वो जो अन्दर से तरल है, वही गा पाता है,
मन से जो जितना सरल है, वही गा पाता है।
यूं तो गाने पे कोई रोक नहीं है यारो,
कंठ में जिसके गरल है, वही गा पाता है।।
गीतकार आत्म प्रकाश शुक्ल रचित उपर्युक्त चतुष्पदी को विविध समारोहों-गोष्ठियों में उद्धृत करते हुए मैंने खूब तालियाँ बटोरी हैं। स्वाभाविक रूप से ऐसे मौकों पर मन रचनाकार के प्रति कृतज्ञता से अभिभूत हो जाता है। यह भी विचित्र सुयोग है कि आत्म प्रकाशजी से व्यक्तिगत रूप से आत्मीयता न होते हुए भी उनकी रचनाओं से जो घनिष्ठता स्थापित हुई, वह काव्य प्रेमियों के बीच कई बार मुखर हुई है। उनके ब्रज-भाषा के मोहक छन्दों की भाषिक भंगिमा, यति-गति का संतुलन तथा छन्दों का अद्भुत कसाव सभी गुण मिलकर काव्य-रसिकों को प्रभावित ही नहीं, सम्मोहित कर लेते हैं। ब्रज-भाषा के ये छन्द रीतिकाल के सिद्ध कवियों के समानान्तर रखे जाने की सामर्थ्य से सम्पन्न हैं। बहुत ही लोकप्रिय है ‘पद्माकर’ का होली-केन्द्रित छंद :
‘फाग के भीर अभीरन में गहि गोबिन्द लै गई भीतर गोरी,
भाय करी मन की ‘पद्माकर’ ऊपर नाय अबीर की झोरी।
छीनि पितम्बर कंबर तें, सुबिदा दई मीड़ि कपोलनि रोरी,
नैन नचाय कही मुसकाय, लला फिरि आइयौ खेलन होरी।।’
ढीठ नायिका कृष्ण को एकान्त में ले जाकर मनमाने ढंग से रँगती है, अबीर से सराबोर कर देती है, कपोलों पर रोली मल देती है, उनका पीताम्बर छीन लेती है और अन्त में शरारत भरी मुस्कुराहट के साथ आँखें नचाकर कहती हैं – ‘लला फिरि आइयो खेलन होरी’।
राधाजी ऐसी शरारत करें और कृष्ण उसका माकूल जवाब न दें; यह असम्भव है। भले ही पद्माकर ने इसका उत्तर अपने छंदों के माध्यम से न दिया हो, परन्तु आधुनिक काल में कवि आत्म प्रकाश शुक्ल ने उसका प्रभावी उत्तर दिया है –
ढीठ गोपाल, जसोदा के लाल ने, गैल में घेरि करी बरजोरी
देखत पौरि में दौरि दुरी, लपटाइ लियो औ कियो झकझोरी।
लाल गुलाल सों लाल करी,पुनि पाछे उठाय कै नांद में बोरी
गाल में आंगुरी गाड़ि कही, घर जाहु लली अब है गई होरी।।
यहाँ ढिठाई कृष्ण करते हैं- गली में घेरकर गुलाल तथा रंग से सराबोर कर देते हैं और चुहलभरी टिप्पणी करते हुए राधा को परामर्श देते हैं – ‘घर जाहु लली अब है गई होरी।’
उपर्युक्त दोनों छंदों की प्रस्तुति का उद्देश्य आत्म प्रकाशजी की उस क्षमता की प्रतीति कराना है, जो उन्हें सिद्ध छंदकार प्रमाणित करती है। इसी प्रकार नायिका के सौन्दर्य का अंकन करने वाले उनके कई छंद बेजोड़ हैं। आधुनिक काल के किसी कवि की ऐसी छंद-प्रस्तुति यदि देव, घनानन्द की स्मृति करा दे, यह अपने में बड़ी उपलब्धि है। प्रस्तुत हैं दो छन्द :
राम रे राम वा रूप की का कहैं / नेति ने जैसे निबन्ध लिख्यौ है,
नयनन के गुन-औगुन देखि के / संतन ने अनुबन्ध लिख्यौ है।
नख तें सिख लौं धनि ऐसी लगै / जैसे बैठि बिहारी ने छंद लिख्यौ है,
हम कौन से अंग की बात करें / सब देह पै गीत-गुबिन्द लिख्यौ है।।
गाइ उठौ सोइ गीत बनै / तुम बात करौ सो मुहावरौ हुइ जाय,
मुख धोवौ तो ऊजरी भोर लगे / लट छोरी तो सूरज साँवरो हुइ जाय।
नैन की नागिन जाहि डसै सखि / आँखिन वारो हू आंघरो हुइ जाय,
मानुष की गिनती को गिनै / तुम्हें देखै विधाता तो बावरो हुइ जाय।।
