गुबार

मैं भी आमंत्रित था, अपने कार्यालय के इस कार्यक्रम में । आज महिला सशक्तिकरण के विषय पर एक विशेष व्याख्यान-माला का आयोजन किया गया था। इस व्याख्यान - माला में इस शहर के विभिन्न क्षेत्र के अत्यन्त ही नामचीन लोगों को आमंत्रित किया गया था। सभी आमन्त्रित वक्ता-गण समय पर उपस्थित थे और कार्यक्रम के शुरू होने की प्रतीक्षा कर रहे थे।

इस कार्यक्रम की मुख्य अतिथि व मुख्य - वक्ता, जिन्होंने महिलाओं के उत्थान, उनके सशक्तिकरण, उनकी समस्याओं के निराकरण के लिये अत्यंत ही संघर्ष किया, का इंतजार था। एक जाना-पहचाना नाम - अनुभूति।

मैंने अपने बगल में बैठे मित्र से पूछा - कार्यक्रम में काफी विलम्ब हो रहा है, अभी तक विशिष्ट अतिथि आयी नहीं। पता चला कि वे इसी शहर की रहने वाली हैं और उनके आगमन पर इस शहर की संस्थाओं ने उनके द्वारा कई कार्यक्रमों के उद्घाटन की नींव रखी है। इसी शहर की हैं यह सुनकर काफी गर्व महसूस हुआ कि इस शहर ने एक राष्ट्र स्तर पर किसी व्यक्तित्व को जन्म दिया है। धन्य है-यह माटी, शत-शत प्रणाम।

तभी हल-चल शुरू होती है। पता लगा कि वे आ गयीं हैं। आगे-आगे वे और पीछे - पीछे उनका काफिला। सम्पूर्ण हाल में एक गरिमामय वातावरण व्याप्त हो गया।

सभी वक्ताओं को मंचासीन किया गया दीप -प्रज्वलन के साथ कार्यक्रम की शुरुआत हुयी। प्रत्येक वक्ता ने अपनी-अपनी बातें कहीं। लेकिन पुरुष-प्रधान देश में जो कहा जा रहा था वह उतना सच नहीं था।

अंत में प्रधान वक्ता की बारी थी। उनके व्यक्तित्व में तेज, आत्म-विश्वास, गरिमा की झलक दिखाई दी। उन्होंने अपना संबोधन शुरू किया। उनके हिसाब से जो कहा जा रहा है उतना सच जमीनी स्तर पर दिखता नहीं है। वह देश, जहाँ नारी की पूजा सदैव की जाती रही है, वह देश जहाँ अभी भी शक्ति, धन-वैभव व विद्या प्राप्ति के लिये नारी के रूप में देवियों की आराधना करते हैं-स्थिति इतनी सुदृढ़ नहीं है आक्रांताओं के आने के बाद से।

उन्होंने अपना उद्बोधन शुरू किया- मेरा इस शहर से पुराना नाता है । कुछ खट्टा और कुछ मीठा । जब मुझे इस कार्यक्रम की सूचना मिली तो मैं यहाँ आने का लोभ छोड़ नहीं पायी । मेरा जन्म इसी शहर में हुआ । आज से करीब बीस वर्ष पूर्व मेरा विवाह एक कुलीन परिवार में हुआ था । मेरे मन में काफी उमंगें व काफी उत्साह था । जीवन के प्रति अल्हड़ता, चंचलता व थोड़ी बहुत अपरिपक्वता थी । मैं केवल बी ए पास थी । जिनसे मेरा संबंध हुआ था वे कुछ ज्यादा पढ़े थे और अपना मानसिक स्तर काफी ऊँचा समझते थे । हमारे और उनके शरीर से निकलने वाली तरंग-दैर्ध्यों की फ्रेक्वेंसी आपस में मैच नहीं कर रही थी, अतः संगीत बजने के बजाय, जिंदगी बेसुरा राग उत्पन्न कर रही थी । बहुत कोशिश हुई कि शायद सब ठीक हो जाय किन्तु सब बेकार गया ।

मैं उदास अपने जीवन के लिये व अपने भविष्य के लिए चिन्तित थी। मेरे माता पिता भी मेरे स्थिति से अत्यंत दुखी थे। एक दिन मेरे चिंतित पिता ने मेरे सर पर हाथ रख पूछा-बेटा ! क्या किया जाय। हमें कुछ न कुछ तो निर्णय लेना होगा। तुम चिंता मत करो, जो तुम्हारा निर्णय होगा हम सब उसके साथ हैं। मैं अपने माता-पिता को लाचार, असहाय व गिड़गिड़ाने की स्थिति में नहीं देखना चाहती थी। मुझे लगा जब जीवन साथ नहीं चल सकता तो स्वयं मुक्त हो जाना और मुक्त कर देना-सर्वथा उपयुक्त है और वह भी बिना किसी हर्जाने व भत्ते के। किसी का कोई एहसान नहीं।

मेरे पिता के उन शब्दों ने मुझे सम्बल प्रदान किया और जो कि आज तक मेरे अंदर लौ का काम कर रहें हैं- बेटा! जो भी है उसको स्वीकार करो और इसे चैलेंज मानकर अपने जीवन को इतना निर्मित करो, इतना मजबूत करो, इतना डेवलप करो कि जब कभी भी मुलाकत हो तो लोगों को पछतावा हो कि गलती हो गयी। कुछ भी असंभव नहीं है, इस दुनिया में।

मैं चौंक गया। अनुभूति! बीस वर्ष पूर्व का घटना चक्र मेरे दिमाग में घूम गया। ध्यान से देखा। हाँ ! ये वही तो हैं । समय बदल गया है। मानसिक स्तर बदल गया है। वे मंच पर और मैं दर्शक दीर्घा में।

मैं नेपथ्य में चला गया फिर कुछ भी सुन नहीं पाया। अचानक तंद्रा टूटी। वे मंच से नीचे उतर रहीं थीं। मैं यहाँ इस शहर में अभी ही आया था, इसलिये अपना रौब जमाने के लिये लपक कर उनके सामने आया- हिचकिचाता हुआ। अनुभूति जी ! मैं अविनाश। आपने मुझे पहचाना।

उनका उत्तर था - मैं दो व्यक्तियों को इस जीवन में नहीं भूल सकती - एक आप हैं  जिन्होंने मेरे जीवन को तहस-नहस करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और दूसरे मेरे पिता जिन्होंने मेरे टूटे हुए मन में जो लौ जलायी, वह अभी तक बुझी नहीं है और शायद जीवन पर्यंत न बुझे। शायद वे नहीं होते तो हम कहीं के भी न होते। इतना कहकर वे अपनी गाड़ी में बैठकर एअर पोर्ट के लिए रवाना हो गयीं और मैं गुबार और अपने अतीत को देखता रह गया।

-राकेश शंकर त्रिपाठी