मेवे के लड्डू

सुधियाजी ने आज मेवे के लड्डू बनाये थे, किचन की सीमा को लाँघ कर उसकी खुशबू फ्लैट के सम्पूर्ण आबोहवा में तैर रही थी। खाने की इच्छा हुयी, किन्तु निर्देश ये थे कि पहले भगवान को भोग लगाया जायेगा तभी स्वाद लेने का लाभ प्राप्त हो पायेगा। इंतजार करने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता उपलब्ध नहीं था। जब भी घर में मेवे के लड्डू के प्रसंस्करण का कार्य शुरू होता है, हम नेपथ्य में चले जाते हैं और बचपन के लड्डू याद आते हैं, उनका आकार, उनका स्वाद और उनका मूल्यांकन। जीवन के इस पड़ाव में भी वही भावना आज भी उत्पन्न होती है।

यह बात बहुत ही पुरानी है जब मैं बहुत ही छोटा था। मेरे पिता जी कलकत्ते में अपना जीवन यापन करने के लिये रहते थे और हमारी अम्मा गाँव में रहती थीं। पिताजी छुट्टियों में गाँव आये थे और छुट्टियाँ खत्म होने के बाद कलकत्ते को प्रस्थान करना था। मुझे भी पिताजी के साथ जाना था। उस समय अम्मा ने मेवे के लड्डू बनाकर दिया था कि वक्त - बेवक्त काम आयेंगे और उन लड्डुओं को सुरक्षित एक बैग में रख दिया जाता था। कलकत्ते पहुँचने के लिये कई प्रकार के साधनों का उपयोग किया जाता था। उस समय यातायात के साधन अत्यंत ही सीमित थे। गाँव अपने विकास के लिये आशावादी नजरों से व अपने उत्थान के लिये किसी चकोर की भाँति किसी चंद्र की प्रतीक्षा में बाट जोहा करता था।

और उन लड्डुओं को सुरक्षित एक बैग में रख दिया जाता था। कलकत्ते पहुँचने के लिये कई प्रकार के साधनों का उपयोग किया जाता था। उस समय यातायात के साधन अत्यंत ही सीमित थे। गाँव अपने विकास के लिये आशावादी नजरों से व अपने उत्थान के लिये किसी चकोर की भाँति किसी चंद्र की प्रतीक्षा में बाट जोहा करता था।

गाँव से बीघापुर स्टेशन (जिला उन्नाव) जाने के लिये बैलगाड़ी का उपयोग किया जाता था। बैलगाड़ी में एक छड़ी जिसके आगे लोहे की कील लगी होती थी उसे रखते थे, इसको "अरइ" भी कहते थे जहाँ तक मुझे याद है। इसका प्रयोग तब करते थे जब बैल अपनी भूमिका का निर्वहन उचित प्रकार नहीं कर रहा होता था। यदि वह सेल्फ - मोटिवेटेड रहता था तो यह निर्देश था कि - "चलते हुये बैल के अरई नहीं कोंची जाती।" प्रबंधन का सिद्धान्त यहाँ भी लागू था - अरई एक प्रकार से दंड के रूप में उपयोग में लाया जाता था, यदि हम अपनी भूमिका का निर्वहन यथा उचित नहीं कर रहें हैं और जो सही कार्य कर रहा है, उसके साथ खिच - खिच कर उसे हतोत्साहित नहीं करना है। एक लाठी और काला वाला छाता भी रहता था जिसका प्रयोग बैलों को भगाने में किया जाता था। सारे अस्त्र - शस्त्रों से लैस होकर निकला जाता था, कब किस चीज़ की आवश्यकता महसूस हो। जब आवश्यकता महसूस होती थी, छाते को खोला जाता था और बैलों के पैरों में एक अजीब सा संवेग उत्पन्न होता जाता था, इसके खुलते ही। बैल भी बेचारे बैल थे पता नहीं इसको क्या समझते थे, शायद स्काईलैब जैसी कोई वस्तु समझते होंगे और बचने के लिये भागते होंगे किन्तु उनकी लगाम मालिक के हाथ होती थी इसलिये नियंत्रण में भागते थे।