रूप का ऐसा विवेचन विरल एवं विशिष्ट तो है ही, उदात्तता की उस परिधि का स्पर्श भी कराता है, जहाँ घनानन्द को कहना पड़ता है- ‘अँग-अंग तरंग उठे दुति की / परिहै मनौ रूप अबै धर च्वै’। आत्म प्रकाशजी की एक चतुष्पदी है:
‘आँख जितना आँकती वह रूप का अंकन नहीं है
उम्र चढ़ती धूप का विस्तार है दर्पन नहीं है।
देखने के बाद जितना अनदिखा है रूप वह
देखना तो दृष्टि का व्यापार है, दर्शन नहीं है।।’
आत्म प्रकाश जी का जन्म 1 सितम्बर 1939 को फर्रुखाबाद (उ.प्र.) के कायमगंज में पिता श्री बाबूलाल शुक्ल एवं माँ श्रीमती ब्रह्मादेवी के प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। शुक्लजी के पूर्वज उन्नाव (उ.प्र.) के बीघापुर गांव के निवासी थे। अंग्रेजी साहित्य से एम.ए. तक की उच्च शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त आप डी.ए.वी.इण्टर कॉलेज, अलीगंज में अंग्रेजी के प्रवक्ता के रूप में सम्बद्ध रहे। छात्र जीवन से ही आपका काव्यानुराग परिलक्षित होने लगा था, जो काव्य-मंचों पर पल्लवित-पुष्पित हुआ। उनके छंदों एवं गीतों के प्रकाशित संकलन का नाम है -’आतम की धुन न्यारी।’ कवि सम्मेलन के मंचों पर ‘गीतों के राजकुमार’ का वैभव अर्जित करने वाले शुक्लजी ने कुछ वर्षों पहले राजनीतिक क्षेत्र में सक्रियता दिखाते हुए समाजवादी पार्टी की सदस्यता ग्रहण की थी। सपा में वे दायित्वपूर्ण पदों पर भी रहे। लेकिन उनके साहित्यिक मित्रों, कवि बन्धुओं की दृष्टि, में यह क्षेत्र उनकी साहित्यिक सक्रियता को कमजोर करने वाला ही साबित हुआ। दुर्भाग्य से अन्तिम दिनों में पारिवारिक संकटों के कारण वे अवसादग्रस्त रहने लगे और उनका गोष्ठियों / सम्मेलनों में आना-जाना भी कम हो गया। उन्हीं का एक मुक्तक है :
‘प्यास सागर की कभी मरती नहीं है
ज़िन्दगी संघर्ष से डरती नहीं है।
आँसुओं की बूंद बरसाए बिना
गीत की गागर कभी भरती नहीं है।।’
काव्य-मर्मज्ञ समीक्षक डॉ. सुरेश गौतम कहते हैं- ‘आत्म प्रकाश शुक्ल के कवित्त, सवैयों, दोहों, गीतों में लोक-भाषा की लयात्मक छलकन है।…… संगीतात्मकता इनके गीतों का अतिरिक्त गुण है। छान्दसिकता में सधापन और लय-ताल में संगीत की अनुछवियाँ रचनागत भाव के सारतत्व को तीव्रता से संप्रेषित करती हैं।’ उनकी एक अन्य प्रकाशित काव्य-कृति का नाम ही है – ‘नहीं मरूंगा’। जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई मृत्यु की अनिश्चितता एवं अनिवार्यता को सकृतित करते हुए कभी उन्होंने लिखा था :
‘इस अजाने उबाऊ सफर में कहीं / दो घड़ी साथ जी लें, बड़ी बात है,
भीड़ से बच अकेले में बैठें कहीं / चाँदनी साथ पी लें, बड़ी बात है।’
साँस की सीढ़ियों से फिसलती हुई / उम्र ठहरे कहाँ,कुछ भरोसा नहीं
इन समर्पित क्षणों में प्रिये रात भर / हम फटे घाव सी लें, बड़ी बात है।।’
आत्म प्रकाशजी के काव्यात्मक अवदान की बड़ी बात है- छन्दों पर उनका असाधारण अधिकार। ब्रज भाषा ही नहीं खड़ी बोली के छंदों की उनकी प्रभावकारी प्रस्तुतियाँ अविस्मरणीय हैं। ‘पाप क्या’ शीर्षक घनाक्षरी छंद की छटा दृष्टव्य है :
देखने से दृष्टि की निरीहता उबर जाये –
ऐसी दिव्य दृष्टि को निहारने में पाप क्या ?
मूरत-सी सूरत बसे जो मन मन्दिर में
नयन मूँद आरती उतारने में पाप क्या ?
आपके समीप ढाई अक्षरों का सार सीख
शब्द और शिल्प को सुधारने में पाप क्या ?
