कल शाम को घर के बाहर चहलकदमी कर रहा था। कुछ दिनों के अंतराल से मैं आया था। भगवान के कमरे में जाकर, उनको प्रणाम कर आशीर्वाद लेने के बाद सभी के साथ बैठकर पंचायत, स्थितियों एवं परिस्थितियों का आंकलन और उनकी समीक्षा एवं रणनीति पर चर्चा, सगे-संबंधियों एवं इष्ट-मित्रों के साथ सम्बन्धों में चर्चा के उपरान्त एक मानसिक स्थिति में पहुँचने के बाद घर के बाहर खड़े होना एक सुखद एवं मिट्टी से जुड़े होने का एहसास प्रदान करते हैं। एक असीम शांति का अनुभव प्राप्त होता है। मुझे शायद ही कोई स्थान इतना सुखद लगता होगा जितना वह घर और घर के आसपास का वातावरण - असीम सुख, गरिमा एवं गरुता का अनुभव उस घर के आसपास की आबोहवा में। आप किसी भी मकान को देखेंगे, हर मकान एक अपनी कहानी और उसमें रहने वाले निवासियों के विषय में व्यक्त करता है। प्रत्येक घर एक प्रभा-मंडल होता है, उसका व्यक्तित्व होता है, सकारात्मक एवं नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है, जो कि उसके निवासियों पर अपना उचित व अनुचित प्रभाव डालता है। कभी - कभी किसी घर को देखकर उससे बातें करने की इच्छा जाग्रत होती है। मेरे घर का प्रभा-मण्डल व्यापक है, सकारात्मक है, सभी को अपने में सम्मिलित एवं समाहित करने का गुण और चरित्र है। जिसने भी इस भूमि पर कदम रखा, वह सुखी और उन्नति को प्राप्त हुआ, किन्तु जिसने भी अन्यथा विचार किया वह उसी में उलझा रहा।
मेरा घर मेरा गरूर रहा है। हमारे घर ने हम पारिवारिक जनों के संघर्षों को नजदीक से देखा है, मूक दर्शक की तरह नहीं अपितु अपनी ऊर्जा से, अपनी सकारात्मक तरंगों के साथ सदैव ही अपना साथ प्रदान किया है, हम सभी पारिवारिक जनों की रक्षा की है, सुरक्षा कवच के रूप सदैव ही ढाल बन कर खड़ा रहा है चाहे कितनी भी विकट परिस्थितियाँ रही हों। वह घर जहाँ हम खेल-कूद कर बड़े हुये, जिसने स्वप्नों की श्रृंखला का निर्माण किया, जिसने संघर्ष करना सिखाया, वह घर जिसने हमारी जिन्दगी को ढालने-साँचने में एक महती भूमिका का निर्वहन किया। साधन-संसाधन सीमित रहे हों किन्तु संयुक्त रूप से साथ-साथ जीना सिखाया है। एक साथ मिल बैठकर सब कुछ साझा करना, एक दूसरे के प्रति विश्वास एवं प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता रहा है। साधन सीमित होने के बावजूद् भी एक साथ खड़े हो जाना, इसी घर की परंपरा ने सिखाया है। इस घर में जीवन का अधिकतम समय व्यतीत हुआ है। परिवर्तन जीवन की एक सतत प्रक्रिया है, यह भी परिवर्तित हुआ है। पूर्वजों के पुरुषार्थ का प्रतीक है यह धरोहर। हम घर को नमन करते हैं, वंदन करते हैं और अभिनंदन करते हैं । घर के सामने की सड़क दो मुख्य सड़कों को जोड़ती है तथा यह अच्छी भी है इसलिए यह व्यस्त सड़कों में एक है। मैं बाहर चहलकदमी का आनन्द ले रहा था। स्कूटर, मोटरसाईकल, साईकल, रिक्शा आदि सारे वाहन निकल रहे थे। अचानक मेरी नजर एक स्कूटर पर पड़ी। एक नवयुवक एक बुजुर्ग व्यक्ति को स्कूटर में लेकर जा रहा था। पीछे बैठे बुजुर्ग व्यक्ति के श्वेत बाल उनकी अधिक उम्र को बयां कर रहे थे। कितना सुखद एहसास उन्हें होता होगा जब वह अपनी आने वाली पीढ़ी के साथ होते होंगे और नयी पीढ़ी जाती हुयी पीढ़ी को अपना अमूल्य समय प्रदान कर रही होती है। मुझे तो इस बात का अनुभव होता रहा है जब मैं अपने पूज्य पिताजी को लेकर स्कूटर के पीछे सीट पर बिठाकर उनके निर्देशों का पालन करते हुए उनको उनके गंतव्य तक पहुंचाने का कार्य किया करता था। उनको भी सुख का अनुभव होता होगा कि आने वाले लोग जाने वाले लोगों का ख्याल रख रहे हैं। मुझे भी सुखद व गर्व की अनुभूति होती थी जब वे अपने मित्रों से यह कहते थे कि - बेटा है यह मेरा। आज वह दृश्य फिर सजीव हो गया। यह सौभाग्य शायद ही विरलों को मिलता है। दोनों ही पीढ़ियाँ गौरवान्वित होती हैं। पिता - पुत्र, बाबा - नाती आदि-आदि। बचपन में जिन्होंने उँगली पकड़कर चलना सिखाया, उम्र के आखिरी पड़ाव में उनकी उँगली यदि पकड़ना पड़े तो सौभाग्य है यह। कंधे पर यदि कोई बुजर्ग हाथ रख कर चले तो आशीर्वाद है, सौभाग्य होगा उस व्यक्ति का जिसके कंधे को इस योग्य समझा। आज उस स्कूटर पर सवार नवयुवक एवं बुजर्ग व्यक्ति को देख अच्छा लग रहा है। ये संस्कार, यह संस्कृति हमारी सभ्यता में मौजूद रहें क्योंकि ये सब हमारी परम्परा के ध्वजावाहक हैं अन्यथा वृद्धाश्रम की परम्परा चल पड़ी है, जो बेहद चिंतनीय एवं घातक है भविष्य के लिए।