भगवान श्री कृष्ण इस अध्याय के शुरुआत में sharing of knowledge के विषय में अर्जुन से चर्चा करते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने अविनाशी योग को सर्वप्रथम सूर्य से, सूर्य ने मनु से एवम् मनु ने इक्ष्वाकु से और इसके पश्चात सुनने -सुनाने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गयी। एक लीडर का कर्त्तव्य है की वह अपनी टीम को empower करे, निखारे और value addition करे। लीडर का यह कर्त्तव्य भी है कि अपने टीम के सदस्य की शंकाओं का समाधान करे, उसकी बाधाओं को दूर करे और उसके सवालों का उचित उत्तर दे, यदि वह नेतृत्व की भूमिका का निर्वहन सफलता पूर्वक करना चाहता है। यह ज्ञान ही है जो एक लीडर को अन्य सदस्यों से अलग करता है । "न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते" 4/38 अर्थात् ज्ञान के समान पवित्र वस्तु इस संसार में और कोई नहीं है। और ज्ञान प्राप्त करने के लिये "श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः" । 4/39 अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने के लिए तीन गुणों का होना अत्यंत आवश्यक है:
प्रथम - श्रद्धा । श्रद्धा स्वयं के ऊपर और उसके ऊपर भी जिससे हम ज्ञान प्राप्त करने जा रहें हैं। स्वयं पर विश्वास, अपनी क्षमताओं पर विश्वास एवम् अपनी शक्ति पर विश्वास।
द्वितीय - तत्पर । वह व्यक्ति जो तत्परता से सीखने के लिए उद्यत है।
तृतीय - संयतेंद्रिय । वह व्यक्ति जिसने अपनी इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में कर रखा है, जो अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्रता पूर्वक सजग है, जिसने अपनी इंद्रियों को कछुए की भाँति समेट रखा है, जिसने अपनी ऊर्जा को channelize कर रखा है वही ज्ञान प्राप्त का अधिकारी है ।
अज्ञानी, श्रद्धा रहित और संशय से युक्त पुरुष कभी भी एक सफल और प्रभावी नेतृत्व प्रदान नहीं कर सकता। ज्ञान का तात्पर्य awareness से भी है। हमें इस विषय का ज्ञान होना चहिए कि क्या करने योग्य है क्या नहीं किया जाना चाहिए। "कर्मणो ह्यापि बोधव्यं बोधव्यं च विकर्मण: ।".....4/17
बिना ज्ञान के विवेक नहीं, विवेक की अनुपस्थिति से संशय की अवस्था और संशय की स्थिति में निर्णय लेने की क्षमता नहीं और निर्णय लेने की क्षमता नहीं तो असफलता।
"यदा यदा हि धर्मस्य....I” 4/7 से भगवान श्री कृष्ण ने यह बताया है कि जब कभी भी अनुदेशों - निर्देशों, व्यवस्था का उल्लंघन हो अथवा अराजकता की व्यवस्था उत्पन्न हो, लीडर का अभ्युदय, उसका समय पर उपस्थित होना एवम् corrective measures का प्रयोग कर प्रत्येक वस्तु को "set in order" की स्थिति में प्राप्त कराना अति आवश्यक हो जाता है। अन्यथा .....
"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च..." 4/8 Stick and Carrot policy का सदुपयोग कर अपनी टीम में एक सामंजस्य स्थापित करने के लिए प्रेरित करता है। यह न्याय को स्थापित करने की बात करता है तथा दुष्ट के दुष्टता की भी।
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:"....4/13
इस श्लोक से delegation of power का ज्ञान प्राप्त होता है। गुण और कर्म का तात्पर्य यह है कि division of work योग्यता के आधार पर।
एक प्रभावी नेतृत्व वही है जो कि अपने टीम के सदस्यों की आवश्यकताओं को उचित समय पर उपलब्ध कराता है।
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्"...4/11 जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ।
"जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः" ....
मेरे जन्म और कर्म ही दिव्य हैं, एक प्रभावी नेतृत्व को यह सन्देश सदैव आत्मसात करते रहना चाहिए और पथ पर आगे बढ़ते जाना चाहिए।।
"अपने नियतकर्मों को दोषपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना अन्य कर्मों को भलीभांति करने से श्रेयस्कर है।
अपने कर्मों को करते हुऐ मृत्यु का वरण पराये कर्मों में प्रवृत्त होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर है।" 3/35
अर्जुन ने है यह कहा, हे केशव ! हे नाथ।
बुद्धि श्रेष्ठ यदि कर्म से, घोर युद्ध क्यों साथ।।