एक घटना साझा करना चाहेंगे। एक दिन हम अपने एक अग्रज के साथ बैलगाड़ी से बीघापुर रेलवे स्टेशन किसी को रिसीव करने जा रहे थे। स्टेशन वाले ऊसर के पास पहुँचने पर बैलों ने तीव्र गति दिखाई और दौड़ लगाई। उसी वक्त एक दूसरी दिशा से बैलगाड़ी आ रही थी। उस वक्त बैलगाड़ियों में रेस, जिसे हमलोग कटाई - कटावा कहते थे, हो जाती थी और यह आम बात थी। उस बैलगाड़ी और हमलोगों वाली बैलगाड़ी के मध्य कटाई - कटावा हो गया। दोनों गाड़ियाँ बराबर से दौड़ रहीं थीं। काँटे की टक्कर थी। हमें काफी मजा आ रहा था। अचानक दूसरी गाड़ी में बैठा हुआ व्यक्ति जो हमारे अग्रज के उम्र का ही होगा, लाठी निकालकर बैलों को दौड़ाना शुरू किया। दौड़ चल ही रही थी कि उसने भाला भी निकाल लिया और बैलों को हाँकना शरू किया। काँटे की टक्कर, जैसे कि रथ दौड़ रहे हों। हम भी खड़े होकर बैलों का मनोबल बढ़ा रहे थे। हमलोगों ने अपना छाता निकाल लिया और उसे खोलकर बैलों को दिखाया तो बैल भड़क गये। भागना शुरू किया पूरी दम लगाकर और ऐसा भागे की उनको काबू कर पाना कठिन हो रहा था किन्तु वे आगे निकल गये। यह हो तो गया किन्तु यह चिंता लगी रही की जो व्यक्ति भाला निकाल सकता वह हारने पर कुछ भी कर सकता है। पर हमलोग सकुशल वापस घर आ गये। उन बैलों में दायीं तरफ वाला बैल काफी सुडौल, उसकी सींगें एक दूसरे की ओर देखती हुयी व्यवस्थित प्रकार से थीं, उसकी पीठ पर जो उभरा स्थान था वह भी अत्यंत ही सुडौल था। उसे देख कर सुख की अनुभूति होती थी।

बीघापुर रेलवे स्टेशन एक बड़ा स्टेशन माना जाता था। उसकी खूबसूरती उसके सामने फैला हुआ एक ऊसर था, जो आज भी है कुछ परिवर्तन के साथ, मुझे अत्यन्त ही प्रिय था और अभी भी है। बीघापुर रेलवे स्टेशन न जाने कितनी स्मृतियों को सँजोये हुये आज भी अपनी सतत सेवा में तल्लीन है। उस क्षेत्र के न जाने कितने महान विभूतियों के संघर्ष - गाथा के एक विश्वसनीय गवाह के रूप में स्थित है। इसने उन पग - चिन्हों को अपनी जमीन प्रदान कर उनके उत्थान में अपनी महती भूमिका का निर्वहन किया है। इस स्टेशन की सदैव ही यह उत्कट इच्छा रही होगी कि इस क्षेत्र के लोग जिस दिशा में भी अपने पग बढ़ायें, वहाँ उनकी पहचान बने, उन्नति करें और यह क्षेत्र भी उनके नाम से जाना जाये और पहचाना जाये। लोगों को उनके गंतव्य की ओर विदा कर कितनी सुखद अनुभूति उसे प्राप्त होती होगी यह कल्पना का विषय है। और आने वालों के स्वागत में इसकी खुशी भी अव्यक्त है। यह मूक - दर्शक तो कभी नहीं रहा अपितु सक्रिय भूमिका का निर्वहन इस क्षेत्र जनता की प्रगति के लिया किया। आज भी जब गाँव जाने का कार्यक्रम बनता है तो उसमें बीघापुर रेलवे स्टेशन पर स्थित बेंच पर बैठना भी सम्मिलित होता है। इतनी शांति में भी पुरानी यादें खलबली मचा जाती हैं।

बीघापुर से रायबरेली ट्रेन से कानपुर सेंट्रल स्टेशन आना होता था। उस ट्रेन में सभी वेंडर अपनी वस्तुओं को बेचते थे, किन्तु उसमें सबसे प्रमुख एक बाजपेयी जी थे, जहाँ तक मुझे याद है। वे रेवड़ी, कम्पट जोकि उस समय अत्यंत ही प्रचलित था पिज्जा, बर्गर आदि की तरह दवाइयाँ और अन्य वस्तु भी बेचते थे। वे अपनी कला में अत्यंत ही निपुण थे। आज के जितने भी मार्केटिंग गुरू हैं वे सब उनके समक्ष नत-मस्तक होते यदि वे आज होते। वे यात्रियों के साथ एक कनेक्शन बनाते थे और इमोशनल इंटेलीजेंस का प्रयोग करते थे। कुछ भय का भी प्रयोग, ऐसा नहीं करोगे तो यह नुकसान और वैसा नहीं करोगे तो वह नुकसान। "मौसी आयीं कुछौ न लायीं" की भावनात्मक अपील तथा सामाजिक शिष्टाचार की सीख भी कि किसी के यहाँ यदि आप जा रहें हैं तो खाली हाथ नहीं जाना चाहिये। और उनका टार्गेट सेगमेंट हुआ करता था - "मौसी अर्थात मातृ-शक्ति।" दवाओं के लिये - "लरिकउना वांकत होय पौंकत होय" की पंच लाइन niche मार्केटिंग को सिखा रही होती थी। कानपुर को दूध की आपूर्ति गाँवों से होती थी आज भी होती है। आज तो कई साधन हैं किन्तु उस वक्त रेल ही माध्यम था। लोग अपने गाँव से साइकिल से दूध लाते थे फिर साइकिल और डिब्बों को रेल में लाद लेते थे। आवश्यकता आविष्कार की जननी है। साइकिलों को न कहीं बाँधना न कहीं चढ़ाना केवल उनको रेल की खिड़की में हैंडल और पैडल से फँसा देना और सब धड़ - धड़ करते अपने गंतव्य को पहुँच जाती थीं। गाँव के लोगों के इंटेलिजेंस के आगे हम नतमस्तक हो जाते थे। इसी प्रकार खचर - पचर करते हुये हम लोग कानपुर पहुँच जाते थे।

