सम्पादक की ओर से

 पाठकों के लगाव और कलमकारों की आत्मीयता के बल पर ‘जनमैत्री’ अपने उद्देश्यों के साथ अविरल यात्रा पर अग्रसर है। डिजीटल प्लेटफार्म के जरिए जब सुधी पाठक ‘जनमैत्री’ में परोसी जा रही बौद्धिक सामग्री पर अपनी टिप्पणियां और सुझाव देते हैं तो सुखद अनुभूति स्वाभाविक है। पाठकों के लगाव का श्रेय हमारे लेखक-लेखिकाओं, कवि-कवियत्रियों तथा रचनाकारों को जाता है, जिनके विविध विधाओं और तरह-तरह के विषयों पर लेख लगातार पत्रिका को गरिमा प्रदान कर रहे हैं। हमारा पत्रिका के प्रारंभ काल से ही उद्देश्य रहा है- जन भावनाओं को उजागर करना, जन संस्कृति, मानवता को बढ़ावा देना और मजहब, राजनीति, साम्प्रदायिकता जैसे विषयों से दूर रहना। अति प्रसन्नता की बात है कि हमारे रचनाकार हमारी मूल भावना का आदर रखते हुए लगातार उसी तरह की पठन सामग्री प्रेषित करते जा रहे हैं।

 

सफर में चलते-चलते जनमैत्री का सम्पादक मण्डल महसूस करता है कि हमें अपनी ‘सांस्कृतिक जड़ों’ के नवजागरण का अभियान चलाना चाहिए और यह अभियान कलमकारों के सक्रिय सहयोग के बिना संभव नहीं है। दरअसल बहुत सारे विषयों को लेकर ‘शोसल मीडिया संस्कृति’ के जरिए लोग अक्सर ‘मगजमारी’ करते देखे-सुने जाते हैं, लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं निकलता, निकलेगा भी नहीं, क्योंकि सिर्फ बोलने से किसी भी समस्या का न तो समाधान हो सकता है और ना ही किसी भी विषय को समझा जा सकता है। बोलना और करना, कथनी-करनी साथ चलने से ही मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। इसके लिए हमें कलम की धार में ‘गंभीरता’ लानी होगी और धीर-गम्भीर पठन सामग्री पाठकों के समक्ष परोसनी होगी। सनातन संस्कृति, सनातनी परम्पराओं, मान्यताओं, इसके महत्व, इसकी जरूरत और इसकी प्रासंगिकता के लिए अभियान चलाना होगा, ताकि हमारे परिवार समाज-राष्ट्र के बच्चे, नई पीढ़ी अपनी गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत के बारे में तरो-ताजा हो सकें। भारतीय संस्कृति, सभ्यता, सनातन संस्कार, शिष्टाचार, व्यवहार, कर्तव्य और उत्तरदायित्व का बोध कराना समय की सबसे बड़ी जरूरत है, अन्यथा हम फिजूल के विषयों में उलझे रहेंगे, ‘जाल’ में फंसकर अटके रहेंगे और सांस्कृतिक-नैतिक मूल्यों का उत्तरोत्तर क्षरण होता रहेगा। अगर हम अपनी ‘जड़ों’ से युवा पीढ़ी को जोड़ने में सफल हो गए तो फिर सब कुछ अपने-आप ठीक होता जाएगा। हमें ठहरना नहीं, रुकना नहीं, प्रतीक्षा भी नहीं करनी है अपितु ठोस प्रयास करने हैं। सांस्कृतिक जड़ों को सिंचित करना है। यह काम आसान तो नहीं है, लेकिन मुश्किल भी नहीं है। क्या हम शोसल मीडिया का अपनी सांस्कृतिक विरासत की विशेषताओं के प्रचार-प्रसार में इस्तेमाल नहीं कर सकते? इस अभियान में हमें अपने स्तम्भकारों-रचनाकारों पर पूरा भरोसा है। हम ‘जनमैत्री’ के पटल से अपने नियमित लेखकों से विनम्र आग्रह और अपेक्षा करते हैं कि हमें उनसे इस तरह की पठन सामग्री मिलेगी, जो सांस्कृतिक नवजागरण का सम्बल बनेगी। इसी आशा और विश्‍वास के साथ पाठकों और कलमकारों के प्रति हृदय की गहराइयों से आभार।

धन्यवाद
प्रदीप शुक्ल