ओशन डार्कनिंग : समुद्री सतह पर एक संकट

समुद्र केवल विशाल जलराशियाँ नहीं हैं, वे पृथ्वी की आत्मा हैं। नदियों की तरह बहती चेतना नहीं, बल्कि स्थिर होते हुए भी जीवन की जटिलतम प्रणाली। पृथ्वी की सतह का लगभग 70 प्रतिशत भाग ढकने वाले समुद्र हमारे मौसम, जलवायु, ऑक्सीजन और जीवन के सबसे मौलिक संतुलनों का निर्माण करते हैं। परंतु अब वही महासागर धीरे-धीरे अंधकार में डूबते जा रहे हैं। यह केवल रूपक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक वास्तविकता है—जिसे ‘ओशन डार्कनिंग’ या महासागरों का अंधकार कहा जाता है। यह परिघटना केवल समुद्री जीवों की नहीं, बल्कि पूरे मानवीय समाज और पारिस्थितिकी के लिए एक गंभीर चेतावनी बनकर उभर रही है।
ओशन डार्कनिंग वह प्रक्रिया है जिसमें महासागर की सतह से नीचे सूर्य का प्रकाश पहले की तुलना में कम गहराई तक पहुँच पाता है। प्रकाश की यह कमी समुद्री पारिस्थितिकी के लिए विनाशकारी हो सकती है क्योंकि समुद्र की सतही परत, जिसे ‘फोटिक ज़ोन’ कहा जाता है, वहीं अधिकांश समुद्री जीवन का पोषण होता है। हाल के शोध बताते हैं कि 2003 से 2022 के बीच करीब 21 प्रतिशत वैश्विक महासागर क्षेत्र में प्रकाश की गहराई में गिरावट आई है। कुछ क्षेत्रों में यह गहराई 50 मीटर तक घट चुकी है, जबकि कुछ स्थानों पर 100 मीटर से अधिक की कमी दर्ज की गई है। इसका मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन, तटीय प्रदूषण, तलछट का बहाव और महासागर की सतही परत में जैविक घटकों की बढ़ोत्तरी है।
समुद्री जीवन का एक बड़ा भाग, विशेषकर फाइटोप्लांकटन, प्रकाश संश्लेषण पर निर्भर होता है। फाइटोप्लांकटन समुद्री खाद्य श्रृंखला की नींव हैं और पृथ्वी के कुल ऑक्सीजन उत्पादन का लगभग आधा हिस्सा इन्हीं से आता है। जब प्रकाश की गहराई घटती है तो इनका विकास रुक जाता है। इसका प्रत्यक्ष असर समुद्री जीवों की पूरी श्रृंखला पर पड़ता है। छोटी मछलियाँ, झींगा, व्हेल, समुद्री पक्षी सभी इससे प्रभावित होते हैं, जिससे पारिस्थितिक असंतुलन पैदा होता है। इसके साथ ही मछली पकड़ने वाले समुदायों की आजीविका पर संकट आ जाता है, जिनकी रोज़ी-रोटी समुद्री जीवन पर निर्भर है।
ओशन डार्कनिंग का प्रभाव केवल समुद्री जीवों तक सीमित नहीं है। जब फाइटोप्लांकटन की संख्या कम होती है, तो समुद्र वातावरण से कम कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करता है। इससे वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा बढ़ती है, जिससे जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया और तेज़ हो जाती है। इस प्रकार यह समस्या एक दुष्चक्र बन जाती है—प्रदूषण और गर्मी के कारण महासागर में अंधेरा बढ़ता है, अंधकार के कारण समुद्री जीवन और कार्बन संतुलन बिगड़ता है, और बिगड़ा संतुलन फिर प्रदूषण और गर्मी को बढ़ावा देता है।
तटीय क्षेत्रों में यह संकट और भी अधिक तीव्र है। भारी वर्षा, अवैज्ञानिक कृषि पद्धतियाँ, निर्माण कार्यों से निकली गाद और प्लास्टिक कचरे के कारण तटवर्ती जल में गहराई तक सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँच पाता। कृषि रसायन, कीटनाशक और उर्वरक नदियों के माध्यम से समुद्र में जाकर शैवालों की अत्यधिक वृद्धि को जन्म देते हैं। यह शैवाल सतह पर फैलकर प्रकाश को रोकते हैं और साथ ही समुद्र की ऑक्सीजन भी खा जाते हैं। इसके कारण “डेड ज़ोन” नामक क्षेत्र बनते हैं, जहाँ जीवित रहना लगभग असंभव हो जाता है। ऐसे क्षेत्र दुनिया भर में बढ़ते जा रहे हैं, जो मत्स्य उद्योग के लिए बड़ा संकट हैं।