मोहित मेरी बुद्धि है, व्यामिश्रित उपदेश।
श्रेयस्कर है क्या मुझे, निश्चित हो संदेश।।
हे अर्जुन ! इस लोक में, द्वि निष्ठा द्वि योग।
ज्ञान योग है सांख्य ही, कर्म योग उद्योग।।
बिना कर्म आरम्भ के, प्राप्त नहीं निष्कर्म।
सिद्धि प्राप्त ना होत है, छोड़ त्याग कर कर्म।।
ऐसा कोई है नहीं, रहे बिना कुछ कर्म।
विवश होय करना पड़े, प्रकृतिजन्य यह धर्म।।
मिथ्याचारी है सदा, रहे मनुज वह मूढ़।
कर्मेन्द्री वश में करे, इन्द्रिय चिंतन गूढ़।।
किन्तु मनुज वह श्रेष्ठ है, अनासक्त निष्काम।
इन्द्रिय मन में वह कसे, कर्म योग परिणाम।।
नियत कर्म को तुम करो, रहे कर्म व्यवहार।
बिना कर्म के ना चले, जीवन या संसार।।
कर्म लोक हित जो करे, बँधे न बन्धन कर्म।
मुक्तसंग हो कर्म कर, कुन्तीनन्दन ! धर्म।।
प्रजापिता ने आदि में, सृष्टि रची सहयज्ञ।
वृद्धि करो कर्तव्य से, कर्मरूप जो यज्ञ।।
खुश होंगे जब देवता, मानुष होय प्रसन्न।
देव मनुज सहयोग से, सभी जीव सम्पन्न।।
पूर्ण यज्ञ जब होत है, मिले इष्ट भोगान्।
निश्चित ही वह चोर है, अर्पण ना भगवान।।
यज्ञ शेष अनुभव करे, मुक्त होय अभिशाप।
श्रेष्ठ मनुज वह और से, कर्म स्वयं हित पाप।।
नियत कर्म से यज्ञ है, यज्ञ से वर्षा होत।
वर्षा से फिर अन्न है, अन्न से जीवन-श्रोत।।
कर्म वेद से प्राप्त है, वेद ब्रह्म से जान।
सर्व व्याप्त स्थित सदा, कर्म यज्ञ में मान।।
सृष्टि चक्र के सम नहीं, जो चलता है पार्थ।
जीवन उसका पापमय, जीवन नहीं यथार्थ।।
किन्तु मनुज जो तृप्त है, तुष्ट स्वयं है आप।
रमण करे खुद में स्वयं, कर्म-यज्ञ का जाप।।
सिद्ध रूप वह व्यक्ति है, चिन्मय रूप अशेष।
निर्भर रहे न अन्य पर, नियत कर्म नहिं शेष।।
अनासक्त हो कर्म कर, भलीभाँति कर्तव्य।
आसक्ति रहित से प्राप्त है, परम ब्रम्ह चैतन्य।। < >
जनकादय राजा बहुत, परम सिद्धि को प्राप्त।
लोक काज हित तू करे, कर्म योग पर्याप्त।।
श्रेष्ठ मनुज जो जो करे, प्रस्तुत करे प्रमाण।
इतर मनुज सामान्य जन, होय लोक निर्माण।।
तीन लोक मेरे लिये, नियत नहीं कुछ कर्म।
है अभाव कुछ भी नहीं, किन्तु कर्म है धर्म।।
नियत कर्म यदि ना करूं, हानि बड़ी हो जाय।
सकल मनुज अनुगमन कर, कर्म नहीं अभिप्राय।।
नियत कर्म यदि ना करूं, नष्ट होय सब लोग।
शांति विनाशक क्यों बनू, शंकर वर्ण है रोग।।
अज्ञानी जैसे करे, फल-इच्छा कर्तव्य।
विद्व-जनों को चाहिये, अनासक्ति मंतव्य।।
बुद्धि भेद को ना करें, करें कर्म विद्वान।
शास्त्रविहित सब कर्म हों, भली-भांति सब जान।।
प्रकृति करे है गुणन से, सभी कर्म क्रियमान।
कर्ता अपने को कहे, अहंकार अज्ञान।।
गुण विभाग के तत्व औ, कर्म भाग जो जान।
लिप्त नहीं होते गुणी, लिप्त होय अज्ञान।।
प्रकृति-जन्य मोहित हुये, आसक्त हुये गुण कर्म।
विचलित उनको ना करें, ज्ञानी जाने मर्म।।
अर्पण करके कर्म सब, चित्त लगा परमात्म।
ममता आशा हो रहित, युद्ध करो अब आत्म।।
श्रद्धा से अनुसरण कर, दोषदृष्टि से दूर।
मुक्त होय सब कर्म से, मत मेरा मशहूर।।
देखे मुझमें दोष जो, ना माने यह बात।
नष्ट हुये उनको समझ, मोहित हो कुख्यात।।
कर्म करें सब प्राणि हैं, परवश होय स्वभाव।
ज्ञानी भी चेष्टा करे, हठ का नहीं प्रभाव।।
राग-द्वेष उपलब्ध हैं, प्रति इन्द्रिय यह जान।
वश में दोनों को करें, दोनों शत्रु महान।।
अपना धर्मा श्रेष्ठ है, है चाहे गुण हीन।
दूसर धर्म भयावह:, मृत्यु स्वधर्म सुखीन।।
पुरुष न चाहे पर करे, होये कैसे आप।
अर्जुन बोले कृष्ण हे, कौन कराये पाप।।
काम प्रकट रज गुणन से, परणित होये क्रोध।
शान्त न होये यह कभी, बैरी बन अवरोध।।
दर्पण जैसे मैल से, धुँआ ढके है अग्नि।
गर्भ ढका है जेरसे, काम ढके ज्ञानाग्नि।।
तृप्त न होये अग्नि सम, कभी न होये पूर्ण।
बैरी यह है ज्ञानीन का, ढके हुये सम्पूर्ण।।
इन्द्रिय, मन औ बुद्धि हैं, इसके वास निवास।
मोहित करता जीव को, आच्छादित कर दास।।
इन्द्रिय को वश में करो, हे अर्जुन यह जान।
मारो पापी काम को, बचे ज्ञान विज्ञान।।
इन्द्रिय श्रेष्ठ शरीर से, मन से श्रेष्ठ न होय।
मन से ऊपर बुद्धि है, आत्मा सब पर होय।।
आत्मा श्रेष्ठ सबल अहे, दुर्जय शत्रु है काम।
बुद्धि से मन को वश करो, होये काम तमाम।।