भारत में राष्ट्रभाषा की आवश्यकता और भाषा आधारित वैमनस्य

अशोक वर्मा हमदर्द कोलकाता

भारत एक ऐसा देश है जिसकी सांस्कृतिक विविधता पूरे विश्व में अनुपम मानी जाती है। यहां भाषाएं, बोली, पहनावा, खानपान, रीति-रिवाज सब कुछ हर कुछ सौ किलोमीटर में बदल जाते हैं। यह विविधता हमारी पहचान है, लेकिन जब यह विविधता आपसी वैमनस्य का कारण बनने लगे, तो उस पर पुनर्विचार आवश्यक हो जाता है। आज भारत के समक्ष एक ऐसा ही संकट है—राष्ट्रभाषा का अभाव।

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, लेकिन यह शायद दुनिया का अकेला ऐसा बड़ा देश है जिसकी कोई स्वीकृत राष्ट्रभाषा नहीं है। भारत के संविधान में हिंदी और अंग्रेज़ी को राजभाषा का दर्जा दिया गया, किंतु राजभाषा और राष्ट्रभाषा में मूल अंतर है। राष्ट्रभाषा केवल शासकीय भाषा नहीं होती, वह भावनाओं और एकता की भाषा होती है। जो देश को मन, वचन और कर्म से एक सूत्र में बांधती है। भारत में हिंदी को यह स्थान दिया जाना था, परंतु राजनीतिक और क्षेत्रीय कारणों से आज भी हिंदी अपने ही देश में राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी।

यह विडंबना ही है कि जिस देश में लगभग 43 प्रतिशत लोग हिंदी को अपनी पहली भाषा के रूप में बोलते हैं, वहां यह भाषा आज भी कई राज्यों में विरोध का विषय बनी हुई है। यह विरोध महज एक भाषा का विरोध नहीं है, यह विरोध एक भारत की संकल्पना का विरोध है। दक्षिण भारत में हिंदी को ‘थोपी गई भाषा’ कहकर नकारा जाता है। बंगाल में ‘बांग्ला अस्मिता’ के नाम पर हिंदीभाषियों के प्रति विद्वेष देखने को मिलता है। महाराष्ट्र में ‘मराठी मानुस’ के नारे के साथ उत्तर भारतीयों को प्रांतवादी राजनीति का शिकार बनाया जाता है।

यह दृश्य केवल विघटन का ही नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा को खंडित करने का प्रयास भी है। भाषा के नाम पर जिस प्रकार के कट्टर विचार फैले हैं, उससे राष्ट्रीय एकता पर सीधा आघात हुआ है। किसी राज्य में यदि हिंदी बोलने वाला बच्चा स्कूल में उपहास का पात्र बन जाए, तो यह उस राष्ट्र के भविष्य पर प्रश्नचिह्न है।

हिंदी विरोध को अक्सर यह कहकर उचित ठहराया जाता है कि हिंदी उत्तर भारत की भाषा है और इसे दूसरों पर थोपा जा रहा है। लेकिन यह तर्क तथ्यात्मक नहीं है। हिंदी केवल उत्तर भारत की भाषा नहीं है, बल्कि वह उन दर्जनों बोलियों का समन्वय है जो पूरे देश की भूमि में रची-बसी हैं—अवधी, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी और अन्य कई बोलियाँ मिलकर हिंदी को गढ़ती हैं। यह भारत की मिट्टी की भाषा है, इसकी आत्मा की आवाज़ है।

भारत के संविधान निर्माताओं ने यह अपेक्षा की थी कि हिंदी धीरे-धीरे राष्ट्र की मुख्य भाषा के रूप में विकसित होगी और अंग्रेज़ी की निर्भरता समाप्त हो जाएगी। लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा। आज अंग्रेज़ी भारत के प्रशासन, न्यायपालिका, तकनीकी शिक्षा और व्यापार की प्रधान भाषा बन गई है। हिंदी, जिसे भारत के आम जन जीवन की भाषा बनना था, आज गूढ़ नीतियों और दोहरी मानसिकता की शिकार बन गई है।

हमारे यहां अंग्रेज़ी जानना बुद्धिमत्ता की निशानी माना जाने लगा है और हिंदी बोलने वालों को पिछड़ेपन का प्रतीक समझा जाने लगा है। यह स्थिति गुलामी की मानसिकता की देन है। यह वही सोच है जो भारत में अंग्रेज़ों ने रोपी थी—जिसने सिखाया था कि जो अंग्रेज़ी बोले वही श्रेष्ठ है। स्वतंत्र भारत ने उस मानसिकता को बदलने की बजाय उसे और मजबूत कर दिया। परिणामस्वरूप आज भी हमारी सर्वोच्च न्यायालय की भाषा अंग्रेज़ी है, हमारी नौकरशाही अंग्रेज़ी से ही संचालित होती है, और हमारा शिक्षा तंत्र भी अंग्रेज़ी को ही प्राथमिकता देता है।

