बढ़ती अर्थी व्यवस्था में गरीबी का मातम

अमित मिश्रा

भारत में श्रमिकों का काम करते-करते हाथ की रेखा भले मिट जाये पर हाथ से गरीबी की रेखा नहीं मिटती। गरीब भारत की सच्चाई के बहुत करीब रहता है। गरीबी मिटाओ – देश बचाओ का नारा इंदिरा गांधी के समय एक ज्वलंत मुद्दा था पर गरीबी रेखा के अंतर्गत रोते गए जीवन की खुशहाली का आंकड़ा बदहाली का फासला में बदलता गया। स्पर्धा – अमीरी और गरीबी के स्थान पर गरीब और बेहद गरीब का अंतर लेती गई और आज के समय में मनरेगा में भी वही हो रहा है। गरीबों को
दिए जा रहे 5 किलो राशन में हो रहा घपला, राशन वितरण में उनकी मेहनत को काम में न लगाकर उन्हें सुस्त बनाने की तरकीब भारत के विकास सूचकांक का हाल बयां करता है कि भारत दुनिया कि चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था के पश्चात अब तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है, पर भारत की आंतरिक अर्थव्यवस्था में गरीबी का सूचकांक घटने की जगह बढ़ता ही जा रहा है।

यह एक ऐसी खाई है, जो पहले के वनिस्पत और अधिक गहरी होती जा रही है। गरीब की प्राथमिक जरूरत भी ठीक से मुहैया नहीं हो पाती ऐसी सूरत में भारत विश्व कि चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दावा करता है, जबकि भारत के पास गरीबों को देने के लिए सही तरीके से स्वास्थ की सुविधा भी नहीं है क्यों कि अस्पताल की खस्ता हालत, अच्छी दवाइयों का अभाव, दवाई की पूर्ति में कमी, दवाइयों में घपला भ्रष्टाचार का बोलबाला इनमें कहीं कोई कमी नहीं है। बस एक बार नजर घुमा के देखते ही
डाक्टरों की निष्ठा व संख्या, उनका रवैया, अस्पताल में उपलब्ध रहने वाले बिस्तरों की न्यूनता इत्यादि अनेक ऐसे मसलें उजागर होते हैं। पर उनका मुआयना करने वाले नेता जी नहीं आते, नेताओं को सरकारी अस्पताल में अपना उपचार करवाना अत्यंत संवैधानिक अपरिहार्यता और अधिकार के तहत अनिवार्य कर देना चाहिए। यह कानून अवश्य बनना चाहिए, ताकि सरकारी अस्पताल की सुध लेने वाले मुख्य जन प्रतिनिधि की जीवन – डोर सरकारी अस्पताल से बंध कर जिम्मेदाराना हो सके। नेता जी का कुल परिवार नेता जी के साथ सरकारी अस्पताल में ही अपना ईलाज करवा सकता है, अन्यथा नहीं। चूंकि जन प्रतिनिधि का धन- जनता के लिए है, धन बनाने और धन्ना सेठ बनकर सत्ता कि पैठ बनाने के लिए कतई नहीं है। वो अपने धन की एक-एक पाई का हिसाब दें। वो पूरा समय जन दायित्वों को पूरा करने हेतु देता
है या कि उसकी कमाई का कोई अन्य बड़ा श्रोत है तो उसकी कमाई के भी पाई-पाई को वो गरीबों को रोजगार देने के लिए इस्तेमाल करें। यदि उसने जन सेवा धन सेवा के लिए चुना है तो उसे अपदस्थ करके उसे उसकी मानव सेवा को याद दिलाना चाहिए। गरीब नेता के हाथ का मैल है जिसे नेता जब चाहे मसल देता है और उसकी बुनियादी जरूरतों का मसला ज्यों का त्यों बना रहता है। गरीबों के पास मानव संसाधन के रूप में बच्चों की कमी कतई नहीं है, गरीब परिवार में बच्चों की संख्या परिवार नियोजन का ख्याल करके नहीं पैदा किया जाता, धन नियोजन का ख्याल करके होता है, ताकि ज्यादा से ज्यादा परिवार के सदस्य कामकाजी – मेहनतकश बनकर धन – उपार्जन कर घर लायें, भले ही बच्चे कुपोषित पाले -पोसे गए हों, उनका स्वास्थ्य स्तर भले ही चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य जैसा बिल्कुल न हो, पर अपनी गरीबी को दूर करने हेतु उन्हें उत्कटता दिखानी ही पड़ती है। पर सरकार की तरफ से उनकी गरीबी दूर करने हेतु उत्कटता और इच्छा शक्ति का अभाव ही हर बार गरीबों को
और गरीब बनाने की दिशा में उन्हें सुविधा देने के नाम पर दुविधा दे रहा है, चाहे गैस कनेक्शन का मामला हो, चाहे इलेक्शन का मामला हो, वे मात्र सरकार के द्वारा भुनाए जा रहे हैं। 

