आँगन

हुल मोबाइल पकड़े चलकदमी कर रहे थे। भावभंगिमा गंभीर और हाँ-हूँ में सिमटे जवाब को सुन निधि कुछ सतर्क हुई। इशारे से पूछा तो 'बताता हूँ' वाले अंदाज में उसने रुकने का इशारा किया। किसका फोन है यह देर तक रहस्य न रहा। इकतरफा संवादों को सुन कर अंदाजा लग गया कि बड़े दादा का फोन है और बात उसके मायके वाले घर की हो रही है। कान से मोबाइल हटते ही उसने बेचैनी से पूछा “क्या कह रहे थे दादा ?” “देवरिया वाला मकान बेचना चाहते हैं।” राहुल के सपाट जवाब पर उसका दिल उछल कर हलक में आ अटका।

“हाय ! नाना-नानी वाला घर क्यों बिक रहा है...” पास ही बैठी बारह साल की बेटी धारा रुआँसी हो आई।

पत्नी और बेटी के यूँ भावुक हो जाने पर राहुल सहजता से बोले, “अब इसमें बुरा ही क्या है। अम्मा-बाबूजी रहे नहीं। घर भी पिछले डेढ़ साल से बंद पड़ा है। न कोई आता है न जाता… अब वहाँ क्या रखा है।” “और क्या बात हुई।” क्षीण स्वर में निधि ने पूछा।

“केदार, सुधा जीजी और वो स्वयं सपरिवार वहाँ पाँच तारीख को पहुँच रहे हैं। दादा चाहते हैं हम भी सपरिवार पाँच तारीख को देवरिया पहुंचे पर मैंने कह दिया, मैं अपनी जरूरी मीटिंग निपटाकर आठ की सुबह पहुंच पाऊंगा।” “मेरा तो जाने का मन नहीं है। इतने समय बाद मायके में भाई-बहन इकट्ठे हो भी रहे हैं तो मकान बेचने के लिए...” निधि भरे स्वर में बोली। “बाबू जी के जाने के बाद से तुम मायके की याद करती रही हो। जो ये मौक़ा भी गँवा दोगी तो इसकी कसक सदा बनी रहेगी।”

राहुल के कहने पर बिना कोई प्रतिक्रिया दिए वह रसोईं में चली आई। लाख कह ले मन नहीं है पर जाना तो होगा ही। मायके की डेहरी बिक रही है इस सूचना से मन आहत जरूर है पर जिस घर में अम्मा-बाबूजी से जुड़ी मधुर स्मृतियाँ है वहाँ तो जाना ही होगा। जाना होगा अम्मा-बाबूजी को एक बार और महसूस करने के लिए, वरना ताउम्र अफ़सोस रह जाएगा। "तो कहो रिजर्वेशन करवा लूं क्या?" राहुल ने बैठक से आवाज दी। "जो मर्जी हो कर लो…" ये स्टैंडर्ड जवाब होता है जब मूक सहमति देनी होती है। या फिर हाँ या न के बीच टसल होती है। "सात की रात का टिकट कंफर्म करवा रहा हूँ।" कुछ ही मिनटों में राहुल का स्वर कानों में टकराया तो उसने गहरी साँस ली।

मन में हो रही उथल-पुथल और अतीत की स्मृतियों में उतराती राहुल और धारा के साथ वह आठ तारीख की सुबह देवरिया स्टेशन पर पहुँची तो देखा, छोटे भाई केदार बड़े दादा के बेटे अंशुल के साथ स्टेशन पर खड़े थे। "बुआ, तीन दिन का रोमांच मिस कर दिया आपने।" अंशुल ने परिहास किया तो रास्ते भर गायब मुस्कान होंठो पर थिरक उठी। स्टेशन से घर तक के रास्ते को आँखें सेंकती रहीं। घर के फाटक पर जहाँ बाबू जी उसका इंतज़ार करते दिखते थे वहाँ दादा खड़े मिले... बड़ी और छोटी भाभी, सुधा जीजी और जीजा जी आँगन में बैठे गपिया रहे थे और उन सबके बच्चे टूटी मुंगरी से क्रिकेट खेल रहे थे।

