शिवशक्ति

प्रियंका शुक्ला,
पुरी

हाथों में बच्चे के आते ही दो बूंद आँसू डॉक्टर शिवा के गालों पर लुढ़क गए। उसके पसीने को पूछते हुए नर्स ने इशारे से पूछा क्या हुआ ? मुस्कराकर कुछ नहीं का इशारा कर, कुछ जरूरी बातें समझकर शिवा अपने केबिन में निकल गई। कुछ देर आँखें बंद कर बैठी ही थी कि, दरवाजे पर नॉक हुई, आंख खोलकर देखा सामने उसके सहकर्मी डॉक्टर सौरभ खड़े थे चाय के साथ।
“अरे ! आप”

“यस डॉक्टर‌ शिवा मैंने सुना आज तू फिर से इमोशनल हो गई इसीलिए तेरी चाय लेकर मैं आ गया”

“आ बैठ, आज की डिलीवरी बहुत क्रिटिकल थी “चाय का एक लंबा घूट भरकर उसके अमृत को महसूस करती हुई डॉक्टर शिवा फिर बोली “सौरभ मैं ये सब कर सकती हूं, बस इसीलिए।”

“अच्छा ! अभी तक तो तुझे पता ही नहीं था……, कहीं भी मुश्किल आती है तब तू नारायणी बन सब कुछ आसान कर देती है। फिर भी हर बार कहती है मैं कर सकती हूं ?”

“हां सौरभ क्यों की जिन हालातों से लड़कर मैं यहां तक पहुंची हूं ना, वो बहुत कठिन था।”

“तुम्हे शायद नहीं पता मेरी कहानी !”

कैसे पता होगी, यार मुझे यहां आए सिर्फ डेढ़ साल हो गए हैं। सिर्फ डेढ़ साल को सौरभ ने जोर देकर कहा।

दोनों जोर से हंस पड़े।

शिवा जीवन के प्रथम पृष्ठ में पहुंच जाती है आज ललिता ने अपने तीसरे बच्चे को जन्म दिया था।

उसे बेटी की बहुत चाहत थी। नर्स से पूछा मुझे बेटी हुई हैं ना, नर्स ने कोई उत्तर नहीं दिया। वो बारी बारी सभी से पूँछती मेरा बच्चा कहाँ है ? मुझे क्या हुआ है। पर हर कोई टाल देता। हार कर वह नर्स का हाथ पकड़ कर रो पड़ी। नर्स का दिल पसीज गया। नर्स ने जो बताया, सुनकर उसके पैरो तले जमीन खिसक गई। ऐसा लगा किसी ने पिघला शीशा कान में डाल दिया। “आपने एक किन्नर बच्चे को जन्म दिया है, आपके पति उसे किन्नरों के समाज में सौंपने की बात कर रहे हैं।”

एक मां के लिए उसका बच्चा सिर्फ बच्चा होता है। उसका कोई लिंग नहीं होता। मां का ह्रदय सिर्फ वात्सल्य और ममता ही जानता है। वह उसी अवस्था में उठ कर बाहर की ओर दौड़ी, बड़ी मुश्किल से नर्स ने रोक कर, ललिता के पति को बुलाया।

“आपको अकेले निर्णय लेने का अधिकार किसने दिया” पति से पहला प्रश्न यही था।

“तो तुम सोचोगी क्या करना है ? बताओ क्या करोगी इस बच्चे का।” कड़क आवाज में ललिता के पति सुशील ने पूछा।

“जैसे सब बच्चों का किया वही करूंगी ?”

“दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा, लोग थू – थू करेंगे हम पर, हंसेंगे। “

“पहले खुद पर शर्मिंदा होना छोड़ो, दुनिया, लोग बाद में आते है”

“अरे तुम समझती क्यों नही यही परंपरा है, किन्नर बच्चा किन्नर को सौंप दिया जाता है।”

मुझे नहीं पता कोई रीति, परंपरा। बस इतना पता है ये मेरा बच्चा है और कुछ नहीं।

“पागल हो गई हो तुम परंपरा को तोड़ने चली हो ….

तभी नर्स ने रोते हुए बच्चे को ललिता की गोद में डाल दिया। गुलाबी रंगत का प्याया गुदगुदा सा बच्चा मां की महक पाकर चुप हो गया।

दो दिन बाद ललिता घर आ गई। ललिता अभी बच्चे को नहला धुलाकर, दूध पिलाने के बाद सुलाने ही जा रही थी, कि ढोलक, मंजीरे और तालियों के शोर के साथ किन्नरों की फौज घर में घुस आई। ललिता ने कस कर बच्चे को छाती से चिपका लिया। फिर स्वयं को संयत कर पूछा “क्या चाहिए।”

“हमारे समाज का अंश “

“ये तुम्हारे समाज का अंश नहीं है, मेरे जिगर का टुकड़ा है”

आवाज सुनकर सुशील भी बाहर आ गए। आस पड़ोस सभी बाहर निकल आए।

“देखो हमें मजबूर मत करो, अपनी पत्नी को समझाओ। ये बच्चा हमारा है इसे हम लेकर रहेंगे।

“नौ महीने पेट में हमने रखा, अपने खून से सींचा कहाँ से हो गया तुम्हारा बच्चा”।

“ललिता जिद मत करो, बच्चे के लिए यही सही रहेगा यहाँ का समाज उसे नहीं स्वीकारेगा। उसे शांति से अपने समाज में जाने दो”

