पावस रंग भरने लगे है...
पावस रंग भरने लगी है,
भग्नता हरने लगी है।
थार की स्वर्णिम धरा पर,
चित्रकारी करने लगी है।
वृक्षों ने रंगत बिखेरी,
बूंदों का स्पर्श पाकर।
सोना सी इस धरा पर,
घास पन्ना सी लगी है।
जो मरुथल गर्मियों में,
कठिन था किसी प्रश्न सा।
हल किया बरसा ने उसको,
धरा कागद सी लगी है।
दाता हुआ जबसे गगन,
धरा ने झोली पसारी।
मिट गयी कंगाली उसकी,
संभालने खुद को लगी है।
‘व्यग्र’ ने देखी दशा जब,
मरुथल के सौन्दर्य की।
मन ने छेड़े स्वर अनोखे,
कलम अब थिरकने लगी है।