निधी को आया देख बच्चे पैर छूने दौड़े। केदार ने जेब से एक गेंद निकालकर बच्चों की ओर उछालते हुए कहा, “ये सातवीं गेंद है... अब जो तुम्हारे चौकों-छक्कों ने गेंद गुमाई तो अपनी निधी बुआ से माँगना।” अब बच्चे हैं तो करें क्या... सुनो केदार, टीवी अच्छा-भला है। दो-चार दिन के लिए केबल कनेक्शन ले लो तो ये शांति से बैठेंगे।” सुधा जीजी ने निधि को गले लगाते-लगाते बच्चों के लिए केबल कनेक्शन लगवाने की सिफारिश की तो बच्चे खुशी से उछल पड़े। केदार की पत्नी विशाखा, जीजी की बेटी सलोनी के साथ तश्तरी में पेड़े और शरबत लेकर आई... और फिर शुरू हुई इन दो-तीन दिनों में घर की जरूरत से ज्यादा बिगड़ी हालत को दुरुस्त और पाँव रखने लायक बनाने की दास्तां... सबने अपने-अपने दिए सहयोग का विस्तार से विवरण दिया।

बड़ी भाभी विस्मय मुद्रा में जमीन से तीन फुट हाथ उठाती बोली, “यहाँ इतनी ऊंची घास थी। बाबा रे बाबा ! होश फाख्ता हो गए थे देख कर। सब कटवाया है। धूल तीन-चार पर्त तक जमी थी, हाय-हाय कैसे साफ़ करवाया हम ही जानते हैं।” “बर्तनों में जंग लग गए थे। वो तो अच्छा हुआ, पुरानी काम वाली बाई गोमती मिल गयी। बेचारी ने बर्तन घिसे, चीकट रसोईं साफ़ की... तब जाकर खाना बनाने का मन हुआ।” विशाखा ने भी जेठानी की हाँ में हाँ मिलाई। मामियों की बातें सुनकर धारा ने धीरे से अपने बड़े मामा से पूछा, “ये घर तो बिक रहा है न मामा...” दादा सिर हिलाकर बोले, “बिकना तो है पर खरीदार को मकान की वो दशा दिखा देते तो वह चालीस प्रतिशत दाम वैसे ही गिरा देता। तीन-चार लोगों से बात हुई है। परसों तक फाइनल करना है।”

“ये बात तो है, साफ़-सुथरे मकान की कीमत बढ़ ही जाती है। जब बेचना ही है तो घाटे का सौदा क्यों करे।” जीजा जी ने भी प्रतिक्रिया वयक्त की। सभी कुछ न कुछ बोल रहे थे पर निधि मौन धारण किए अपने मन से व्यथा कह- सुन रही थी। पिछले डेढ़ सालों से बंद घर अम्मा-बाबूजी के न रहने से अब मकान बन चुका है... क्या उस जगह की कीमत लगाई जा सकती है जहाँ उसका-सबका बचपन गुजरा। सबके शादी ब्याह हुए... जिस घर से सबने अपने-अपने स्वतंत्र घोंसलों की ओर उड़ान भरी, वह घर अब स्क्वायर फीट-मीटर में नापा जाने लगा है। उसकी आँखों में आँसू झिलमिलाते देख दादा स्नेह से उसके कंधे को सहलाते बोले, “देख निधि, हम सब को भी दुःख है घर बिकने का। बावजूद इसके कभी-कभी व्यावहारिक निर्णय लेने पड़ते हैं। फिर मायके की ये डेहरी बिक रही है हम तो हैं... तुम और सुधा हमारे पास आना... जब तक हम हैं मायका रहेगा।”

“दोनों बुआ का मायका तो अरेंज हो गया पर ताऊ जी और पापा का मायका कहां होगा...” केदार के सात साल के बेटे विहान ने दो साल बड़ी बहन से प्रश्न किया तो हँसी की फुलझडियां छूट गयी... “तू बहुत बोलने लगा है रे छुटकू...” दादा उसको गुदगुदाते हुए बोले, “आज समय पर सो जाना। सुबह जल्दी उठना है।” निधी की प्रश्नवाचक नजरें देख बड़ी भाभी हँसते हुए बोलीं, “अरे तुम्हारे दादा ने पहले तो हमसे जम कर काम करवाया फिर आज तड़के मुझे जगा कर कहने लगे, कल गुरूवार है और पूर्णमासी भी, क्यों न कथा सुन ली जाए।”

