श्रीमद्भगवद्गीता, द्वितीय अध्याय

जैसा कि हमने प्रथम अध्याय में देखा कि अर्जुन अपने प्रतिद्वन्द्वियों (मार्केट प्लेयर्स) को देखकर मोहग्रस्त हो गये हैं और युद्ध से विरत हो रहें हैं। जिस समय युद्ध का निर्णय लिया गया होगा उस वक्त अत्यंत ही विचार-विमर्श हुआ होगा, ब्रेन स्टॉर्मिंग सेशन्स हुये होंगे, उचित-अनुचित परिणामों पर चर्चा हुयी होगी। निर्णय लेने के बाद ही युद्ध भूमि में सेनायें सजी होंगी। सभी की भूमिका भी तय कर दी गयी होगी। पाण्डव सेना की निर्भरता मुख्यतः धनुर्धर अर्जुन पर थी और वही अर्जुन अपनी भूमिका से विचलित हो रहे थे और नेतृत्व की विमुखता सम्पूर्ण सेना या टीम के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। कहीं पर हमने यह पढ़ा है कि किसी जनरल ने कहा है "डर सभी को लगता है और हमें भी लगता है किन्तु यह स्थिति हमारे टीम के सदस्यों को अवगत नहीं होनी चाहिये" क्योंकि नेतृत्व की कमजोरी टीम पर प्रतिकूल प्रभाव तो डालती ही है साथ ही साथ नेतृत्व को प्रभावहीन भी बनाती है और वह अपने नियंत्रण से वंचित हो जाता है। क्षत्रिय-धर्म में युद्ध से विमुख होना उचित नहीं प्रतीत होता है और अपनी तय भूमिका का निर्वहन न कर पाना असफलता के साथ-साथ अपयश को भी जन्म देता है। हम अपना प्रयास पूर्ण मनोयोग से करें और परिणाम कुछ भी हो, उससे फर्क नहीं पड़ता है।

भगवान श्री कृष्ण की अलौकिकता से हम सभी मोहग्रस्त हैं। जब कभी किसी संस्था में या किसी भी टीम में असहज स्थिति उत्पन्न होती है, उसी वक्त एक situational leader का अभ्युदय होता है। इसी भूमिका में हम भगवान श्री कृष्ण को देख सकते हैं। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को क्षत्रियोचित धर्म का निष्पादन करने के लिये प्रेरित करते हैं, उसके मनोबल को ऊपर उठाने के लिये उपदेश प्रदान करते हैं। अपनी तय भूमिका से जिसने पलायन किया, वह अधम है, इतिहास उसे कभी क्षमा नहीं करता। पलायन की अपेक्षा मृत्यु-वरण उचित है। विजय प्राप्त हुयी तो पृथ्वी का भोग और सुयश यदि वीर-गति तो स्वर्ग। किसी कार्य के लिये यदि कोई निर्णय लिया है तो सिद्ध हो ऐसा प्रयास हो।

रतन टाटा ने किसी इंटरव्यू में कहा है कि - I do not believe in taking the right decisions, I take decisions and make them right.

अतः यदि एक बार निर्णय हो गया तो कर्म अपना अधिकार है, परिणाम उचित हो या अनुचित, सुखद ही होगा।

करुणा से अभिभूत वह, अश्रु-पूर्ण हैं नेत्र ।
शोक-युक्त आकुल हुआ, हे धृत ! वह रण-क्षेत्र ।।

मधुसूदन हैं कह रहें, उचित नहीं है शोक ।
अपयश को वह प्राप्त है, प्राप्त नहीं सद्-लोक ।।

क्षुद्र-हृदय की दैन्यता, मत दुर्बल हो पार्थ ।
हीन-नपुंसक मत बनो, करना है परमार्थ ।।

पूज्यनीय गुरु द्रोण हैं, भीष्म पूज्य अरु वीर ।
मधुसूदन मैं क्या करूँ, नहीं चले है तीर ।।

