यादों की बारिश

सुनिष्का त्रिपाठी, कक्षा XI, विबग्योर, मुंबई

वर्षा ऋतु का आगमन करीब एक हफ्ता पहले ही हो गया था, पर अब जाकर कहीं मौका मिला कि आराम से बैठ सकूं, खिड़की के बाहर गिरती बारिश को चुपचाप निहार सकूं — अपने ही ख़यालों में खोई हुई। इन बारिश के दिनों में मुझे घर की बहुत याद आती है। जब से मैं दिल्ली शहर में रहने लगी हूं, मेरा घर जाना बहुत कम हो गया है। मुझे अब भी याद है — कैसे मेरे चाचा-चाची, ताऊजी-ताईजी, उनके बच्चे और हमारा पूरा परिवार एक साथ रहा करता था। अब तो जैसे वह घर सूना-सूना सा हो गया है। सब अलग-अलग जगहों पर रहने लगे हैं। हमारे बीच अब भी उतना ही प्यार है जितना पहले था, लेकिन अब हम सब के पास समय की कमी हो गई है। जैसे-जैसे हम बड़े होते गए, हमारी शरारतें और मस्तियाँ धीरे-धीरे कम होती चली गईं। घर से सबसे पहले दूर जाने वाली रिया दीदी थीं।

हम सभी बच्चे मिलाकर कुल छह भाई-बहन हैं : रिया और प्रिया दीदी — मेरे ताऊजी की जुड़वां बेटियाँ, मैं और मेरा भाई अंकुश, और मेरे चाचा के जुड़वां बेटे — राज और अंकित। रिया और प्रिया दीदी मुझसे एक साल बड़ी हैं, मैं अपने भाई से एक साल बड़ी हूँ, और चाचा के दोनों बेटे अंकुश से एक साल छोटे हैं।

मुझे अपने बचपन का एक अनुभव बहुत याद आता है — जब मैं तकरीबन 16 साल की थी और हम सारे भाई-बहन एक साथ बारिश में भीगते और खेलते थे।

उस दिन बहुत तेज़ बारिश हो रही थी, और हम सभी के स्कूलों की छुट्टी हो गई थी क्योंकि सड़कों पर पानी भर गया था। चूँकि हमारा घर थोड़ी ऊँचाई पर था, इसलिए वहां पानी नहीं जमा हुआ था। नाश्ता करने के बाद हम सब बाहर बारिश में खेलने निकल गए। हमारी एक आदत थी — हम सबसे साधारण दिनों को भी रोमांचक बना दिया करते थे, और उस दिन तो बारिश भी थी! खेलते-खेलते पता ही नहीं चला कि वक़्त कब बीत गया। हमारे माता-पिता हमें अंदर बुलाते-बुलाते थक गए, लेकिन हम तो इतने मगन थे कि सीधे तीन घंटे बाद ही घर लौटे — और सीधा नहाने घुस गए।

जब तक हम खाना खाने बैठ पाए, तब तक शाम के चार बज चुके थे। अंकुश को ज़ोर-ज़ोर से खांसी आने लगी थी, और हम बाकी सब छींकते-छींकते थक गए थे। धीरे-धीरे सबकी तबियत खराब होने लगी, और रात तक हम सबने बिस्तर पकड़ लिया था। फिर भी हमारे माता-पिता ने हमें डांटा नहीं। उन्होंने बस मुस्कराकर इतना ही कहा कि “हम भी कभी ऐसे ही बारिश में भीगकर खेला करते थे…” मैं उस दिन रात को देर से सोई थी, और मस्तिष्क में बार-बार बस एक ही विचार आ रहा था — “जब हम बड़े हो जाएंगे, तब क्या ऐसे खेलने को मिलेगा ?”

इस सवाल का जवाब तो सिर्फ वक़्त ही दे सकता था, इसलिए मैंने तय किया कि अब से हम अपना बचपन खुलकर जिएँगे। अपने परिवार के साथ बिताया हर एक पल, उस घर की हर दीवार, हर कोना, मेरे दिल के बहुत करीब था। अब जब उन सबसे दूर रहना पड़ रहा है, तब समझ में आता है कि चाहे बचपन कितना ही रोमांचक क्यों न रहा हो, बड़े होने के बाद ऐसा ही लगता है कि वो कुछ ज़्यादा ही जल्दी बीत गया।

हम भाई-बहनों के बारिश के किस्से तो पूरे मोहल्ले में मशहूर थे। कभी-कभी हम इतने मगन होकर खेलते थे कि शरीर को भोजन की भी ज़रूरत है, ये तक भूल जाते थे। मिट्टी के गोले बनाकर एक-दूसरे पर फेंकना और गीली मिट्टी में लोट-पोट होना हमारा सबसे पसंदीदा खेल था। एक बार तो हम इतने खो गए खेल में, कि हमें ध्यान ही नहीं रहा कि कौन कहाँ है। जब घर लौटने का वक्त आया, तब पता चला कि अंकुश कहीं दिखाई नहीं दे रहा।

हम सबके जैसे प्राण ही सूख गए हों। उस उम्र में जो “हीरो” बनने का जोश होता है, उसी जोश में हमने किसी बड़े को बताने के बजाय खुद ही उसे ढूंढ़ने की ठानी।