आदमी का वेष पाप-पुण्य का निवेश है तो
ज़िन्दगी के श्लेष को सुधारने में पाप क्या ?
आत्म प्रकाश शुक्ल को सबसे पहले सुनने का सौभाग्य मिला था अपने पैतृक जनपद उन्नाव (उ.प्र.) के एक राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में। वह मंच नीरज सहित देश के शीर्षस्थ 15 कवियों से समृद्ध था। बैसवाड़ा अंचल की साहित्य प्रेमी जनता ऐसे आयोजनों की आतुरतापूर्वक प्रतीक्षा करती रहती है। उस दिन मुझे ही नहीं असंख्य श्रोताओं को आत्म प्रकाश शुक्ल के छंदों ने प्रभावित आनंदित किया था। तृप्ति और अतृप्ति का एक साथ अहसास हुआ था। इस अनुभूति की चर्चा कोलकाता में मैंने अपने सहपाठी और प्रख्यात होम्योपैथ डॉ. हृदय नारायण सिंह से की तो उसने शुक्लजी की कई चतुष्पदियाँ एवं छंद सुनाकर मुझे चमत्कृत कर दिया। कोलकाता में ही श्री नन्दलाल शाह / प्रमोद शाह के सौजन्य से आत्म दा को सुनने का एक-दो बार और मौका मिला। प्रख्यात गीत-ग़ज़लकार डॉ. शिव ओम अम्बर ने मेरे आग्रह पर ‘आत्म दा’ की रचनाएं भेजीं। वर्षा काल में विरहिणी की वेदना पर केन्द्रित एक छंद ध्यातव्य है :
‘नेह की बूंद झरी बदरी, पसुरी-पसुरी सब देह पिरानी
भीजत खीजत छोड़ि गयो, कर मींजति हौं, मेरी बात न मानी
सूनी अटारी, कटारी लगै, सुनि कोयल, कीर, मयूर की बानी
गाज गिरै ऐसे मौसम पै, जामे भीतर आगि और बाहर पानी’
अत्यंत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – ‘दुविधा में दोऊ गए माया मिली न राम’ आत्म प्रकाशजी ने उसका प्रयोग करते हुए एक सुंदर छन्द की रचना की हैं :
‘काम औ राम के बीच फँसे हम
दोऊ के हाथन मारे गए।
माया मिली औ न राम मिले
बदनाम भए औ बिसारे गए ।।
लाख बने बनि कै बिगरे,
बिगरे हूँ नहीं, ना सुधारे गए।
अँखियान की चोट सो जौ लौं
बचे मुस्कान की चोट से मारे गए।।’
दैनन्दिन जीवन में श्रीराम की व्याप्ति और गोस्वामी तुलसीदास की लोक-सम्पृक्ति का सहज शब्दावली में छन्दबद्ध अंकन करने वाली एक अभिव्यक्ति मुझे बहुत प्रिय है –
‘प्रात होत मन्दिर में रामधुन गूँजती है
लगता है राम को जगा रहे हैं तुलसी।
दोपहर होते, आते शबरी के बेर याद
जैसे राजाराम को खिला रहे हैं तुलसी।। सांध्य आरती में बजते हैं ढप, ढोल, झांझ
लोरियों से राम को सुला रहे हैं तुलसी।
हरे राम, हरे राम, राम-राम हरे राम
आठों याम राम से मिला रहे हैं तुलसी।।’
डूबकर लिखे गये ये छंद हों या चतुष्पदियाँ; भावपूर्ण गीत हों या काव्याभिव्यक्ति के दूसरे रूप रचनाकार का काव्य-कौशल पाठक / श्रोता को अभिभूत कर लेता है। ऐसे रचनाकारों-कवियों के लिए अत्यन्त अर्थ-गर्भ हैं, आत्म प्रकाश शुक्ल की ही ये चार पंक्तियाँ :
‘वक्त के पांव अनायास ठहर जायेंगे
गौर से देखो तो कुछ और नज़र आयेंगे
डूबकर हमको सुनोगे तो हम रफ़्ता रफ़्ता’
कान से होके कलेज़े में उतर जायेंगे।’
26 जुलाई 2017 को कानपुर में उनका देहावसान हुआ। उस दिन रचनाकार की दैहिक काया का भले ही अवसान हो गया हो, लेकिन अपनी रचनाओं के माध्यम से वह सदा जीवित रहेगा। कृष्णबिहारी ‘नूर’ ऐसे मौके पर सान्त्वना देते हैं – ‘अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है / ‘नूर’ संसार से गया ही नहीं।’ आत्म प्रकाश शुक्ल ख़ुद कहते हैं :
‘भागकर पकड़ो जिसे, वह छूट जाता है,
दूर तक चाहो जिसे, वह रूठ जाता है,
कामनाओं का सुनहला जाल बुनती ज़िन्दगी,
सांस का धागा अचानक टूट जाता है।।’