“कथा ! गृहप्रवेश के समय पूजा-कथा का विधान सुना था। घर बेचते समय कथा कौन कराता है….......” निधि की आँखें विस्मय से फैली देख बड़े दादा भावुक हो गए… “जब भी यहाँ आता था बाबूजी कहते थे कि कथा सुनने की इच्छा है... कुछ हमारी लापरवाही समझो कि हम सुन कर अनसुना कर दिए अब हो जाए कथा तो हमारे दिल का बोझ हट जाए।” "जब तक घर की चाभी किसी और को नहीं सौंपते हैं तब तक तो घर अपना ही है।" बड़ी भाभी भी आँंगन के चारों ओर दृष्टि दौड़ाते बोलीं।

व्यवहारिकता और भावुकता के बीच इधर- उधर की गप्पों का दौर चला। कुछ देर बाद जब सब अपने-अपने कामों में लग गए तब निधी ने आँगन से भीतर प्रवेश किया। बरामदे से लगे कमरे को देख लगा कलेजा मुट्ठी में आ गया हो। खिड़की की बाट पर अभी भी अम्मा-बाबूजी की दवाइयाँ, चश्मे, किताबें रखीं दिखीं... ड्रेसिंग टेबल खोली तो अम्मा की मेकअप की बाँस की बुनी पिटरिया दिखी। उधड़ी दीवारों से चूना झड़ी खुली अलमारियों के खानों में पानदान रखा दिखा... पीतल के पानदान को देख होंठो पर स्मित मुस्कान लिए वह धारा के बचपन की स्मृतियों में खो गई। बिसरी बातें याद आईं तो लगा अम्मा यहीं कहीं खड़ी बेसब्री से पूछ रही हैं "निधी, मेरा पानदान देखा है क्या?” धारा की शैतानी भरी धीमी-धीमी हँसी सुनकर मानो वह उससे बोली हों... “क्यों री धारा, सच- सच बता... तूने ही छिपाया है न पानदान...” “हाँ मैंने छिपाया है और अब आपको पानदान नहीं मिलेगा। देखो, कितने खराब हो गए आपके दाँत...”

“याद है अम्मा का पानदान धारा कैसे छिपा दिया करती थी।” सुधा जीजी का स्वर कान में पड़ा तो वह चौंक उठी। गर्मियों की छुट्टियों में आई जीजी भी तो गवाह थी इस किस्से की... निधी के होंठो पर आई उदास सी मुस्कान देख जीजी बोली, “उदास न हो, ये दिन कभी न कभी आना ही था...” “और क्या, कितने घर यहाँ बिकने की कगार पर हैं। जानती हैं आप, पड़ोस की बिमला चाची जी भी नहीं रही... और उधर जो कांता आंटी रहती थी न वो भी... और...” विशाखा एक के बाद एक अड़ोस- पड़ोस के बूढ़े-बुजुर्गो के न होने की सूचना देने लगी। उनके मकानों के बिकने की बात बताते हुए किन-किन के लड़के-बच्चों ने मोहल्ले छोड़कर उसी शहर के बड़े एपार्टमेंट में चले गए या दूसरे शहरों में बस गए इसका ब्यौरा देकर 'इस मोहल्ले में अब रह क्या गया है?' इस अंतिम सत्य के तीर से मन को भेदने के बाद चली गई पर स्मृतियां घर के जर्रे-जर्रे से छन-छनकर आतीं रहीं, मन को भिगोती रहीं।