हम सबने याद करने की कोशिश की कि उसे आख़िरी बार किसने और कितनी देर पहले देखा था। याद आया कि उसने राज को कहा था कि वो पास वाले जंगल में रहने वाले कुत्ते, जंग बहादुर, को देखने जा रहा है। वो कुत्ता मानो हमारा अपना ही था—कभी उसे चोट लगी थी और हमने सब मिलकर उसकी देखभाल की थी। तभी से वो हमारा पालतू-सा हो गया था। फिर क्या था—पूरी टोली जंगल की ओर बढ़ने लगी…

हम जंगल पहुँचते ही अलग-अलग हो गए और ज़ोर-ज़ोर से अंकुश का नाम पुकारने लगे। वो जंगल मानो हमारा दूसरा घर था — उसकी सुंदरता किसी जन्नत से कम नहीं थी। बारिश के मौसम में तो वह और भी हरा-भरा और जीवंत हो जाता था। चूंकि वो जंगल बहुत बड़ा या घना नहीं था, हमें पूरा इलाका छानने में लगभग आधा घंटा लगा। लेकिन न तो अंकुश मिला और न ही जंग बहादुर। धीरे-धीरे अँधेरा भी होने लगा था, और चिंता बढ़ती जा रही थी। डर सिर्फ डांट का नहीं था — बल्कि इस बात का भी कि किसी बड़े को बताए बिना निकलना हमें और मुश्किल में डाल सकता था। अब तो उसे ढूंढ़ निकालना ही हमारा एकमात्र लक्ष्य बन गया था।

हम सब यही सोच ही रहे थे कि आगे क्या करें, तभी हमें जंग बहादुर के भौंकने की आवाज़ सुनाई दी। उस आवाज़ का पीछा करते हुए हम जंगल के पिछले हिस्से तक पहुँच गए — और वहीं हमें अंकुश मिला। बात करने पर पता चला कि वह हमारी आवाज़ें सुनते हुए धीरे-धीरे पीछे की तरफ निकल गया था, और जब उसे लगा कि शायद हम घर लौट गए हैं, तभी जंग बहादुर को हमारी आवाज़ पहचान में आ गई और वह भौंकने लगा। पहले तो हमने चैन की साँस ली, फिर अंकुश को थोड़ा डांटा — और तेज़ी से घर की ओर चल पड़े। घर पहुँचते ही सवालों की जैसे बरसात होने लगी। सब जानना चाहते थे कि हम कहाँ चले गए थे। इस पर हम सब आपस में मुस्कुरा कर अपने-अपने कमरों की ओर भाग गए। आज तक हमारे अलावा किसी और को यह पता नहीं चला कि हम उस दिन कहाँ थे और क्या हुआ था।

पढ़ाई में भी हम सब अव्वल थे। हम एक साथ बैठकर पढ़ते, एक साथ ही उठते। बड़े बच्चों की तरह एक-दूसरे की मदद करते, और जब कभी किसी मुसीबत में फँस जाते, तो एक-दूसरे का सहारा भी बनते। शायद यही एक बड़ा कारण था कि कोई हमें एक-दूसरे के खिलाफ कभी भड़का नहीं पाया। हमारे बीच जैसा आपसी प्रेम था, वैसा शायद ही कहीं और देखने को मिले। इस बात का जितना हमें गर्व था, उतना ही मन में एक डर भी रहता था — कहीं ऐसा न हो कि हम कभी एक-दूसरे से अलग हो जाएँ। अब जब हम सब अलग-अलग शहरों में रहने लगे हैं, तो मैं पूरे दिल से कह सकती हूँ कि दूरियाँ चाहे जितनी भी हों, दिल से दिल का संबंध हमने कभी टूटने नहीं दिया।

भगवान की बड़ी अनुकंपा है हम पर — चोट किसी एक को भी लगे, दर्द सबको होता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण मुझे तब मिला, जब पिछले साल मेरा एक्सीडेंट हुआ था। 24 घंटे के अंदर सब मेरे अस्पताल के कमरे में पहुँच गए थे। सबकी आँखें नम थीं, और हम सबने आँखों ही आँखों में एक-दूसरे को संभाल लिया था। मुझे याद है, बचपन में अगर किसी की तबीयत थोड़ी भी खराब हो जाती या किसी को हल्की सी चोट लग जाती, तो बाक़ी सब उसकी सेवा कुछ ऐसे करते जैसे घर ही अस्पताल बन गया हो। जितना मैं अपने बचपन को याद कर के यह अफ़सोस करती हूँ कि हम बड़े क्यों हो गए, उतनी ही खुशी भी होती है कि बड़े होने के बाद भी हमारे आपसी रिश्ते उतने ही मज़बूत रहे हैं।

जब भी मैं अपने बचपन की इन घटनाओं का स्मरण करती हूँ, आँखों से आँसू निकल ही जाते हैं। इन यादों की बारिश में भीगकर मैं अपना बचपन फिर से जी लेती हूँ। अचानक फोन से आवाज़ आई — देखा तो पता चला कि फैमिली ग्रुप पर एक निमंत्रण आया है, रिया दीदी की शादी का ! अब समझ में आया कि फुर्सत क्यों नहीं मिल रही थी बारिश का लुत्फ़ उठाने की — शादी की तैयारियाँ जो चल रही थीं। निमंत्रण पढ़ते ही मेरे चेहरे पर एक बड़ी-सी मुस्कान, कुछ आँसुओं के साथ, आ गई।

अंतिम पंक्ति में लिखा था —”मेरी दीदी की शादी में जलूल जलूल आना”।

 

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