इस संकट से निपटने के लिए सबसे पहले वैज्ञानिक और तकनीकी पहलुओं को मज़बूत करना होगा। महासागरों की नियमित और उच्च गुणवत्ता वाली निगरानी आज की आवश्यकता है। इसके लिए सैटेलाइट डेटा, स्वचालित पानी के नीचे उपकरण और सतह से गहराई तक सेंसर्स की मदद से व्यापक आंकड़े जुटाए जाने चाहिए। केवल कुछ देशों की प्रयोगशालाओं में सीमित शोध के स्थान पर महासागर विज्ञान को वैश्विक वैज्ञानिक साझेदारी में बदला जाना चाहिए। विशेषकर विकासशील देशों को ऐसे अनुसंधान में भागीदारी का अवसर और संसाधन मिलने चाहिए।
दूसरी दिशा नीतिगत और प्रशासनिक है। महासागर संरक्षण को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नीति निर्माण की धुरी बनाया जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र को ओशन डार्कनिंग को जलवायु संकट के समानांतर मान्यता देकर अलग बजट और लक्ष्य निर्धारित करने चाहिए। राष्ट्रीय स्तर पर तटीय विकास योजनाओं में पारिस्थितिकीय सुरक्षा के मानकों को अनिवार्य किया जाना चाहिए। प्लास्टिक पर प्रतिबंध, जैविक कृषि को बढ़ावा और नदी प्रदूषण पर सख्ती जैसे कदम इस दिशा में कारगर साबित हो सकते हैं।
साथ ही समाज की भूमिका भी अनदेखी नहीं की जा सकती। जब तक समाज यह नहीं समझेगा कि महासागर केवल व्यापार या पर्यटन का माध्यम नहीं, बल्कि जीवन की रीढ़ हैं, तब तक समाधान अधूरा रहेगा। स्कूली पाठ्यक्रमों में ‘ओशन लिटरेसी’ को स्थान देना आवश्यक है ताकि बच्चे शुरू से ही समुद्री जीवन के प्रति संवेदनशील बनें। जन-संचार माध्यमों को भी इस विषय को गंभीरता से लेना होगा। समाचार चैनलों, पत्र-पत्रिकाओं और सोशल मीडिया को यह बताना होगा कि समुद्र में फैलता अंधकार किसी दूरस्थ वैज्ञानिक विषय का नाम नहीं, बल्कि हमारे हर सांस से जुड़ा मुद्दा है।
इस चेतना की शुरुआत परिवार और व्यक्ति स्तर से होनी चाहिए। जब हम नदी में प्लास्टिक फेंकते हैं, जब हम पानी के स्रोतों को गंदा करते हैं, जब हम अनुचित रासायनिक उत्पादों का उपयोग करते हैं, तो हम अनजाने में समुद्र की आत्मा को अंधकार में ढकेलते हैं। यह अंधकार फिर लौटकर हमारे स्वास्थ्य, हमारी जलवायु और हमारी खाद्य व्यवस्था को निगलने लगता है। इसीलिए समाधान केवल नीति या विज्ञान नहीं, बल्कि सामाजिक नैतिकता और पर्यावरणीय उत्तरदायित्व की भावना से आएगा।
ओशन डार्कनिंग को समझने के लिए केवल आँकड़े और प्रयोगशालाओं के निष्कर्ष पर्याप्त नहीं हैं। इसकी गंभीरता को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक हम इसे अपने जीवन के रोज़मर्रा के निर्णयों से न जोड़ें। यह संकट एक धीमी लेकिन गहरी त्रासदी है, जिसकी मार आने वाले दशकों में पीढ़ियों को भुगतनी होगी यदि हमने अभी भी चेतना नहीं दिखाई।
महासागर अंधकार में जा रहे हैं, परंतु यह अंधकार अनिवार्य नहीं है। अगर हम समय रहते चेत गए, नीतियाँ बदलीं, विज्ञान को साधा और समाज को संवेदनशील बनाया—तो यह अंधकार फिर उजाले में बदल सकता है। महासागर फिर से साँस ले सकते हैं, जीवन दे सकते हैं और पृथ्वी के संतुलन को बहाल कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि हम अपने विचारों, कार्यों और प्राथमिकताओं में एक गहरा परिवर्तन लाएँ। यह केवल वैज्ञानिकों की या सरकारों की जिम्मेदारी नहीं है—यह हम सभी की साझा चुनौती और उत्तरदायित्व है।