वह घूम-घूम कर घर देख रही थी… अम्मा-बाबूजी की लोहे की अलमारी खोल कर उनके तहे कपड़े देखे। वह उंगलियों को कपड़ों पर फिराने लगी। बाबूजी के बंद गले के कोट से वह कभी लिपटती तो कभी अम्मा की धोतियों को उठा कर कभी गाल तो कभी सीने से सटा लेती। “लाओ अम्मा तुम्हारी अलमारी सुधार दूं…" उसके मुँह से यकायक निकल गया और वह सचमुच अलमारी और बक्सा खोल के बैठ गई... पुराने जमाने की साड़ियाँ वह कौतुक से देखती, उन्हें खोलती फिर तह कर रख देती... “तुझे कुछ चाहिए तो ले जा।” सहसा दादा की आवाज आई तो वह गहरी साँस लेकर मन ही मन बुदबुदाई, “क्या-क्या रखूँ दादा...” दिन बीतता गया अब भावुक मन सबके साथ को पाकर स्थिर होने लगा था। ये दिन तो आना ही था….. आगे बढ़ना ही जीवन है… कुछ ऐसे दर्शन भावनाओं के ज्वार को थामने लगे थे।

उसी बीच केदार एक जंग लगा संदूक ले आए… और बोले, “आज ऊपर वाली कोठरिया की सफाई की। देखो क्या निकाले हम... खोलो और देखो जरा हमारी अम्मा क्या-क्या कबाड़ इसमें धरती थीं...” संदूक के खुलते ही उसमें से कपड़े के बने गुड्डा-गुड़िया निकले...” जीजी आह्लादित हो चहकी, “हाय राम ! अम्मा ये अभी तक धरी थीं...” दादा मुस्कराए... निधी भी गुड्डे-गुड़िया उलट-पलट कर देखने लगी। बच्चों की उत्सुकता देख जीजी बोली, “अरे इनका हम ब्याह रचाते थे। हम और निधी लड़की वाले बनते थे और दादा और ये केदार ठाठ से बराती बनकर दावत उड़ाने आते थे।” “दावत मतलब असली वाली ?” किसी बच्चे ने कौतूहल से पूछा। “और क्या...” निधी बोल पड़ी, “अम्मा छोटी-छोटी पूड़ियां-हलवा, आलू की सब्जी बनातीं… पहले बराती खाते, फिर घराती।”

सब हँस पड़े... संदूक खंगाला जाने लगा... बचपन के ऊनी कपड़े, खिलौने, मेले से खरीदी बांसुरी, छोटे भैया का माउथ आर्गेन, पुराने बल्ले, पुरानी कलम, डायरी, स्कूल के बैच, पासपोर्ट साइज़ फोटो और जाने क्या… क्या ! “देखो तो दादा का पहला बंद गले का कोट... नौ साल की उम्र में बना कोट सत्रह साल तक पहने थे… फिर ये कोट चार साल हम पहने।” केदार कोट दिखाते बोले तो जीजी ने पतली मोहरी की पैंट उठा ली, “ए छोटे की पेंट देखो जरा... बाबूजी इसे सिगरेट पैंट कहते थे।” दादा एक फ्रॉक उठा कर निधी से बोले, “तू कभी इत्ती छोटी थी क्या?”

“अरे ये क्रोशिया के टेबल क्लाथ मैंने ही बनाए थे।” जीजी अपने बनाए पीले पड़ गए मेजपोश को देख कुछ भावुक हुई। बच्चे संदूक से कुछ-कुछ सामान उठाते और उसका इतिहास सुनते... हँसते… बड़ी भाभी चिंतित मुद्रा में कहने लगीं, “अम्मा-बाबूजी जो इतना पुराना सामान इकट्ठा किये हैं उसका क्या करेंगे यह सोचो...” “करना क्या है; कबाड़ में जाएगा।” विशाखा के कहने पर सलोनी सुधा जीजी से बोली, “मम्मी, कुछ चीजें रख लेना। जैसे गुड्डे-गुड़िया… और...” “हाँ-हाँ… अम्मा कबाड़ इकट्ठा कीं अब तुम करना... इतनी सुंदर-सुंदर गुड़िया हैं तो तुम्हारे पास। वहाँ फ़्लैट में इन सब की जगह नहीं।” जीजी ने कहा तो केदार भी बहन के पक्ष में बोले, “सही बात है, मैंने तो भई साफ़ कह दिया, तीन कमरों के फ़्लैट में एक चीज लाओ तो एक बाहर करो...” निधी जानती थी अम्मा को चीज़े फेंकने में तकलीफ होती थी वह फेंकने से बचने के लिए सामान को उस कोठरी का रास्ता दिखा देती थीं जिसे साफ़ करने की कोई हिम्मत न दिखाता। चीजें बेजान थीं पर उनसे जुड़ी यादें जीवंत। देर रात तक आँखें मूंदे अम्मा-बाबूजी के वजूद को महसूस करती रही। स्मृतियों के बियाबान में भटकती रही।