श्रेयस्कर है भिक्षु बन, जीवन-यापन कृष्ण ।
गुरुओं का वध उचित क्या, लाभ नहीं परिपूर्ण ।।

समझ नहीं यह आ रहा, धर्म कौन है श्रेष्ठ ।
हारूँ या जीतूँ यहाँ, सभी स्वजन, नर-श्रेष्ठ ।।

जीना दुर्लभ है मुझे, वध कर ताऊ-भाय ।
रक्त सनी यदि विजय है, मृत्यु मुझे स्वीकार्य ।।

पूछ रहा तुमसे सखा, नहीं रहा अब धैर्य ।
कृपण दोष से ग्रस्त हूँ, मोहग्रस्त है शौर्य ।।

शिष्य तुम्हारा हूँ सदा, शरणागत भगवान ।
श्रेयस्कर अब जो लगे, हो मेरा कल्यान ।।

नहीं दीखता है मुझे, साधन कोई और ।
तृप्त करे इन्द्रिय सभी, नहीं शोक को ठौर ।।

शत्रु नष्ट कर प्राप्त हो, निष्कंटक यह राज ।
तो भी शोक न दूर हो, मोहग्रस्त हूँ आज ।।

नहीं लड़ूँगा युद्ध मैं, हृषीकेश गोविन्द।
शान्त हुआ कहकर वहाँ, नहीं हृदय आनंद ।।

उभय मध्य, सेना खड़ी, शोकमग्न है पार्थ ।
हृषीकेश ने है कहा, करना है पुरुषार्थ ।।

शोचनीय जो है नहीं, उचित नहीं वह शोक ।
विद्व-पुरुष करते नहीं, मृत-जीवित का शोक ।।

पहले भी थे हम सभी, भूत काल में व्याप्त ।
हम-तुम सारे राज-गण, होंगे नहीं समाप्त ।।

इससे आगे भी हमें, रहना, नहीं विवाद ।
आदि काल तक हम सभी, रहना है आबाद ।।

बालकाल-यौवन-जरा, देह-शरीर-शरीर ।
हैं परिवर्तनशील ये, मोहग्रस्त नहिं धीर ।।

मृत्यु होय जब देह की, देहान्तर उपलब्ध ।
आत्मा तो जीवित रहे, नया देह प्रारब्ध ।।

सुख दुःख हैं शीतोष्ण सम, क्षणिक सदा कौन्तेय ।
अविचल भावों से सहें, वही मनुॼ अविजेय ।।

सुख दुःख में विचलित नहीं, दोनों में सम-भाव ।
हे अर्जुन ! वह पुरुष है, मुक्ति योग्य जय-भाव ।।

नहीं असत् है चिर-सदा, शाश्वत रहे अनंत ।
तत्व-दर्श के ज्ञान से, अंधकार का अन्त ।।

अविनाशी समझो उसे, जो शरीर है व्याप्त ।
नष्ट न उसको कर सके, चाहे बल पर्याप्त ।।

अविनाशी-अप्रमेय है, अव्यय-जीव अनन्त ।
युद्ध करो हे पार्थ तुम, भौतिक है देहान्त ।।

मृत समझे जो जीव को, या मारे यह जान ।
ज्ञान नहीं उस पुरूष को, आत्मा मरे न प्राण ।।

ना जन्मे है ना मरे, भूत भविष्य न आज ।
नित्य अजन्मा चिर रहे, शाश्वत सत् है आज।।

अविनाशी को जान कर, कैसे मारे कोय ।
अजर अमर है पार्थ यह, पुनर्जन्म फिर होय ।।

त्याग पुराने वस्त्र को, नये वस्त्र जब पाय ।
देहान्तर कर जीव यों, नये देह में जाय ।।

खंड-खंड ना कर सके, अग्नि सके न जलाय ।
जल से वह भीगे नहीं, वायु न करे सुखाय ।।

अघुलनशील है आत्मा, नित्य अचल अविकार ।
सर्व-व्याप्त स्थिर सदा, जले न किसी प्रकार ।।