शिक्षा का प्राथमिक अधिकार नि: शुल्क है, पर भीतर धन उगाही वाले विभिन्न तरीकों का शुल्क है। कभी दंड – भुगतान के नाम पर, कभी चंदा के नाम पर इत्यादि । फिर मध्यान भोजन के राशन के नाम पर हो रहा घपला है, स्वयं शिक्षक ही खाऊ गली का भक्षक है। स्वयं रक्षक ही भक्षक है – यह मिसाल अगर किसी को देखना हो तो वो सरकारी स्कूलों की तरफ रुख कर सकता है। यदि हो सके तो संविधान में एक सुविधा नेता जी के कुल परिवार के लिए अनिवार्य कर देनी चाहिएकि उनके परिवार का प्रत्येक बच्चा उनके सेवा क्षेत्राधिकार के तहत आने वाले सरकारी स्कूल में ही पढ़ सकता है, अन्यथा कहीं नहीं । उच्च शिक्षा का लाभ वो अन्य बच्चों की तरह कहीं भी ले सकता है, पर बुनियादी शिक्षा उसे अपने नजदीक के प्राथमिक सरकारी स्कूल में ही होनी चाहिए, ताकि इस बहाने नेता भी इस चौथी अर्थव्यवस्था के सरकारी स्कूलों की सुध ले सकें और गरीब के बच्चों में भी स्वाभिमान अपने बालपन से ही प्रबल हो सके कि गरीबों के बच्चे भी नेता जी के बच्चों के साथ पढ़ -लिख सकते हैं, आगे उनकी ही तरह बढ़ सकते हैं। यह प्रेरणा काम करेगी और स्वतः वो दिन दूर नहीं होगा कि गरीब के ज्यादा से ज्यादा बच्चे भी डॉक्टर, नेता अभिनेता, सरकारी मुलाजिम बेधड़क किसी आरक्षण के लिए बगैर सामान्य सवर्णों की तरह ही गरिमामयी उपाधि धारण करेंगे। उनकी योग्यता जब सभी सामान्य जन के रूप में मान्य है, तो फिर यह
राजनीतिक धांधली क्यों कर, सबको समान मानकर संविधान और सर्वोच्च न्यायालय यह अधिकार देता है कि भारत का प्रत्येक नागरिक भारत की संतान हैं। संतानो के बीच का वितरण व न्याय वरण में भेद – भाव से देश क्यों संदृषित हो रहा है। इसे राष्ट्रीयता के मुख का कालिख ना बनाते हुए देश के जिम्मेदार अगुवाओं को और देशवासियों को इस ओर अमलीजामा पहनाते हुए उन कानूनों को फिर से तैयार कर कार्यावित करना होगा जिससे भारत अपने पड़ोसी देश चीन से हीन न होकर जहीन हो सके। 

एक मजबूत राष्ट्र गरीबों की अनदेखी करके कदापि नहीं सुस्थापित हो सकता है। अगर एक भी गरीब देश में मौजूद है तो देश अभी भी पिछड़ा है, दकियानूसी है,राष्ट्र सेवा का अभाव से ग्रसित है, नेता का बुरा प्रभाव है। गरीब पैदा होना मजबूरी है, पर गरीब मरना जरूरी नहीं। यह चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश की नैतिक और मौलिक जिम्मेदारी है कि गरीब- गरीबी में न मरे, क्योंकि एक भी मानव संसाधन कि क्षति देश की अपूरणीय क्षति है। हम सबके सामने पड़ोसी देश नेपाल का उदाहरण ज्वलंत है।

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