सुबह चहल-पहल महसूस कर आँखें खोली तो देखा जीजी व दोनों भाभियाँ नहा-धो कर तैयार थीं। बच्चों को भी जगाया जा रहा था। निधी उठ कर बैठ गयी तो देखा दादा और केदार फल, फूल और मिठाई के थैले लेकर आ रहे थे... वह भी फटाफट उठी और तैयार होने वालों की लाइन में लग गई। पूजा के लिए सुबह की चहल-पहल मन को भली लगी। साढ़े नौ के आसपास पंडित जी आ गए थे, बैठे-बैठे वह निर्देश देते रहे और दादा पैकेट से सामान निकाल कर देते रहे... रसोईं से पंजीरी की सुगंध उठने लगी... आसपास के दो-चार लोग भी आ गए। उन्हें देखकर एक अजीब सा अहसास हुआ। मंत्रोच्चार और हवन से उठते धुएं, कपूर और गूगल की सुगंध मन को दिव्यता से भरने लगी। घर बिकने की नीरसता, उदासी मन से यकायक हटने लगी। घर बिकने भी वाला है यह भाव विस्मृत होने लगा। लंबे समय से घर में बंद उदासी, निराशा, शंका, आशंका सब आरती, शंख और घड़ियाल की गूँज से दूर होने लगी। अड़ोस-पड़ोस के गिने-चुने पुराने लोगों को देख मन अभूतपूर्व प्रसन्नता से भर उठा। पूजा-प्रसादी के पश्चात आपसी हालचाल लेने के बीच “अब बच्चों के लिए यहाँ क्या रह गया है। वो तो हम बूढ़े जमे हैं तब तक, जब तक हाथ-पैर चल रहे हैं ... मोहल्ला सिकुड़ रहा है, धीरे-धीरे गायब ही हो जाएगा...” सिन्हा अंकल की निराशा झलकी तो मिश्रा अंकल की टीस भी बाहर आई, “कई बिल्डर इस मोहल्ले को खत्म करने की फिराक में है... बाजू वाले तीन घर बिक गए हैं पर कोई रहने नहीं आया। सुनते हैं बिल्डर यहाँ कोई शापिंग काम्प्लेक्स या व्यावसायिक मार्केट खोलेंगे…” मोहल्ले की सिकुड़न के मुद्दे को धार दे कर सब चले गए तो उदासी फिर दबे पाँव लौट आई।

निधी छत पर गयी तो देखा वहाँ दादा पहले से ही मौजूद थे। निधी को देख कर बोले, “घर बिक जाए उससे पहले सोचा क्यों न... मन भर कर आसपास के नज़ारे देख लूं।” मन धक्क रह गया निधि का यह सोच कर कि क्या दादा भी उसकी तरह इस घर को लेकर भावुक हैं... वह भूल बैठी कि दादा का भी बचपन रहा है, अम्मा बाबा की गोद उन्हें भी मिली है। “ये देखो, दोनों यहाँ बैठे हैं। अरे भूख नहीं लगी क्या...” जीजी ऊपर सबको देखने आईं और बैठकर वो भी बतियाने लगी... सब लोग कहाँ है यह देखने केदार आए तो वो भी बैठ गए और छत की छोटी सी चाहारदीवारी की ओर इशारा करके बोले, “याद है, इस दीवार के इस पार अम्मा और उस पार खड़ी मनोरमा चाची कित्ती-कित्ती देर बतियाती थीं।”