शोक नहीं करना तुम्हें, महाबाहु ! हे पार्थ ।
जन्म लिया जिसने यहाँ, मृत्यु यहाँ चरितार्थ ।।

मृत्यु-मरण के बाद फिर, जन्म-ध्रुवं ही सत्य ।
युद्ध करो अर्जुन यहाँ, पूर्ण करो कर्तव्य ।।

प्रकट नहीं आरम्भ में, मध्य प्रकट सब होय ।
हो विनष्ट सब लुप्त हों, शोचनीय क्यों होय ।।

चकित होय देखे इसे, चकित होय बतलाय ।
चकित होय सुनते इसे, आत्मा समझ न आय ।।

देही शाश्वत है सदा, कर न सके वध कोय ।
हे भारत ! तुम हो यहाँ, नहीं शोच के योग्य ।।

योग्य नहीं संकोच के, सोचनीय है धर्म ।
क्षत्रिय का है उचित धर्म, धर्म-युद्ध है कर्म ।।

सुखी सभी हैं वे क्षत्रिय, यह अवसर जो पाय ।
द्वार खुला है स्वर्ग या, राज्य-भोग मिल जाय ।।

धर्म-युध्द को त्याग कर, हीन बनोगे आप ।
कीर्ति, धर्म से विमुख हो, प्राप्त होय है पाप ।।

अपयश को तुम वरण कर, ऐसा है यदि कृत्य ।
सम्मानित जन के लिये, श्रेयस्कर है मृत्यु ।।

भय से तुम रण-भूमि से, विमुख हुये यदि आज ।
लाघवता को प्राप्त कर, धूल-धूसरित ताज ।।

निन्दित होगे तुम सदा, कटु वचनों से मीत ।
उपहासित सामर्थ्य हो, नहीं मीत का गीत ।।

दृढ़-संकल्पित होय कर, युद्ध करो कौन्तेय ।
विजय मिली साम्राज्य है, नहीं, स्वर्ग है ध्येय ।।

सुख-दुःख में सम भाव से, लाभ-अलाभौ और ।
हार-जीत को त्याग कर, बनो युद्ध सिरमौर ।।

योग-युक्त हो कर्म कर, बुद्धि-युक्त सुन पार्थ ।
कर विश्लेषण कह रहा, कर्म-मुक्त हो पार्थ ।।

हानि नहीं इस योग में, उठ कर करो प्रयास ।
मुक्त करे भय-त्रास से, ऐसा हो यदि काश ।।

दृढ़ता जिसमें है नहीं, बुद्धि विभक्त अनेक ।
उद्यम करने के लिये, लक्ष्य रहे है एक ।।

अल्प-ज्ञान से मनुॼ है, करता कर्म सकाम ।
स्वर्ग-प्राप्ति ऐश्वर्य औ, विविध भोग सुर धाम ।।

भोग भोगना लक्ष्य है, तत्व-ज्ञान से दूर ।
अविवेकी वह मनुॼ है, वेद न समझे सार ।।

पुष्पित वाणी वेद से, भोगैश्वर्य आसक्त ।
इन्द्रिय-भोग में रच बसे, नहीं मनुॼ है भक्त ।।

तीन गुणों के कार्य का, वर्णन करते वेद ।
राग-द्वेष औ द्वंद्व से, जीवन रहे अभेद ।।

आत्मवान हे पार्थ ! बन, योग-क्षेम मत चाह ।
चिन्ता सारी छोड़ कर, परमात्मा की राह ।।

परम-तत्व है प्राप्त यदि, अर्थ-हीन है शास्त्र ।
नहीं कूप का अर्थ है, मिले जलाशय मात्र ।।

कर्तव्य-कर्म अधिकार है, फल है ना अधिकार ।
कर्म-फलों मत हेतु बन, अनासक्ति स्वीकार ।।

सिद्धि-असिद्धी त्याग कर, कर्म करो सम - भाव ।
समता ही वह योग है, अनासक्ति हर - भाव ।।

कर्म-सकाम निकृष्ट है, बुद्धि - योग है श्रेष्ठ ।
कृपण मनुॼ फल हेतु हैं, नहीं मनुज वे श्रेष्ठ ।।