आस पड़ोस सभी उसे ऊँच नीच समझाने लगे। कोई कहता लोग हंसेंगे, कोई कहता हमारे बच्चे क्या समझेंगे। कोई कुछ कोई कुछ। ललिता को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। उसकी हिम्मत जवाब देने लगी। उसने सामने खड़ी औरत के हाथ में पकड़ रखी चाकू, जो शायद वो सब्जी काटते हुए जल्दबाजी में लिए चली आई थी, छीन लिया और अपनी गर्दन पर रखते हुए बोली “मेरी मौत के बाद इस बच्चे को ले जाना। मेरी मौत का पाप तुम सब को लगेगा।”

समाज पाप से बहुत डरता है ।

लेकिन किन्नर धमकी दे गए, जितनी ममता लुटानी है लुटा लो, जाएगा तो हमारे साथ ही, हमारा समाज ऐसे ही बढ़ता है। अगर छोड़ देंगे तो समाज कैसे चलेगा। तुम तोड़ोगी समाज की परंपरा ? कभी तोड़ नहीं पाओगी।

पति, परिवार, समाज सभी उसके खिलाफ, वो एक जन अकेली सिंहनी की तरह अपने जिगर के टुकड़े के लिए खड़ी थी। हर आहट पर दिल बैठा जाता था। फिर भी डटी थी, अडिग।

15 दिन गुजरे नहीं होंगे, फिर वही लोग आ धमके इस बार काफी संख्या में।

“देखो बहन हमारी आपसे कोई दुश्मनी नहीं है, हम शांति से आपको समझा रहें है, ये परंपरा चली आ रही है।”

हम भी तो आपको शांति से बता रहे है कि मैं मेरा बच्चा नहीं दूंगी, जिसको देना होता है वो देता है। ललिता ने भी शांति से कहा –

“अरे बहन हम भी तुम्हारे बच्चे को अपने बच्चे जैसा ही रखेंगे, हम तो दुआएँ देने वाले लोग हैं बच्चों को” उनमें से एक ने कहा।

ललिता ने तुरंत कहा “कैसी दुआएँ ? एक माँ से उसका बच्चा छीनकर, एक बच्चे को माँ से अलग कर।”

अच्छा ! एक बात बताइए, क्या आप नहीं चाहेंगे कि आपके समाज के बच्चे आगे बढ़ें, पढ़ें इस गुमनाम भरी जिंदगी से बाहर निकलें। क्या आपको खुशी नहीं होगी ? या सिर्फ आप सभी से यही एक काम कराना चाहते हैं। मैं किसी काम को बुरा नहीं कहती। पर आप सोच कर देखिए अगर आपके परिवार ने जिस मजबूरी में भी आप लोगों छोड़ा हो, अगर न छोड़ते तो शायद आप भी पढ़ाई किए होते, हो सकता है कोई डॉक्टर, इंजीनियर, बैंक में या शिक्षक होता। आप भी हमारे समाज की धारा से जुड़े होते। क्या पता कल को अगर यही बच्चा बड़ा होकर कुछ बन जाए तो आपको गर्व नहीं होगा, खुशी नहीं होगी ?”

वो अचानक तेजी से उठा, बच्चे को ललिता की गोद से ले लिया। ललिता कुछ समझ न पाई, ये इतनी तेजी में हुआ था। “मेरी एक शर्त है बच्चे को देखते हुए उसने कहा “ललिता ने गुस्से में उसे देखा” इसका नामकरण मैं ही करूंगा। ललिता को एकाएक विश्वास नहीं हुआ — “ललिता ने डबडबाई आँखों से कहा “बिल्कुल।”

“तो आज से इसका नाम ‘शिवा’ होगा”

कहकर वो लोग चले गए।

सौरभ डाक्टर शिवा को विस्फारित नेत्रों से देख रहा था। शिवा ने उसकी आँखों के सामने चुटकी बजाई। “वो बच्चा तुम थी।” हां वो मैं थी, मेरी मां ने मुझे किन्नर के पारंपरिक काम के बंधन से मुक्ति दिलाई, किन्नर को किन्नर के समाज में ही रहना चाहिए, उससे बचाया। मुझे इस काबिल बनाया कि मैं स्वयं पर गर्व करूं और स्वयं को पूर्ण समझूँ। मेरे पिता ने भी फिर मेरा साथ दिया। वो समाज जो मुझसे दूर भागता था, मेरी सफलता से वो भी मुझमें कब घुल मिल गया पता ही नहीं चला।”

थोड़ा रुक कर शिवा ने आगे कहा ,

” इन बच्चों के स्नेह बंधन से मैं अपने को पूर्ण समझती हूँ। मैं भी ममत्व, वात्सल्य को महसूस कर सकती हूँ।”

“डॉक्टर एक इमरजेंसी है”

तभी नर्स ने आकर डॉक्टर शिवा की पुकार लगा दी।

“सच कहूँ, तुम्हारी मांँ ने इन सब पर उपकार किया है। तू तो सच में शिवशक्ति, अर्धनारीश्वर की शक्ति शिवा है”

डॉक्टर सौरभ ने हंसते हुए कहा। डॉक्टर शिवा एक गर्व भरी लंबी मुस्कान के साथ नए केस को देखने तेजी से बाहर निकल गई।

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