अगर हम विश्व के उन्नत राष्ट्रों की ओर देखें तो हमें एक स्पष्ट अंतर दिखता है। फ्रांस, जर्मनी, जापान, चीन, रूस—इन सभी देशों ने अपनी भाषाओं को ही विज्ञान, तकनीक, प्रशासन और न्याय का माध्यम बनाया है। यही कारण है कि आज वे देश आत्मनिर्भर भी हैं और सांस्कृतिक रूप से भी सशक्त। भारत जैसा देश, जिसकी अपनी इतनी समृद्ध भाषाई विरासत है, आज भी अपनी भाषा की उपेक्षा करके आत्म-हीनता का शिकार है।

दुर्भाग्य यह है कि भाषाई आधार पर राजनीति ने देश की जड़ों को खोखला कर दिया है। भाषाओं के नाम पर क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने वोट बैंक बनाए हैं और जनता के मन में यह भ्रम भर दिया है कि एक भाषा को राष्ट्रभाषा बनाना, अन्य भाषाओं का अपमान है। जबकि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। राष्ट्रभाषा का अर्थ किसी अन्य भाषा को दबाना नहीं, बल्कि एक साझा संवाद की भूमि तैयार करना होता है।

हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा देना, अन्य भाषाओं को मिटाना नहीं है। भारत की तमाम भाषाएँ—तमिल, तेलगू, मलयालम, कन्नड़, मराठी, गुजराती, ओड़िया, बांग्ला—हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। इनका संरक्षण और संवर्धन अनिवार्य है। लेकिन राष्ट्र के संचालन और संवाद के लिए एक साझा भाषा का होना भी उतना ही आवश्यक है। जो भाषा करोड़ों भारतीयों द्वारा बोली जाती है, जो देश के कोने-कोने में समझी जाती है, जो सहज और सरल है—वह राष्ट्रभाषा बनने की सबसे योग्य दावेदार है।

हिंदी को यदि सम्मानजनक तरीके से, बिना किसी दुराग्रह के, देश की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रस्तुत किया जाए, तो उसका व्यापक स्वीकार होगा। लेकिन इसके लिए सरकार और समाज दोनों को संयम और समानता से काम लेना होगा। हिंदी का विरोध न करके, उसे अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सामंजस्य में रखकर एक राष्ट्रीय पहचान दी जा सकती है।

राष्ट्रभाषा केवल भाषा का विषय नहीं है, यह राष्ट्र की आत्मा का विषय है। यह उस संवेदना का प्रश्न है, जो हमें एकता के सूत्र में बांधती है। जब कोई देश अपनी भाषा से मुंह मोड़ लेता है, तो वह अपनी पहचान खो देता है। भारत को इस पहचान को बचाना होगा। राष्ट्रभाषा का होना हमारी संस्कृति की अखंडता के लिए आवश्यक है।

एक भारत, एक संविधान और एक राष्ट्र की परिकल्पना तभी पूर्ण होगी, जब हमारे पास एक राष्ट्रभाषा भी होगी—जो न केवल हमारी बात कह सके, बल्कि हमारे दिलों को भी जोड़ सके। आज आवश्यकता है कि हम भाषाओं की लड़ाई से ऊपर उठकर राष्ट्रभाषा की भावना को समझें और स्वीकार करें। तभी भारत वास्तव में उस वैश्विक मंच पर खड़ा हो सकेगा, जहां उसकी संस्कृति, विज्ञान, विचार और भाषा सब कुछ उसकी अपनी धरती से उत्पन्न हो और अपनी ही भाषा में बोले।

भारत को अब तय करना होगा कि वह अपनी भाषाई अस्मिता को लेकर कब तक भ्रमित रहेगा। यह निर्णय केवल सरकार का नहीं, बल्कि हर नागरिक का है। यदि हम हिंदी को या किसी भी भारतीय भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में संकल्प नहीं लेंगे, तो आने वाला समय हमें एक बिखरे हुए संवादहीन समाज की ओर धकेल देगा, जहां कोई एक-दूसरे की भाषा नहीं समझेगा, और कोई राष्ट्र एक नहीं रहेगा।

हमें याद रखना चाहिए—राष्ट्र केवल भूगोल से नहीं बनते, वे विचारों, भावनाओं और भाषा से बनते हैं। और जब एक भाषा सबको जोड़ती है, तब ही वह राष्ट्र की आत्मा बनती है।

भारत को उसकी भाषा दीजिए,
भारत आपको उसका आत्मगौरव  लौटाएगा।

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