बुजुर्गों के अकेलेपन का ठिकाना, गाँव : मॉडर्न वृद्धाश्रम

बिपिन राय

कुछ लोग बैठे हैं। बुजुर्गों के मान-सम्मान की बात हो रही है। कोई कह रहा है कि जमाना काफी बदल गया है, अब बुजुर्गों को लोग भार समझने लगे हैं। तभी कोई कहता है – सही कहा आपने, अभी फलां आदमी ने अपनी माताजी को वृद्धाश्रम भेज दिया। पैसा-रुपया होने के बाद भी यह हाल है। हमें देखो, हमारे माता-पिताजी गाँव में रहते हैं। उनके लिए हमने कोई कसर नहीं छोड़ी है। पक्का मकान है, कुलर, फ्रिज सब लगवा दिया है। वीडियो कॉल पर कभी-कभी बात हो जाती है। मजे में दिन कट रहे हैं उनके। तभी, कोई कहता है – हाँ जी हमने भी गाँव में सब मॉडर्न व्यवस्था करवा दी है। मम्मी-पापा आते-जाते रहते हैं। उनको तो गाँव में ही अच्छा लगता है। सच में आजकल ऐसा ही है। गाँव बुजुर्गों के अकेलेपन का नया ठिकाना बनता जा रहा है। बहाना कुछ भी हो, गाँवों की सूरत बदल रही है। गाँव में अब ज्यादातर बुजुर्ग ही दिखाई देने लगे हैं। भले ही इसका कारण अलग-अलग हो सकता है। 

अकेलेपन का नया ठिकाना बनता जा रहा है। बहाना कुछ भी हो, गाँवों की सूरत बदल रही है। गाँव में अब ज्यादातर बुजुर्ग ही दिखाई देने लगे हैं। भले ही इसका कारण अलग-अलग हो सकता है।

आज के समय में युवा वर्ग अपने उज्ज्वल भविष्य की तलाश में शहरों और महानगरों की ओर बढ़ रहा है। इस बदलाव के पीछे बेहतर शिक्षा, रोजगार और आधुनिक जीवनशैली की आकांक्षा है। लेकिन इसके साथ ही गांव में बच जाते हैं बुजुर्ग, जो अपने बच्चों के लिए त्याग करते-करते अकेले रह जाते हैं। ऐसे गांवों में, जहां कभी बच्चों की हंसी गूंजा करती थी, आज सन्नाटा पसरा रहता है।

गांव अब केवल खेती-बाड़ी और ग्रामीण जीवन का केंद्र नहीं रहे। यह धीरे-धीरे वृद्धाश्रम में तब्दील हो रहे हैं, जहां अधिकतर निवासी बुजुर्ग हैं। ये बुजुर्ग न केवल अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हैं, बल्कि अपने परिवार से दूर होने के दुख के साथ जी रहे हैं। उनके पास संसाधन तो हैं, लेकिन सामाजिक जुड़ाव और भावनात्मक समर्थन की कमी साफ दिखती है। वे बच्चों, पोते-पोतियो का मुँह देखने के लिए तरसते रहे हैं।

शहरों में जीवन भर काम करने वाले भी बुढ़ापे में गांव लौटने को मजबूर हो जाते हैं। महानगरों की तेज़ रफ्तार ज़िंदगी, महंगी जीवनशैली, और अकेलापन बुजुर्गों के लिए चुनौती बन जाता है। रिटायरमेंट के बाद, जब आमदनी कम हो जाती है और खर्चे बढ़ते हैं, तो गांव ही उनके लिए एकमात्र सहारा बनता है।

बुजुर्गों के लिए मोबाइल फोन और इंटरनेट ने उनके बच्चों से जुड़ने का माध्यम प्रदान किया है। हालांकि, यह जुड़ाव स्थायी या संपूर्ण नहीं है। यह केवल एक आभासी समाधान है, जबकि उनके जीवन में शारीरिक और मानसिक सहारे की आवश्यकता होती है। यह गाँव के वृद्धाश्रम में भी संभव नहीं है।

गांवों को मॉडर्न वृद्धाश्रम में बदलने के बजाए, इन्हें ‘मॉडर्न गांव’ में परिवर्तित करना चाहिए। वहां ऐसी सुविधाएं विकसित की जाएं, जो हर आयु वर्ग के लिए आकर्षक हों। रोजगार के अवसर, स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा के साधनों को गांवों में ही उपलब्ध कराया जाए।

गांव केवल भूमि का एक टुकड़ा नहीं हैं, बल्कि हमारी संस्कृति और जड़ों का प्रतीक हैं। लेकिन जब शहरों में जीवन बिताने वाले भी बुढ़ापे में गांव लौटने को मजबूर होते हैं, तो यह सोचने का समय है। हमें गांवों को मॉडर्न वृद्धाश्रम बनने से रोकने के लिए प्रयास करना होगा। गांवों को ऐसा स्थान बनाना होगा, जहां हर आयु वर्ग खुशी-खुशी जीवन जी सके। यह तभी संभव होगा जब गांव आधुनिक विकास और पारंपरिक मूल्यों का संगम बनेंगे, और सभी के लिए एक बेहतर जीवन की नींव तैयार करेंगे।

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