सब हँस पड़े... पड़ोस की छत और उनकी छत के बीच एक दीवार थी उसी दीवार से ही अपने-अपने घरों में बनने वाले पकवानों का, संदेशों का आदान-प्रदान होता था। और बच्चे तो इसी दीवार से कूदकर दूसरी ओर चले जाते थे... वो घर बिक चुका था और ये बिकने वाला है। सबके मन भावुकता से सराबोर थे, आसपास के लोगों की बातें, होली-दीवाली में होने वाले सामूहिक उल्लास-हुडदंग का ज़िक्र होता रहा। आज पूजा के कारण घर बेचने संबंधी कार्यों को विराम दिया गया इसलिए सब फुर्सत में थे सो देर तक किस्सागोई चलती रही। दूसरे दिन सुबह से ही घर के सारे फर्नीचर, बर्तन, टीवी, फ्रिज, इनवर्टर आदि एक तरफ निकाल कर सबने मन पर मन भर पत्थर बाँध लिया... खरीददार आने शुरू हुए... पर समान की क्या कहें खरीददारों को तो घर की दीवारों, छतों से भी सरोकार न था। वो बस स्कवॉयर फीट जमीन का मोल लगाते... अब आखिरी उम्मीद उस बिल्डर पर टिकी थी जिसने मोहल्ले के कई मकान खरीदे थे। वह आया और सरसरी नज़र से घर को देखकर बोला, “मकान बहुत पुराना है, छत-फर्श-दरवाजों का तो कोई मोल नहीं। ये सब तोड़े ही जाएंगे... रही बात सामान की तो पच्चीस हजार अतिरिक्त दे दूंगा...”

“सिर्फ पच्चीस हजार!” बड़ी भाभी के विस्मय पर वह हँसा “इससे ज्यादा कोई नहीं देगा। कबाड़ अपने रिस्क पर ले रहा हूँ... इस मोहल्ले के छह मकान खरीदे हैं। सात-आठ बूढ़े-बुज़ुर्ग मकानों में हैं। दो-तीन सालों में इनके निपटने के बाद ये मकान हमारे पास ही आने हैं।” “क्या करिएगा मोहल्ले भर के इतने मकान खरीदकर?” विशाखा ने पूछा तो वह शेखी बघारते हुए बोला, “अरे मैडम, बड़े-बड़े प्लान हैं। इस मोहल्ले के बचे-खुचे मकान बिकने तो दीजिए, दस सालों में पहचान नहीं पाएंगी कि यहाँ कोई मोहल्ला भी था...” “वाह ! तो यूँ कहिये मोहल्ला की पहचान मिटाने में हमारी भागीदारी चाहिए।” दादा की बात पर उसने जोरदार ठहाका लगाया।

वह चला गया और दादा बाबू जी की आरामकुर्सी में पसर गए। एक-दो घंटे के बाद दादा ने सबको बैठक में इकठ्ठा होने को कहा। सबके इकट्ठे होने के बाद गला खँखारते हुए बोले, “ऐसा आँगन हममें से किसी के फ़्लैट में नहीं है, क्यों न इस आँगन का सुख भोगने के लिए हम साल में कम से कम एक बार यहाँ इकठ्ठा हों। सोचता हूँ घर बेचने की जगह यहाँ किराएदार रखें या कोई सुपात्र जो हमारे आँगन की कीमत समझे… घर की देखभाल के साथ दिया-बाती भी हो तो कैसा रहेगा?” “अरे वाह, बड़ा मजा आएगा।” बच्चे तुरंत खुशी से उछल पड़े। “मम्मी और मौसी के साथ बड़े मामा, छोटे मामा का मायका भी बच जाएगा...” धारा नन्हे विहान से बोली तो जिनके चेहरे पर असमंजस के भाव थे वे भी मुस्करा दिए। शीघ्र ही दादा के इस विचार के प्रति सबकी सहर्ष सहमति बन गयी।

घर से जुड़ाव तो सभी महसूस कर रहे थे। महसूस कर रहे थे कि घर के कबाड़ में दर्रोदीवारों के आलों, छतों - फर्श में बचपन की बेशकीमती यादों की संपदा गड़ी थी... उन्हें चाह कर भी खोद कर ले जाना मुमकिन नहीं, कोरी भावुकता के चलते ही सही, यादों की छांव में पल दो पल बिताने का... अपने बुजुर्गो की डेहरी-आँगन को बचाने का फैसला घाटे का तो कतई नहीं था। उनको आपस में हँसी-खुशी बोलते-बतियाते देख क्या पता अम्मा-बाबूजी का अदृश्य आशीर्वाद इस आँगन में बरस जाए...

मीनू त्रिपाठी, नोएडा