कानपुर में स्टेशन पर इंतजार करते थे तूफान मेल या कालका मेल का। इन्हीं किसी पर सवार होकर कलकत्ते की ओर प्रस्थान करते थे। ट्रेन में खिड़की के पास बैठने का अपना अलग ही आनन्द है। ट्रेन की खिड़की के बाहर के दृश्य को देखते हुये एक कोमल मन विभिन्न प्रकार की भावनाओं की उठती गिरती लहरों में डूबता उतराता रहता था। गाँव के बाहर के संसार को देखने की उत्सुकता, उस वक्त भारत के सबसे बड़े शहरों में से एक शहर में रहने का गर्व, माँ से बिछड़ने का अवसाद, पिता की छाया की सुखद अनुभूति और अकेलेपन का दर्द।

कलकत्ते के जिस मकान में हमलोग रहते थे वह हावड़ा - ब्रिज के पास ही हुआ करता था। उस मकान का नाम लम्बीबाड़ी था। लम्बीबाड़ी का मुख्य भाग चौड़ाई में कम था और गहराई में ज्यादा था। शायद इसीलिए इसे लम्बीबाड़ी कहते होंगे। लम्बीबाड़ी के तीसरे तल्ले पर स्थित था एक छोटा सा कमरा। वह कोठरी ही हम लोगों का आश्रय थी जिसे हम लोग कोठरिया कहते थे। लंबाई-चौड़ाई का अनुमान तो नहीं लगा पा रहे, किन्तु दो लोग ही बहुत ही मुश्किल से सो सकते थे और उनमें से यदि कोई लम्बा व्यक्ति हुआ तो पैर मोड़ने पड़ सकते थे। उसी में खाना बनाना और अन्य क्रियायें भी। कोठरिया में प्रवेश करते ही बायें तरफ दीवाल में शायद लकड़ी के पटरे लगे हुए थे जिनका उपयोग सामान वगैरह रखने के लिये होता था। वहीं पर मेवे के लड्डू का झोला रखा रहता था। कोठरिया में एक छोटी सी खिड़की भी हुआ करती थी जो वाह्य दृश्य से रूबरू कराती थी।

स्कूल से आने के बाद पूज्य पिताजी की अनुपस्थिति एवं माँ से हजारों मील दूर एक बालक के लिये मेवे के लड्डू ही ऊर्जा संचरण का माध्यम व कारक हुआ करते थे। खिड़की के बाहर खुले आसमान में आँखें कुछ खोज रहीं होती थीं। पता नहीं कितने सपने देखे होंगे, साकार हुये हैं या नहीं, यह तो जीवन ही जाने। खिड़की के बाहर हावड़ा ब्रिज का दृश्य अद्भुत लगता था। सामने छह तल्ले की एक बिल्डिंग दिखायी देती थी। ऐसा बताया जाता था कि उसी बिल्डिंग के छठवें तल्ले पर मेरा जन्म हुआ था। इस बिल्डिंग को निहारने में सुख का अनुभव होता था।

खिड़की पर बैठकर लड्डू खाना, माँ की याद दिलाया करता था। किन्तु ये लड्डू कितने दिनों तक साथ दे सकते थे, उन्हें एक न एक दिन खत्म हो जाना था। उन लड्डुओं में माँ के ममता की चासनी थी जो कि स्नेह की लौ में पके थे, वे लड्डू आशीर्वादों के पुंज थे, वे लड्डू आने वाले जीवन के पथ - प्रदर्शक थे, वे लड्डू अपने बिछड़ते हुये पुत्र के नजरबट्टू थे जो कि पुत्र के चारों ओर एक रक्षा कवच को निर्मित करें। अपने पुत्र से दूर रहना कितना कष्टकारी और दुरूह कार्य होता होगा और उस कष्ट को कम करने के लिये, अपने स्वयं को समझाने के लिये, अपनी सारी भावनाएं और ममता उन लड्डुओं में उड़ेल देती होंगी, जिसका स्वाद अतुलनीय व लाजवाब हो जाता होगा। जीवन की इतनी लंबी यात्रा करने के बाद भी उन लड्डुओं जैसा स्वाद फिर दुबारा नहीं मिला। जब भी घर में लड्डू बनते हैं, वे लड्डू अचानक अचेतन मन से निकल कर आज के विचारों में उपस्थित हो जाते हैं। अचानक आवाज आयी कि भगवान का भोग लग गया है अब इन्हें ग्रहण किया जा सकता है। लड्डू अत्यंत ही स्वादिष्ट थे किंतु जीवन में खुशियों के जितने भी लड्डू मिलें हैं उन सभी लड्डुओं पर बचपन के वे लड्डू सदैव भारी रहें हैं। वे अनमोल थे जिनका स्थान कोई भी नहीं ले सकता है यह शाश्वत सत्य है।

राकेश शंकर त्रिपाठी, कानपुर