वंचित हो जाता है। क्षत्रिय-धर्म में युद्ध से विमुख होना उचित नहीं प्रतीत होता है और अपनी तय भूमिका का निर्वहन न कर पाना असफलता के साथ-साथ अपयश को भी जन्म देता है। हम अपना प्रयास पूर्ण मनोयोग से करें और परिणाम कुछ भी हो, उससे फर्क नहीं पड़ता है।
भगवान श्री कृष्ण की अलौकिकता से हम सभी मोहग्रस्त हैं। जब कभी किसी संस्था में या किसी भी टीम में असहज स्थिति उत्पन्न होती है, उसी वक्त एक situational leader का अभ्युदय होता है। इसी भूमिका में हम भगवान श्री कृष्ण को देख सकते हैं। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को क्षत्रियोचित धर्म का निष्पादन करने के लिये प्रेरित करते हैं, उसके मनोबल को ऊपर उठाने के लिये उपदेश प्रदान करते हैं। अपनी तय भूमिका से जिसने पलायन किया, वह अधम है, इतिहास उसे कभी क्षमा नहीं करता। पलायन की अपेक्षा मृत्यु-वरण उचित है। विजय प्राप्त हुयी तो पृथ्वी का भोग और सुयश यदि वीर-गति तो स्वर्ग। किसी कार्य के लिये यदि कोई निर्णय लिया है तो सिद्ध हो ऐसा प्रयास हो।
रतन टाटा ने किसी इंटरव्यू में कहा है कि -
I do not believe in taking the right decisions, I take decisions and make them right.
अतः यदि एक बार निर्णय हो गया तो कर्म अपना अधिकार है, परिणाम उचित हो या अनुचित, सुखद ही होगा।
करुणा से अभिभूत वह, अश्रु-पूर्ण हैं नेत्र ।
शोक-युक्त आकुल हुआ, हे धृत ! वह रण-क्षेत्र ।।
मधुसूदन हैं कह रहें, उचित नहीं है शोक ।
अपयश को वह प्राप्त है, प्राप्त नहीं सद्-लोक ।।
क्षुद्र-हृदय की दैन्यता, मत दुर्बल हो पार्थ ।
हीन-नपुंसक मत बनो, करना है परमार्थ ।।
पूज्यनीय गुरु द्रोण हैं, भीष्म पूज्य अरु वीर ।
मधुसूदन मैं क्या करूँ, नहीं चले है तीर ।।
श्रेयस्कर है भिक्षु बन, जीवन-यापन कृष्ण ।
गुरुओं का वध उचित क्या, लाभ नहीं परिपूर्ण ।।
समझ नहीं यह आ रहा, धर्म कौन है श्रेष्ठ ।
हारूँ या जीतूँ यहाँ, सभी स्वजन, नर-श्रेष्ठ ।।
जीना दुर्लभ है मुझे, वध कर ताऊ-भाय ।
रक्त सनी यदि विजय है, मृत्यु मुझे स्वीकार्य ।।
पूछ रहा तुमसे सखा, नहीं रहा अब धैर्य ।
कृपण दोष से ग्रस्त हूँ, मोहग्रस्त है शौर्य ।।
शिष्य तुम्हारा हूँ सदा, शरणागत भगवान ।
श्रेयस्कर अब जो लगे, हो मेरा कल्यान ।।
नहीं दीखता है मुझे, साधन कोई और ।
तृप्त करे इन्द्रिय सभी, नहीं शोक को ठौर ।।
शत्रु नष्ट कर प्राप्त हो, निष्कंटक यह राज ।
तो भी शोक न दूर हो, मोहग्रस्त हूँ आज ।।
नहीं लड़ूँगा युद्ध मैं, हृषीकेश गोविन्द।
शान्त हुआ कहकर वहाँ, नहीं हृदय आनंद ।।
उभय मध्य, सेना खड़ी, शोकमग्न है पार्थ ।
हृषीकेश ने है कहा, करना है पुरुषार्थ ।।
शोचनीय जो है नहीं, उचित नहीं वह शोक ।
विद्व-पुरुष करते नहीं, मृत-जीवित का शोक ।।
पहले भी थे हम सभी, भूत काल में व्याप्त ।
हम-तुम सारे राज-गण, होंगे नहीं समाप्त ।।
इससे आगे भी हमें, रहना, नहीं विवाद ।
आदि काल तक हम सभी, रहना है आबाद ।।
बालकाल-यौवन-जरा, देह-शरीर-शरीर ।
हैं परिवर्तनशील ये, मोहग्रस्त नहिं धीर ।।
मृत्यु होय जब देह की, देहान्तर उपलब्ध ।
आत्मा तो जीवित रहे, नया देह प्रारब्ध ।।
सुख दुःख हैं शीतोष्ण सम, क्षणिक सदा कौन्तेय ।
अविचल भावों से सहें, वही मनुॼ अविजेय ।।
सुख दुःख में विचलित नहीं, दोनों में सम-भाव ।
हे अर्जुन ! वह पुरुष है, मुक्ति योग्य जय-भाव ।।
नहीं असत् है चिर-सदा, शाश्वत रहे अनंत ।
तत्व-दर्श के ज्ञान से, अंधकार का अन्त ।।
अविनाशी समझो उसे, जो शरीर है व्याप्त ।
नष्ट न उसको कर सके, चाहे बल पर्याप्त ।।
अविनाशी-अप्रमेय है, अव्यय-जीव अनन्त ।
युद्ध करो हे पार्थ तुम, भौतिक है देहान्त ।।
मृत समझे जो जीव को, या मारे यह जान ।
ज्ञान नहीं उस पुरूष को, आत्मा मरे न प्राण ।।
ना जन्मे है ना मरे, भूत भविष्य न आज ।
नित्य अजन्मा चिर रहे, शाश्वत सत् है आज।।
अविनाशी को जान कर, कैसे मारे कोय ।
अजर अमर है पार्थ यह, पुनर्जन्म फिर होय ।।
त्याग पुराने वस्त्र को, नये वस्त्र जब पाय ।
देहान्तर कर जीव यों, नये देह में जाय ।।
खंड-खंड ना कर सके, अग्नि सके न जलाय ।
जल से वह भीगे नहीं, वायु न करे सुखाय ।।
अघुलनशील है आत्मा, नित्य अचल अविकार ।
सर्व-व्याप्त स्थिर सदा, जले न किसी प्रकार ।।
शोक नहीं करना तुम्हें, महाबाहु ! हे पार्थ ।
जन्म लिया जिसने यहाँ, मृत्यु यहाँ चरितार्थ ।।
मृत्यु-मरण के बाद फिर, जन्म-ध्रुवं ही सत्य ।
युद्ध करो अर्जुन यहाँ, पूर्ण करो कर्तव्य ।।
प्रकट नहीं आरम्भ में, मध्य प्रकट सब होय ।
हो विनष्ट सब लुप्त हों, शोचनीय क्यों होय ।।