
सीमा त्रिवेदी, नवी मुंबई
सुबह सवेरे सूरज-सी माँ, घर में उजियारा भरती है।
थाली में बन घी की रोटी, क्षुधा कुटुम्ब की हरती है॥
दुख की लू जब देह तपाती, मरु सम जीवन बन जाता है।
बन जाती शीतल सरिता वो, ममता से पीड़ा हरती है॥
लगे चोट तो आँचल माँ का, पट्टी मरहम बन जाता है।
नींद न आए बन कर लोरी, उनका सुर सपना लाता है॥
जीवन पथ में संतानों के, दीपक बन कर ख़ुद जलती है।
संतति को तो पथ दिखलाती, आत्म स्वप्न को ख़ुद छलती है॥
ज्ञान की पुस्तक बनकर माता, जीवन मूल्य सिखा देती है।
कभी वो बन कर मीठी बोली, कटु यथार्थ बता देती है॥
एक घरौंदा उसका देखो, हर संतान का घर होता है।
वृद्ध मातु हो किसके ज़िम्मे, औलादों में रण होता है॥
माँ है आदि, माँ है अनंता, वसुधा सृष्टि रचयिता माँ है।
गर जीवन कुरुक्षेत्र बने तो, श्याम कृष्ण की गीता माँ है॥
जीवन रण में सिंह-स्वरूपा, घर में स्नेह सुधा-सी माँ है।
शब्द नहीं जो वर्णन कर दे, ऐसी दिव्य विधा-सी माँ है॥
