ईस घोर कलियुग में टेलीफोन का नाम लेने पर कुछ लोग उसी प्रकार की एक्टिंग करते पाए जाते हैं जैसा कि किसी टाइट जीन्स धारिणी, जस्टिन बीबर बीबर बलिदानिनी, ‘ओह माय गॉड’ शपथ धारिणी, शून्य आकार अभिमानिनी नायिका को कलकत्ते के बड़ाबाजार में पान मसाला लसित द्रव्य से भरे हुए मुंह से दुकानदार द्वारा ‘बहन जी’ नाम से सम्बोधित कर डालने पर तथाकथित ‘बहन जी’ दिखा डालती हैं।
खैर, टेलीफोन तो था - और एकपाए में दोपाया प्रकार का अस्तित्व रखता था - द्वैत और अद्वैत वाद दोनों के बीच की कड़ी था टेलीफोन। उपयोगी अवस्था में एक पाया कान से संलग्न दूसरा सिरा टेलीफोन उपभोगकर्ता की शातिरपने की मात्रा और सुविधा के हिसाब से मुंह से पास या दूर रखा जाता था। अनुपयोगी अवस्था में यह चोंगे पर उन दो पिन पर लटका दिया जाता था जिनमें कोई धार तो नहीं होती थी, पर जिनके बारे में यह मशहूर था कि कितना बड़ा भी फ़ोन हो, काटा यहीं से जाता है।
फ़ोन अमूमन कृष्ण वर्ण का श्रेष्ठ माना जाता रहा था। कुछ नए चलन के लोगों ने लाल, हरे और कुछ और रंगों का प्रयोग तो किया किन्तु कालांतर में ऐसे लोगों की कोई ख़ास इज़्ज़त कृष्ण वर्ण टेलीफोन उपभोक्ताओं में नहीं हुई।
फ़ोन के चोंगे पर एक गोलाकार डायल हुआ करता था जिसे घुमाकर नंबर मिलाने में एक किर्र-किर्रात्मक संतुष्टि की अनुभूति होती थी। नंबर मिलाने वाला क्षण बड़ा महत्वपूर्ण माना जाता था और इस कारण नंबर मिलावक व्यक्ति डिस्टर्ब किये जाने पर सामने वाले को डाँट सकता था या उसके ऊपर आँखे तरेर सकता था और इसके बाद व्यवधान उत्पन्न करने वाले को बारी-बारी से डांटने वाला काम आस - पास बैठे लोग संभाल लेते थे।
सारे नंबर डायल करने के बाद नंबर मिलावक सबको ऊँगली से चुप रहने का इशारा कर सकता था और जैसे ही वह यह कहता “घंटी बज रही है”, सबके चेहरे पर चमक और मन से उच्छ्वास की मिली जुली प्रतिक्रिया एक साथ प्रकट होती थी। किसी ने सिखाया नहीं होता था, पर परंपरा यह थी कि नंबर जितनी दूर का मिलाया गया है, बात करने वाले की डेसिबेल मात्रा उतनी ही ऊंची रखी जाय और जो कि एक परम शिष्टाचार का भी प्रतीक था। ऐसा न करने वालों को बुजुर्ग यह कह कर लसेट सकते थे कि “अब हर चीज़ तो स्कूल में नहीं सिखाई जायेगी ”।
किर्र-किर्रात्मक डायल का उपयोग रामसे नामक भूत-प्रेत और भयंकर रस प्रेमी निर्देशक अक्सर अपनी फिल्मों में कर लिया करते थे और जैसा कि मेरे एक मित्र, जो ‘सत्यकथा‘ और ‘मनोहर कहानियां’ पत्रिकाओं के नियमित पाठक टाइप थे, बताया करते थे कि ऐसे दृश्यों में सिनेमा हाॅलों में कइयों की फूंकें यहाँ वहाँ सरक जाया करती थी और जिसके वह चश्मदीद गवाह हुआ करते थे। उनके इस तरह की कथाएं सुनाने का परिणाम होता यह था कि कुछ दिनों तक मोहल्ले के चिल्लर बच्चे फ़ोन के आसपास रात में नहीं फटकते थे।
फ़ोन के साथ महिमामय तार भी लगा होता था जो कि बात बेबात कुछ दिनों बाद बल खा जाया करता था और उसके (और किसी के भी) कस बल को ठीक करने का शास्त्रसम्मत उपाय यह था कि तार से पकड़ कर फ़ोन को हवा में लटका दिया जाय और बेचारा फ़ोन हेलीकाप्टर बना इस थर्ड डिग्री से त्रस्त होकर खुद ही अपने कस बल ठीक करने लगता था। यह काम मक्खी मारने वाले जैसे कामों से ज़्यादा टेक्निकल माना जाता था और इसको करने को घर का हर बच्चा या जवान, जिसका मन होमवर्क या घर के कामों में कम लगता था, तत्पर रहता था। कुछ असंतुष्ट किस्म के बुजुर्ग, जिनका सिद्धांत था कि अगर किसी काम में किसी को आनंद आ रहा है तो ज़रूर कुछ ऐसा है जो गलत हो रहा है और ऐसा कत्तई नहीं होने देना चाहिए, ऐसे लोगों पर कड़ी निगाह रखते थे और आनंद लेने का ज़रा ही सबूत मिलते ही उनके हाथ से यह काम छीन लिया करते थे या फिर ऐसा वातावरण बना देते थे कि आनंद लेने वाला भ्रमित हो जाय कि बैठ के नाक में दम करवाना ज़्यादा उचित होगा या इन तानों से विरक्त होकर अपने काम में आनंद लेते रहना।
कई बार या ज़्यादातर फ़ोन तो एक ही होता था, पर अपने नंबर के रूप में ३-४ लोगों के और पी-पी रूप में ३००-४०० लोगों के विजिटिंग कार्ड या लेटर पैड में सुशोभित होता था। कई बार लोग एक दूसरे को कार्ड देते लेते और नंबर मिलाते समय ध्यान आता कि पी-पी रूप में वही नम्बर दोनों के कार्ड में सुसज्जित है। इस तरह के फ़ोन वाले घरों में एक-आध बच्चा इसी काम के लिए नियुक्त होता था कि फ़ोन आने पर पी-पी प्रकार के लोगों को ललकार कर बुलाये। जो अच्छे पी-पी प्रकार के लोग होते थे वह बुलाने में देर होने पर ज़्यादा बुरा नहीं मानते थे।
अब नास्टैल्जिया इससे आगे नहीं जा पा रहा है, बहुत सारे मैसेज व्हाट्सप्प और फेसबुक पर इकठ्ठा होते जा रहे हैं, बाकी फिर कभी