बुद्धि-युक्त जो मनुज है, पाप-पुण्य से दूर ।
योग-युक्त बन पार्थ तुम, कर्म-योग मंजूर ।।

कर्म-जन्य फल त्याग कर, बुद्धि-युक्त यदि योग ।
जन्म-मृत्यु से मुक्त हो, निर्विकार संयोग ।।

बुद्धि तुम्हारी जिस समय, मोह करेगी दूर ।
दलदल बाधा से निकल, श्रुत-श्रोतव्य न दूर ।।

दिव्य-चेतना प्राप्त हो, निश्चल हो जब बुद्धि ।
प्राप्त योग हो तब सदा, मनुज प्राप्त हो सिद्धि ।।

हे केशव ! क्या प्रकृति है, क्या हैं उनके बोल ।
कैसे विचरण वे करें, लगी बुद्धि प्रभु-मूल ।।

मनोकामना त्याग कर, तुष्ट रहे जो आप ।
है मनुष्य वह पार्थ हे, दिव्य-ज्योति को प्राप्त ।।

दुःख से जो विचलित नहीं, नहिं सुख में अनुराग ।
मननशील है वह मनुज, क्रोध राग भय त्याग ।।

अनासक्त यदि मनुज है, पूर्ण ज्ञान को प्राप्त ।
अभिनंदित शुभ में नहीं, अशुभ नहीं है व्याप्त ।।

कछुआ जैसे अंग को, करे संकुचित खोल ।
इन्द्रिय-विषयों से हटे, वही मनुज अनमोल ।।

इन्द्रिय-विषयों से विरत, विरत नहीं रस-भोग ।
परम-तत्व के प्राप्ति से, छूटे है रस-रोग ।।

इन्द्रिय इतनी हैं प्रबल, वेगवान अरु तेज ।
बुद्धिमान के यत्न को, कर देतीं निस्तेज ।।

वश में कर इन्द्रिय सभी, रखे चेतना ईश ।
वह मनुष्य है दिव्य-सम, चिन्तन में जगदीश ।।

विषयों का चिन्तन करे, अनासक्ति ना पाय ।
काम प्राप्त औ क्रोध हो, बाधा यदि आ जाय ।।

मूढ़-भाव हो क्रोध से, स्मरण शक्ति हो भ्रष्ट ।
बुद्धि नाश हो मनुज का, मनुज पतित हो नष्ट ।।

इन्द्रिय संयम जो करे, राग-द्वेष से मुक्त ।
प्राप्त करे भगवत् कृपा, अंतः निर्मल युक्त ।।

नष्ट होय सब ताप त्रय, शुद्ध चित्त तब होय ।
बुद्धि मनुज शुभ चित्त की, परम तत्व में खोय ।।

इन्द्रिय में संयम नहीं, नहीं बुद्धि है दिव्य ।
भाव नहीं निष्काम मन, शान्ति नहीं द्रष्टव्य ।।

अनुगामी इन्द्रिय बना, है हर लेती बुद्धि ।
जैसे जल में नाव को, वायु करे दुर्बुद्धि ।।

वश में जिसके इंद्रियाँ, बुद्धि प्रतिष्ठित वास ।
विषयों से वह दूर है, अडिग अचल दृढ़ श्वास ।।

है जिसमें संयम स्वयं, तत्व ज्ञान जब होय ।
आत्म-निरीक्षण के लिये, जागे जब सब सोय ।।

शांति उसी को मिल सके, विषय करे न विकार ।
ज्यों सागर अविचल रहे, नदियाँ मिलें प्रकार ।।

इच्छाओं से रहित जो, परित्याग अभिमान ।
ममता सारी त्याग दे, शान्ति प्राप्ति सन्धान ।।

जीवन पथ है ब्रह्म का, प्राप्त अगर नहिं मोह ।
अन्त काल भी प्राप्त हो, मिले स्वर्ग आरोह ।।

राकेश शंकर त्रिपाठी, कानपुर