पुस्तक की व्यथा

मै आज भी उसी स्थान पर बैठी हूँ, जब मैं पहली बार इस घर में आयी थी तब रखी गयी थी। इस बात को दो साल बीत गए। मुझे खरीदते तो बहुत से लोग हैं, पर उपयोग में बहुत कम लाते हैं। हाँ ! मैं एक पुस्तक हूँ। मेरी व्यथा कोई नहीं समझता। वैसे तो मुझे लाया पढ़ने के लिए गया था, पर सिवाय इसके अन्य सारे काम, जो मेरे लिए कभी बने ही नहीं थे, लिए जाते हैं। कभी तो मैं शोपीस बन जाती हूँ, तो कभी तकिया, कभी चित्र बनाने के लिए बोर्ड, तो कभी माउस चलाने के लिए पैड। और हद तो तब हो जाती है, जब बच्चे मुझे बल्ला बना कर खेलने लगते हैं। मैं जब बुक स्टोर में थी तब रोज़ मुझे कम से कम, साफ करने के लिए ही सही, दिन में एक बार उठा ही लिया जाता था। पर जबसे इस घर में आई हूँ, मुझे किसी ने पढ़ने के लिए हाथ भी नहीं लगाया और ये सिर्फ मेरी व्यथा नहीं है, मेरे जैसी और भी हैं यहाँ। मैं रोज़ यह सोचती हूँ कि कोई तो होगा, जो मुझे पढ़ना चाहेगा पर वो दिन कभी आता कहाँ। शायद कोई मुझे इसलिए नहीं पढ़ना चाहता क्योंकि मैं हिंदी साहित्य की किताब हूँ। मुझे अपने नज़रअंदाज किये जाने का अहसास तब हुआ जब घर में आये एक मेहमान ने मेरे बगल में रखी अंग्रेजी की किताब उठा ली।

हाँ! मैं सच कह रही हूँ पर अब याद आ रहा है कि ऐसा पहले भी हो चुका है। समय के साथ हिंदी साहित्य से ज्यादा अंग्रेजी साहित्य में लोगों की रूचि बढ़ती जा रही है। धीरे धीरे तो उससे भी लोग अपना मन हटाकर टी वी, मोबाइल, टैब इत्यादि उपकरणों में आँख टिकाकर घंटों बैठने में लगाने लगे हैं । आज की दुनियां में चीज़ें इतनी आसान हो गयी हैं कि मुझ तक पहुंचने से पहले लोग मेरे अंदर कि बातें अपने मोबाइल में देख लेते हैं। पर, यह करने से न सिर्फ उनकी आँखे खराब हो रही हैं बल्कि सोचने कि क्षमता भी कम हो रही है, जो उनकी सेहत के लिए बिलकुल भी अच्छा नहीं है। पर, मुझे यह भी पता है कि किताबें कभी ख़त्म नहीं होंगी। ऐसा इसलिए कि, हम पुस्तकें चिरकाल से अपने अंदर ज्ञान समेंटे पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हैं और या आगे भी यूँ ही चलता रहेगा। जाने कब इंसानों में यह सद्बुद्धि आएगी। तब तक मैं प्रतीक्षा करती रहूंगी कि कोई आये और मुझे पढ़ने के लिए उठाये।

ओह ! मैं चुप हो जाती हूँ, लगता है कोई आ रहा है, पर आप सोचियेगा जरूर .....

सुनिष्का त्रिपाठी, कक्षा ८, रायन इंटरनेशनल स्कूल, मुंबई